Saturday 24 June 2017

सरयूपारीण ब्राह्मण सरयूपारीण

Astrologer Ramdeo Pandey  खोजें JUN 18 सरयूपारीण ब्राह्मण सरयूपारीण ब्राह्मण सरयूपारीण ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मणो कि शाखा है। श्रीराम ने लंका विजय के बाद कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर उन्हे सरयु पार स्थापित किया था। सरयु नदी को सरवार भी कहते थे। ईसी से ये ब्राह्मण सरयुपारी ब्राह्मण कहलाते हैं। सरयुपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम मे उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पुर्व मे बिहार के छपरा तक तथा उत्तर मे सौनौली से लेकर दक्षिण मे मध्यप्रदेश के रींवा शहर तक है। काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं। एक अन्य मत के अनुसार श्री राम ने कान्यकुब्जो को सरयु पार नहीं बसाया था बल्कि रावण जो की ब्राह्मण थे उनकी हत्या करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए जब श्री राम ने भोजन ओर दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए ओर भोजन तथा दान समंग्री ग्रहण नहीं की वे ब्राह्मण सरयुपारीन ब्राह्मण कहे गए। सरयूपारीण ब्राहमणों के मुख्य गाँव : गर्ग (शुक्ल- वंश) गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है| (१) मामखोर (२) खखाइज खोर (३) भेंडी (४) बकरूआं (५) अकोलियाँ (६) भरवलियाँ (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं| उपगर्ग (शुक्ल-वंश) उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं| बरवां (२) चांदां (३) पिछौरां (४) कड़जहीं (५) सेदापार (६) दिक्षापार यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल बंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं| गौतम (मिश्र-वंश) गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे| (१) चंचाई (२) मधुबनी (३) चंपा (४) चंपारण (५) विडरा (६) भटीयारी इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं| उप गौतम (मिश्र-वंश) उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं| (१) कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े (६) कपीसा इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति मानी जाति है| वत्स गोत्र ( मिश्र- वंश) वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे| (१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडा बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है| कौशिक गोत्र (मिश्र-वंश) तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है| (१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशी बशिष्ट गोत्र (मिश्र-वंश) इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है| (१) बट्टूपुर मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसी शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश) शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बाह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं| (१) सांडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं| इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है| उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश) इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं| (१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा भार्गव गोत्र (तिवारी या त्रिपाठी वंश) भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें चार गांवों का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है| (१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक (३) चेतियाँ (४) मदनपुर भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश) भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बाये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है| (१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गादी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें| सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है| सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश) सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं| (१) इन्द्रपुर (२) दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी) सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश) सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बाते जाते हैं| (१) मलांव (२) नचइयाँ (३) चकसनियाँ कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश) इन तीन गांवों से बताये जाते हैं| (१) त्रिफला (२) मढ़रियाँ (३) ढडमढीयाँ ओझा वंश इन तीन गांवों से बताये जाते हैं| (१) करइली (२) खैरी (३) निपनियां चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र) इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है| (१) वंदनडीह (२) बलूआ (३) बेलउजां एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है| 🌇ब्राह्मणों की वंशावली🌇 भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया । वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था - उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, दुबे, तिवारी, पाण्डेय, और चतुर्वेदी । इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की। वे क्रमशः उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, तिवेदिनी पाण्ड्यायनी, और चतुर्वेदिनी कहलायीं। फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम - कष्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि, वसिष्ठ, वत्स, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, भृगडत्र, अंगिरा, श्रंगी, कात्याय, और याज्ञवल्क्य। इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं। मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं- (1) तैलंगा, (2) महार्राष्ट्रा, (3) गुर्जर, (4) द्रविड, (5) कर्णटिका, यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाय जाते हैं| तथा विंध्यांचल के उत्तर मं पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण (1) सारस्वत, (2) कान्यकुब्ज, (3) गौड़, (4) मैथिल, (5) उत्कलये, उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं। वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है। ऐसी संख्या मुख्य 115 की है। शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है । यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं। जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं, फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है | तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है। उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है 81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है - (1) गौड़ ब्राम्हण, (2)गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा) (3) श्री गौड़ ब्राम्हण, (4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण, (5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण, (6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण, (7) शोरथ गौड ब्राम्हण, (8) दालभ्य गौड़ ब्राम्हण, (9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण, (10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण, (11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर), (12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण, (13) वाल्मीकि ब्राम्हण, (14) रायकवाल ब्राम्हण, (15) गोमित्र ब्राम्हण, (16) दायमा ब्राम्हण, (17) सारस्वत ब्राम्हण, (18) मैथल ब्राम्हण, (19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण, (20) उत्कल ब्राम्हण, (21) सरवरिया ब्राम्हण, (22) पराशर ब्राम्हण, (23) सनोडिया या सनाड्य, (24)मित्र गौड़ ब्राम्हण, (25) कपिल ब्राम्हण, (26) तलाजिये ब्राम्हण, (27) खेटुवे ब्राम्हण, (28) नारदी ब्राम्हण, (29) चन्द्रसर ब्राम्हण, (30)वलादरे ब्राम्हण, (31) गयावाल ब्राम्हण, (32) ओडये ब्राम्हण, (33) आभीर ब्राम्हण, (34) पल्लीवास ब्राम्हण, (35) लेटवास ब्राम्हण, (36) सोमपुरा ब्राम्हण, (37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण, (38) नदोर्या ब्राम्हण, (39) भारती ब्राम astrologer ramdeo pandey द्वारा 6 days ago पोस्ट किया गया    0 टिप्पणी जोड़ें  लोड हो रहे हैं

पंक्तिपावन सरयूपारीण ब्राह्मण समाज

PANKTIPAWAN SARYUPARIN BRAHMIN SAMAJ पंक्तिपावन सरयूपारीण ब्राह्मण समाज HomeContactBlogPhoto Gallery विप्र वंश की अस प्रभुताई, अभय होई जे इनहि डेराहीं प्राक्कथन इस चिठ्ठे की उत्त्पति मेरे इस एहसास के साथ हुई कि हम किस प्रकार विदेशों में रहते हुए अपने आने वाली पीढियों को उनके पुरखों के बारे में बताएँगे? सहस्र युगों, कल्पों से चली आ रही इस परम्परा को किस प्रकार आर्यावत से बाहार जम्बू द्वीप से सप्त-सागरों की दूरी पर बसी इस धरती पर पलने -बढ़ने अपने वंशजों को समझा पाएंगे। कहीं यह धरोहर हम खो न दे। इसको संजोने और इसको अग्रसर करने कि महती जिम्मेदारी हम पर ही तो हैं। आजकल जब लोग विभिन्न वेबसाइटओं, शास्त्रों (वाचनालयों ) और प्रवासन अभिलेखों में अपने पुरखों को ढूंढते हैं और उनका कोई भी सन्दर्भ मिलने पर गौरान्वित महसूस करते हैं। यह सन्दर्भ, चाहे वो अमेरिका, कैरेबियन में गुलामी के दलदल से हो या फिजी और अमेरिकी देशों में बंधुआ मजदूरों के हो या फिर ऑस्ट्रेलिया में अपराधी पूर्वजों के, अपनी वतमान पीढियों को अपनी जड़ें मिलने पर वैसे ही अपार सुख देते हैं जैसे कि कारू का खजाना मिलने पर किसी निर्धन को...क्या हम अपनी अल्पज्ञता से अपनी आनेवाली पीढियों को इस सुख से वंचित कर देंगे। वैसे भी हमारे अप्रवास के कारण हमारी संताने विदेशों में अलग ही पहचान के साथ पलेंगी -ऐसे में अपनी इतिहास का ज्ञान उन्हें अपने संस्कारों और संस्कृति से जोड़कर रखेगा। ऐसा करने से वे अपने वर्तमान परिवेश के साथ अपनी पुरातन संस्कृति और हमारे रीति-रिवाजों को बेहतर समझ पाएंगे। अन्यथा वे इन रीति रिवाजों को किसी आदिम प्रथा का दर्जा देकर नकार देंगे। वैसे भी वो ही पीढियां पनपती हैं जो वर्तमान का बोध रखकर, इतिहास को समझते हुए भविष्य का सपना संजोये। आयुर्वेदाचार्य पं. सत्यनारायणजी मिश्र के सम्पादकत्व में निकलने वाले 'कान्यकुब्ज हितकारी' मासिक पत्र के सन् 1926 के दो अंकों में भी इसी बात की चर्चा यों हुई थी, ''कई बार बड़ी-बड़ी सभाओं के मंचों एवं ब्राह्मण जाति के इतिहास वेत्ताओं के श्रीमुखों से यह मसला अब निर्विवाद सिध्द हो चुका है कि सरयूपारीण, सनाढय, जुझौतिया, भूमिहार, पर्वतीय, बंगाली आदि सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। जिन ब्राह्मणों के भोजपंक्ति में बैठने से पंक्ति पवित्र मानी जाती है, उनको पंक्तिपावन ब्राह्मण कहा जाता है। इनमें प्राय: श्रोत्रिय ब्राह्मण (वेदों का स्वाध्याय और पारायण करने वाले) होते हैं। संस्कार सम्बन्धी भोजों में पंक्तिपावन ब्राह्मणों की विशेषता मानी जाती थी, परन्तु वह भी सामूहिक न थी। पंक्तिपावन ब्राह्मण पंक्तिदूषण की अपेक्षा बहुत कम होते थे। जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको पंक्तिदूषण कहा जाता है। ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है। हव्य-कव्य के ब्रह्मभोज की पंक्ति में यद्यपि नास्तिक और अनीश्वरवादियों को सम्मिलित करने का नियम न था तथापि उन्हें पंक्ति से उठाने की शायद ही कभी नौबत आई हो, क्योंकि जो हव्य-कव्य को मानता ही नहीं, यदि उसमें तनिक भी स्वाभिमान होगा तो वह ऐसे भोजों में सम्मिलित होना पसन्द नहीं करेगा। पंक्तिदूषकों की इतनी लम्बी सूची देखकर समझा जा सकता है कि पंक्तिपावन ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी नहीं हो सकती। ब्राह्मणसमुदाय के अतिरिक्त अन्य वर्णों में पंक्ति के नियमों के पालन में ढीलाई होना स्वाभाविक है। पंक्ति में मूल रूप से कतार का ही भाव है। सरलरैखीय एक ऐसी व्यवस्था जिसमें एक साथ एक ही प्रकार की वस्तुए या प्राणी एक कतार में हों। श्रेणी या सीधी सरल रेखा या कतार को पंक्ति कहते हैं। फौजियों की गारद या प्लाटून भी पंक्ति कहलाती है। भोजशाला में सामूहिक भोजन के लिए बैठे आमंत्रितों के समूह को भी पंक्ति कहते हैं। हिन्दी पंक्ति के इस खास प्रकार के लिए पंगत या पांत जैसा सीधा-सरल देशज शब्द है। पंगत यानी सामूहिक भोजन। पंगत का अर्थ उत्सवी जमावड़ा भी होता है। इस अर्थ में सभा-आयोजन को भी पंगत या पांत कहा जा सकता है। इसका मुहावरेदार इस्तेमाल होता है जैसे पंगत लगाना या पंगत जमाना। पंक्ति से ही बना है पांत जिसका प्रयोग अक्सर श्रेणी या दर्जा के अर्थ में होता है। पांत के अर्थ में समाज की विशिष्ट जमातों का भी समावेश हो जाता है। जैसे ब्राह्मणों की पांत या यादवों की पांत। पंक्ति शब्द की व्युत्पत्ति हुई है संस्कृत धातु पंच् से बना है पंक्ति शब्द। पंच् का सामान्य अर्थ पांच की संख्या है मगर इसके मूलार्थ किसी विशिष्ट अंक या संख्या का द्योतक नहीं है बल्कि यह समूहवाची शब्द है। पंच यानी अनेक। वैदिक युग में पंच में अंक संबंधी भाव समाहित हुए। काया, पृथ्वी आदि के संदर्भ में पंचतत्वों की कल्पना की गई। उनकी तार्किक विवेचना के बाद पंचमहाभूत की परिकल्पना स्थापित हुई जो आज भी प्रचलित है। शरीर पंचतत्व (क्षिति, जल पावक, गगन, समीरा यानी अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश) से निर्मित है, इसे मनुष्य ने समझा। उसने अपने हाथों और पैरों की अंगुलियों की रचना पर गौर किया। इन्हें भी पंच् की कल्पना के अनुकूल पाया। पांच का अंक इसी रूप में सामने आया। पंच् का एक अर्थ दस की संख्या भी था। गणित में दहाई का महत्व है। भारतीय मनीषियों ने शून्य की परिकल्पना से दाशमिक प्रणाली को जन्म दिया। सेना में दस-दस योद्धाओं की श्रेणी या फाइल को भी पंक्ति ही कहते हैं। रावण का एक विशेषण पंक्तिग्रीव भी है अर्थात दशानन। पंक्ति शब्द से कुछ अन्य शब्द भी बने हैं जो हिन्दी में प्रयोग होते हैं जैसे ब्राह्मणों का एक वर्ग खुद को पंक्तिपावन कहलाने में गर्व का अनुभव करता है। ये सब जगह होते हैं। महाराष्ट्र में यह शब्द आज भी सुनने को मिलता है जिसका मतलब है अपनी उपस्थिति मात्र से समूचे समूह को धन्य करनेवाला। किन्ही आनुष्ठानिक अवसरों पर जब विद्वान ब्राह्मण सामूहिक भोज में सम्मिलित होते थे, तब यह माना जाता था कि उनकी कुलीन उपस्थिति समूचे जनसमुदाय अर्थात पंक्ति को पवित्र-पावन कर देगी। ऐसे अवसर रोज-रोज नहीं आते थे। सम्मान, ज्ञान और विद्वत्ता का ही होता है, सो पंक्तिपावन में विद्वत्ता और कुलीनता का संकेत भी छुपा है। अपनी शाखा में श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भी पंक्तिपावन कहा जाता था। इस शब्द में छुपे महत्व को ब्राह्मणों ने पहचाना और चतुराई पूर्वक इसका इस्तेमाल भी किया। कई सगोत्रीय ब्राह्मणों के संस्कारों और विद्यार्जन में दोष निकालकर उन्हें पंक्तिपावन का रुतबा नहीं दिया जाता था। बाद में पंक्तिच्युत शब्द भी चल पड़ा था मगर इसका संबंध ब्राह्मण समुदाय से न होकर सभी समाजों के उन लोगों से था जो किसी न किसी वजह से अपने मूल समाज से बहिष्कृत थे। इसके लिए चलताऊ शब्द है जात-बाहर। दशरथ का एक नाम पंक्तिरथ भी था। गोत्र गोत्र जनजातीय गुटों में से एक बहुत बड़ी व्यवस्था के लिए संस्कृत शब्द है. संस्कृत शब्द "Gotra" शुरू में प्रजातियों की पहचान के लिए वैदिक लोगों द्वारा इस्तेमाल किया गया था Description शांडिल्य गोत्र सरयूपारीण ब्रह्मण | Shandilya Gotra Saryuparin Brahman शांडिल्य, की परिभाषा शांडिल्य, का अर्थ शांडिल्य - शांडिल्यसंज्ञा पुं० [सं० शाणिडल्य] १. बेल । श्रीफल । २. अग्नि । ... ३. एक मुनि जिनकी रची एक स्मृति है और जो भक्तिसूत्र के कर्ता माने जाते हैं । ४. शांडिल्य के कुल में उत्पन्न पुरूष । ५. सरयूपारीण ब्राह्मणों के तीन प्रधान गोत्रों में से एक गोत्र । यौ०—शांडिल्य गोत्र = शांडिल्य के कुल में उत्पन्न । शांडिल्य गोत्र की व्युत्पत्ति व्रह्मा : - कश्यप,असिती,देवल. वेद :- सामवेद प्रवर :- कश्यप,असिती,देवल शाखा :- कौथुमी उपवेद:- गन्धर्व शिखा:- वाम पाद :- वाम सूत्र :- गोमिल इष्ट देव :- शिव वंशज :- सरया,सोहगौरा,मठिया,देउरवा,बलुआ,सिरजम,धानी,सोपारी,चेतिया,परतावल. उप नाम: - राम,कृष्ण,नाथ,मणि. राम घराना:- गोरखनाथ नामक एक तपस्वी एवं ओजस्वी ब्राह्मण थे उन्ही के नाम पर राम घराना नाम पड़ा. सरया,सोहगौरा,उनवलिया,अतरौलिया,रुद्रपुर,झुडिया,वहुआरी,मसरुतिया,कोठा,वदश,मऊ,गोहना,दुलई,मलहानी. कृष्ण घराना:- बारिपुर, बसावनपुर, बंजरिया ,बुधियाबारी. नाथ घराना:- चेतिया,परतावल,मिलौनी,निगहिया, नदौली. मणि घराना: देवता पचरुखिया,धानी,हरदी,बलुआ,बुधियाबारी,तलियाबाद,बढ़ना,सिरजम,सेमरी,रथवर्ग,देवतिया,बरपार,उद्धवपुर,हथिदह,परास्सुपारी,यमुना,करकपर्गढ़,सुकरौली,सोनौरा ,कुठौली,सिसवांलेदक | हिन्दू ब्राह्मण शांडिल्य गोत्र Gotra is the Sanskrit term for a much older system of tribal clans. The Sanskrit term "Gotra" was initially used by the Vedic people for the identification of the lineages. Generally, these lineages mean patrilineal descent from the sages or rishis in Brahmins, warriors and administrators in Kshatriyas and ancestral trademen in Vaisyas. Shandilya is a special gotra system started in Bengal, whose later clan are identified as Pascyatta Vaidik Brahmin. The particular gotra had been migrated from swarasat land near Kanouj. The History as written by contemporary writer "Kallahan" has indicated that there was a clan with a gotra called "Shandilya" migrated from upperdelta os river swaraswati, to Janapada of Aryasthan. The later history of Saka 1001 has identified that Syamal varama had invited five Brahmin to perform special ritual for worshiping varun to mitigate famine in his kingdom. These pancha gotra Brahmin settled in different part of Bengal. The Brahmin of Shandilya gotra settled in Kotalpara. He is one of the prominent Kulin Brahmin of special clan called "Pachiyatta Vaidik Brahmin". The present clan of Pachyatta Vaidik Brahmin is widely spread in East Bengal and even more so in West Bengal. Some of them have even recently migrated to Mumbai. Saryupareen Brahmins (Hindi: सरयू पारीण ब्राह्मण), also known as Sarvarya Brahmins or Saryupariya Brahmins, are North Indian Brahmins residing on the eastern plain of the Sarayu near Ayodhya. Saryupareen families such as the Tripathi, Tiwari, Trivedi, Pandey, Mishra, Shukla, and Dikshit were involved solely in the research and analysis of Vedas and other religious texts, performing yajnas and other religious practices. These families did not perform 'pujas for benefactors and did not take dakshinas or donations against such prayers. Hence they were considered to be solely devoted to the quest of learning about the Vedas and spreading knowledge rather than benefiting in any way through benefactors. Along with the other Pancha-GaudaBrahmin communities, the Saryupareen traditionally preserve the customs and traditions as prescribed by ancient Hindu canons. In the 19th (held at Prayag) and 20th (held at Lucknow) national convention of Kanyakubja Brahmins by Kanyakubja Mahati Sabha, in 1926 and 1927 respectively, it appealed for unity among Kanyakubja Brahmins whose different branches included Sanadhya, Pahadi, Jujhoutia, Saryupareen,Chattisgarhi, Bhumihar Brahmins and different Bengali Brahmins.[1] The Saryupareen generally dwell in the states of Uttar Pradesh, Bihar and Madhya Pradesh with a significant amount of them concentrated in the eastern region of Uttar Pradesh known as Purvanchal. There are also minority Saryupareen communities in Mauritius, where Bhojpuri is a commonly spoken language and the Caribbean. These Brahmins are divided into 26 categories Gautama, Sandilya,Vashista, Parashara,Kaundinya,Garga, Udbahu, Upamanyu, Maunas, Kanva, Vartantu, Bhrigu, Agastya, Kaumasya,Galava, Kasyapa, Kaushika, Bhargava, Savarnaya, Atri, Katyayana, Angiras, Vatsa, Sankritya Jamadagni, Punah. Other than above gotras 1. Krishanatraya, 2. Ghritakausika, 3. Margeya are called mishrit (combined) gotra. However, 261 gotras are mentioned in some source. Migration and Profession Over the years, members of this community have migrated from the region of current Uttar Pradesh towards other parts of India like Bihar, Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Assam, West Bengal,Gujarat, Maharashtra, and even overseas like USA, Surinam, Fiji, Guyana, Mauritius, Trinidad etc.[citation needed], where they lost caste, because the Manusmirti states that when a Brahmin or Kshatriya travels overseas he looses his caste. Webs Create your own free website today 

सरयूपारीण ब्राह्मण परिषद

सरयूपारीण ब्राह्मण परिषद  ▼ सरयूपारीण ब्राह्मण अर्थात् अयोध्या के निकट सरयू के पूर्वी मैदान पर रहने वाले पांडे , त्रिपाठी , तिवारी , मिश्रा , शुक्ला , द्विवेदी और दीक्षित आदि उत्तर भारतीय ब्राह्मण हैं । पूर्व मे ये केवल यज्ञ वेद और अन्य धार्मिक ग्रंथों के अनुसंधान और विश्लेषण में शामिल थे । ये पूजा पाठ के प्रदर्शन के खिलाफ थे और दान दक्षिणा नहीं लेते थे। इसलिए वे केवल वेदों के बारे में सीखने-सिखाने और ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित थे ना कि दान दक्षिणा एवं लाभ लिए । ब्राह्मण सदैव ही सत्य एवं ज्ञान की रक्षा के लिए तत्पर रहें हैं - चाहे वो वैदिक मीमांसा हो, या रावण रचित गणित सूत्र या फिर चाणक्य द्वारा राष्ट्र निर्माण ...यहाँ तक कि ब्राह्मणों ने हिदुत्व के बहार निकलकर बौध , जैन , सिख और इस्लाम (हुसैनी ब्राह्मण के रूप में ) सत्य की रक्षा की हैं। यह ब्राह्मणों का निष्कपट, निर्पंथ, निर्मल, शांत प्रिय, आत्म-संयामी, सत्य-अन्वेषी एवं ज्ञान पिपासु स्वभाव ही रहा होगा जिसने डॉ. ऑलिवर वेन्डेल होल्म्स सीनियर को अपने समाज के संभ्रांत सदस्यों के लिए "बोस्टन ब्राह्मण" जैसे शब्दों के चयन को मजबूर किया होगा। यह वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव है कि हमारे लिए कुल, गोत्र आदि का मतलब समाप्त हो गया है. हम भी जाति और जनपद को उसी तरह गाली देने लगे हैं जैसे अंग्रेज बहादुर देकर चले गये. सजातीय गोत्र में शादी न करने के पीछे कारण यह है कि हम एक ही ऋषि की संतान हैं. इसलिए आज उस गोत्र का कोई भी व्यक्ति कितनी भी दूर क्यों न हो रिश्ता भाई-बहन का होता है. इसको कोई पोंगापंथी नजरिये से देखना चाहे तो यह उसकी समझ है मैं इसे दूसरे नजरिये से देखता हूं. हमारे बंधुत्व को बढ़ाने में यह एक कारगर औजार है. आज जब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के उपयोग से हमारी समझ छिन्न-भिन्न् करने की कोशिश की जा रही है ऐसे औजारों के बारे में हमें नये सिरे से सोचने और समझने की जरूरत है. बहुत समय नहीं गुजरा जब योग और आयुर्वेद को आधुनिक चिकित्सा के सामने तुच्छ और हीन माना जा रहा था. पिछले 10 सालों में ऐसा क्या हो गया कि योग और आयुर्वेद इलिट क्लास की चिकित्सा पद्धति बन बैठा. त्रिदोष और पंचमहाभूत की अवधारणा को हमने अचानक ही वैज्ञानिक मान्यता क्यों दे दी? क्योंकि पश्चिम ने उसे नये सिरे से अपना लिया. पश्चिम ने कहा कि योग और आयुर्वेद अच्छा है. फिर हमें भी होश आया कि योग-आयुर्वेद तो हमारा अपना है. नहीं तो समाजवादी अर्थव्यवस्था और सोच ने गांव-गांव से वैद्य परंपरा को खत्म कर दिया था. आज गांवों में वैद्य उपनाम बचे हैं लेकिन उस घर का आदमी अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए मेहनत मजदूरी करता है. मैं यह नहीं कहता कि वैद्यकी में दोष नहीं आये होंगे. लेकिन दोष निवारण की जगह उस विधा को ही समाप्त कर देना कहां की बुद्धिमानी है? इसमे कोई संदेह नहीं है कि सरयूपारीण ब्राह्मण मुकुट में रत्न के समान हैं , चूँकि सादगी ब्राह्मण जीवन के सही तरीके का प्रतिनिधित्व करती है परन्तु अब समय है कि हमें अपनी एकता का एहसास होना चाहिए । Share  Home View web version Powered by Blogger.