सरयूपारीण ब्राह्मण परिषद  ▼ सरयूपारीण ब्राह्मण अर्थात् अयोध्या के निकट सरयू के पूर्वी मैदान पर रहने वाले पांडे , त्रिपाठी , तिवारी , मिश्रा , शुक्ला , द्विवेदी और दीक्षित आदि उत्तर भारतीय ब्राह्मण हैं । पूर्व मे ये केवल यज्ञ वेद और अन्य धार्मिक ग्रंथों के अनुसंधान और विश्लेषण में शामिल थे । ये पूजा पाठ के प्रदर्शन के खिलाफ थे और दान दक्षिणा नहीं लेते थे। इसलिए वे केवल वेदों के बारे में सीखने-सिखाने और ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित थे ना कि दान दक्षिणा एवं लाभ लिए । ब्राह्मण सदैव ही सत्य एवं ज्ञान की रक्षा के लिए तत्पर रहें हैं - चाहे वो वैदिक मीमांसा हो, या रावण रचित गणित सूत्र या फिर चाणक्य द्वारा राष्ट्र निर्माण ...यहाँ तक कि ब्राह्मणों ने हिदुत्व के बहार निकलकर बौध , जैन , सिख और इस्लाम (हुसैनी ब्राह्मण के रूप में ) सत्य की रक्षा की हैं। यह ब्राह्मणों का निष्कपट, निर्पंथ, निर्मल, शांत प्रिय, आत्म-संयामी, सत्य-अन्वेषी एवं ज्ञान पिपासु स्वभाव ही रहा होगा जिसने डॉ. ऑलिवर वेन्डेल होल्म्स सीनियर को अपने समाज के संभ्रांत सदस्यों के लिए "बोस्टन ब्राह्मण" जैसे शब्दों के चयन को मजबूर किया होगा। यह वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव है कि हमारे लिए कुल, गोत्र आदि का मतलब समाप्त हो गया है. हम भी जाति और जनपद को उसी तरह गाली देने लगे हैं जैसे अंग्रेज बहादुर देकर चले गये. सजातीय गोत्र में शादी न करने के पीछे कारण यह है कि हम एक ही ऋषि की संतान हैं. इसलिए आज उस गोत्र का कोई भी व्यक्ति कितनी भी दूर क्यों न हो रिश्ता भाई-बहन का होता है. इसको कोई पोंगापंथी नजरिये से देखना चाहे तो यह उसकी समझ है मैं इसे दूसरे नजरिये से देखता हूं. हमारे बंधुत्व को बढ़ाने में यह एक कारगर औजार है. आज जब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के उपयोग से हमारी समझ छिन्न-भिन्न् करने की कोशिश की जा रही है ऐसे औजारों के बारे में हमें नये सिरे से सोचने और समझने की जरूरत है. बहुत समय नहीं गुजरा जब योग और आयुर्वेद को आधुनिक चिकित्सा के सामने तुच्छ और हीन माना जा रहा था. पिछले 10 सालों में ऐसा क्या हो गया कि योग और आयुर्वेद इलिट क्लास की चिकित्सा पद्धति बन बैठा. त्रिदोष और पंचमहाभूत की अवधारणा को हमने अचानक ही वैज्ञानिक मान्यता क्यों दे दी? क्योंकि पश्चिम ने उसे नये सिरे से अपना लिया. पश्चिम ने कहा कि योग और आयुर्वेद अच्छा है. फिर हमें भी होश आया कि योग-आयुर्वेद तो हमारा अपना है. नहीं तो समाजवादी अर्थव्यवस्था और सोच ने गांव-गांव से वैद्य परंपरा को खत्म कर दिया था. आज गांवों में वैद्य उपनाम बचे हैं लेकिन उस घर का आदमी अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए मेहनत मजदूरी करता है. मैं यह नहीं कहता कि वैद्यकी में दोष नहीं आये होंगे. लेकिन दोष निवारण की जगह उस विधा को ही समाप्त कर देना कहां की बुद्धिमानी है? इसमे कोई संदेह नहीं है कि सरयूपारीण ब्राह्मण मुकुट में रत्न के समान हैं , चूँकि सादगी ब्राह्मण जीवन के सही तरीके का प्रतिनिधित्व करती है परन्तु अब समय है कि हमें अपनी एकता का एहसास होना चाहिए । Share  Home View web version Powered by Blogger. 
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete