Tuesday, 21 March 2017
गच्छ
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गच्छ

गच्छ, श्रीपुज्य जैन आचार्य का परिवार अथवा एक श्रीपुज्य से दीक्षित यति समुदाय। प्रत्येक गच्छ की गुरु परंपरा को गच्छावली अथवा पट्टावली कहते हैं। इस समय जैन धर्म में चौरासी गच्छ जैन धर्म में ८४ गछ ही होते है जो भगवान महावीर स्वामी के समय से ही निर्धारित है और इन गच्छों का सञ्चालन यति परंपरा के आचार्य यानि की श्रीपुज्य जी करते थे। इसमें सभी गच्छों के अलग अलग श्रीपुज्य होते हैं और उनके सम्प्रदाय में दीक्षित सभी साधू 'यति' कहलाते हैं। यति परम्परा जैन धर्म में दीक्षित सबसे पुराणी परम्परा है जो भगवान ऋषभ देव स्वामी के समय से चली आरही है।जब भगवान ऋषभ देव जी को पारना करना था तब सब किसी ने उनको धन माया भेट दी मगर उन्होंने किसी से ये सब स्वीकार नहीं किया। तब श्रेणिक राजा ने उनको गन्ने के रस को बोहरा कर पारना करवाया तभी से ही यति भगवन्तो को गौचरी बोहराने की परम्परा चली आ रही। फिर भगवान महावीर स्वामी से चतुर्विध संघ का चलन हुआ जिसमे जैन साधू /यति - साध्वी/यतिनिया श्रावक/ श्राविका को एक दुसरे का पूरक मान कर संघ की स्थापना की और ८४ गच्छो का निर्माण किया। ये ८४ गच्छ सिर्फ यति सम्प्रदाय के लिए ही था लेकिन कालांतर में यति प्रथा से अलग हुए या निकले गए साधुओं ने अपने अपने नए सम्प्रदाय का निर्माण किया और इन गच्छो के नामों का उपयोग करने लगे। पूर्व में जितने भी आगम- श्लोक- पूजाएँ और ग्रन्थ लिखे गए है वे सब जो आज जैन धर्म में हम पढ़ रहे है वो यति भगवन्तो की देन है। वर्तमान में यति परम्परा में कम ही लोग इसलिए दीक्षित होते हैं क्योंकि इस परम्परा में दीक्षित होने के लिए साधना-तप-त्याग-ब्रह्मचर्य-अस्तेय-का होना जरुरी है। समय के साथ इस साधू परम्परा में कमी आई और सब इस नयी सरल परम्परा में दीक्षित होने लगे और यति परम्परा जो जैन धर्म की रक्षा करने वाली और आज के इस शुद्ध और सात्विक परम्परा की जनक परम्परा है धीरे धीरे कम हो रही है। इस परम्परा में अंतिम दीक्षित यति कुमार विजय हैं जिनकी दीक्षा गुजरात के वडोदरा के वाल्वोद गाँव में हुई है।
संवाद
Last edited 2 months ago by Sanjeev bot
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