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वाल्मीकि
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वाल्मीकि रामायण के रचना करते हुएदर्शनधार्मिक आन्दोलन जिसे वाल्मीकिशास्त्र कहते हैं वो वाल्मीकिके कलामे आधिरित हैं।खिताब/सम्मानदिपान्शु कुलश्रेष्ठरामायण, योगविशिष्ठ के रचनाकार
वाल्मीकि (/vɑːlˈmiːki/;[1] संस्कृत: वाल्मीकि Vālmīki)[2] प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत मे रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है ।
वाल्मीकि का जन्म नागा प्रजाति में हुआ था। महर्षि बनने के हले वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे। वे परिवार के पालन-पोषण हेतु दस्युकर्म करते थे। एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिले। जब रत्नाकर ने उन्हें लूटना चाहा, तो उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि यह कार्य किसलिए करते हो, रत्नाकर ने जवाब दिया परिवार को पालने के लिये। नारद ने प्रश्न किया कि क्या इस कार्य के फलस्वरुप जो पाप तुम्हें होगा उसका दण्ड भुगतने में तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे। रत्नाकर ने जवाब दिया पता नहीं, नारदमुनि ने कहा कि जाओ उनसे पूछ आओ। तब रत्नाकर ने नारद ऋषि को पेड़ से बाँध दिया तथा घर जाकर पत्नी तथा अन्य परिवार वालों से पूछा कि क्या दस्युकर्म के फलस्वरुप होने वाले पाप के दण्ड में तुम मेरा साथ दोगे तो सबने मना कर दिया। तब रत्नाकर नारदमुनि के पास लौटे तथा उन्हें यह बात बतायी। इस पर नारदमुनि ने कहा कि हे रत्नाकर यदि तुम्हारे घरवाले इसके पाप में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिये यह पाप करते हो। यह सुनकर रत्नाकर को दस्युकर्म से उन्हें विरक्ति हो गई तथा उन्होंने नारदमुनि से उद्धार का उपाय पूछा। नारदमुनि ने उन्हें राम-राम जपने का निर्देश दिया।रत्नाकर वन में एकान्त स्थान पर बैठकर राम-राम जपने लगे लेकिन अज्ञानतावश राम-राम की जगह मरा-मरा जपने लगे। कई वर्षों तक कठोर तप के बाद उनके पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली जिस कारण उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा रामायण की रचना करने की आज्ञा दी। हालकि वाल्मीकि ने रामायण मे स्वयं कहा है कि :
प्रेचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनंदन। मनसा कर्मणा वाचा भूतपूर्वं न किल्विषम्।।
हे राम मै प्रचेता मुनि का दसवा पुत्र हू और राम मैंने अपने जीवन में कभी भी पापाचार कार्य नहीं किया है।
जिससे कि रत्नाकर की कहानी मिथ्या ही प्रतीत होती है क्योकि ऐसा ऋषि जिसके पिता स्वयं एक मुनि हो तो भला वह डाकू कैसे बन सकता है और वह स्वयं राम के सामने सीता जी की पवित्रता के बारे मे रामायण जैसी रचना मे अपना परिचय देता है तो वह गलत प्रतीत नहीं होता। [3]
आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये।
आदि कवि वाल्मीकिसंपादित करें
एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ाः
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'
((निषाद)अरे बहेलिये, (यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्) तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं (मा प्रतिष्ठा त्वगमः) हो पायेगी)
ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये।
अपने महाकाव्य "रामायण" में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे।
अपने वनवास काल के मध्य "राम" वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में भी गये थे।
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीक आश्रम प्रभु आए॥
तथा जब "राम" ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब वाल्मीकि ने ही सीता को प्रश्रय दिया था।
उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि "राम" के समकालीन थे तथा उनके जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान वाल्मीकि ऋषि को था। उन्हें "राम" का चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की।
जीवन परिचयसंपादित करें
हिंदुओं के प्रसिद्ध महाकाव्य वाल्मीकि रामायण, जिसे कि आदि रामायण भी कहा जाता है और जिसमें भगवान श्रीरामचन्द्र के निर्मल एवं कल्याणकारी चरित्र का वर्णन है, के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के विषय में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ प्रचलित है जिसके अनुसार उन्हें निम्नवर्ग का बताया जाता है जबकि वास्तविकता इसके विरुद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं के द्वारा हिंदू संस्कृति को भुला दिये जाने के कारण ही इस प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हैं। वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या ७/९३/१६, ७/९६/१८ और ७/१११/११ में लिखा है कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी के पुत्र थे। यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम 'अग्निशर्मा' एवं 'रत्नाकर' थे।
प्रेचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनंदन। मनसा कर्मणा वाचा भूतपूर्वं न किल्विषम्।। भगवान् वाल्मीकि जी ने रामायण में राम को सम्बोधित करते हुए लिखा है कि हे, राम मैंने अपने जीवन में कभी भी पापाचार कार्य नहीं किया है।
भगवान वाल्मीकि के पिता का नाम वरुण और मां का नाम चार्षणी था। वह अपने माता-पिता के दसवें पुत्र थे। उनके भाई ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि थे। महर्षि कश्यप और अदिति के नौवीं संतान थे पिता वरुण। वरुण का एक नाम प्रचेता भी है, इसलिए वाल्मीकि प्राचेतस नाम से भी विख्यात हैं।
मत्स्य पुराण में भगवान वाल्मीकि को भार्गवसप्तम् नाम से स्मरण किया जाता है, तथा भागवत में उन्हें महायोगी कहा गया है। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित दशमग्रन्थ में वाल्मीकि को ब्रह्मा का प्रथम अवतार कहा गया है।
परम्परा में महर्षि वाल्मीकि को कुलपति कहा गया है। कुलपति उस आश्रम प्रमुख को कहा जाता था जिनके आश्रम में शिष्यों के आवास, भोजन, वस्त्र, शिक्षा आदि का प्रबंध होता था। वाल्मीकि का आश्रम गंगा नदी के निकट बहने वाली तमसा नदी के किनारे पर स्थित था।
वाल्मीकि का नाम वाल्मीकि कैसे पड़ा इसकी एक रोचक कथा है। वाल्मीकि ने पूरी तरह़ भगवान से लौ लगाई और ईश्वर में तल्लीन रहने लगे। एक बार जब वह घोर तपस्या में लीन थे, उनके समाधिस्थ शरीर पर दीमकों ने अपनी बाम्बियां बना लीं। दीमकों की बाम्बियों को संस्कृत में वाल्मीक कहा जाता है। लेकिन वाल्मीकि को इसका आभास तक नहीं हुआ और वह तपस्या में मगन रहे और उसी अवस्था में आत्मज्ञानी हो गए। आखिरकार, आकाशवाणी हुई, ‘तुमने ईश्वर के दर्शन कर लिए हैं। तुम्हें तो इसका ज्ञान तक नहीं है कि दीमकों ने तुम्हारी देह पर अपनी बाम्बियां बना ली हैं। तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई। अब से तुम्हें संसार में वाल्मीकि के नाम से जाना जाएगा।[4]
सन्दर्भसंपादित करें
↑ "वाल्मीकि". Random House Webster's Unabridged Dictionary.↑ Julia Leslie, Authority and Meaning in Indian Religions: Hinduism and the Case of Valmiki, Ashgate (2003), p. 154. ISBN 0-7546-3431-0↑http://timesofindia.indiatimes.com/india/Maharishi-Valmeki-was-never-a-dacoit-Punjab-Haryana-HC/articleshow/5960417.cms↑http://timesofindia.indiatimes.com/india/Maharishi-Valmiki-was-never-a-dacoit-Punjab-Haryana-HC/articleshow/5960417.cms
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