Sunday, 12 February 2017
ब्राह्मण समाज
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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली
सम्पादक - राघव शरण शर्मा
खंड-1
ब्राह्मण समाज की स्थिति-I
मुख्य सूची खंड - 1 खंड-2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6
ब्राह्मण समाज की स्थिति-I
भूमिका
पूर्वार्ध्द प्राचीन-प्रतिष्ठा
अगला पृष्ठ : ब्राह्मण समाज की स्थिति-II
श्रीहरि:
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् (त्रायं) ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
महाभाष्यम् 5-1-115
भूमिका
इसमें संशय नहीं कि भारत का अध:पात जैसा इस समय हो गया है वैसा 'न भूतो न भविष्यति'। इसमें भी सन्देह नहीं कि जिन भारतीयों के हृदय में कुछ भी मनुष्यता की मात्रा रह गयी है उन्हें इस दशा के स्मरणमात्र से ही वेदना होती है। यह भी निर्विवाद है कि इसका कुछ न कुछ कारण अवश्य ही है। अब केवल यही प्रश्न रह गया है कि वह कारण कौन सा है; क्योंकि निदानज्ञान बिना रोग की यथार्थ औषधि हो ही नहीं सकती। यह प्रश्न विवादग्रस्त है। इसका उत्तर 'रुचीनां वैचित्रयात्' के अनुसार लोग भिन्न-भिन्न दिया करते हैं। हमें यहाँ पर उन सभी उत्तरों की आलोचना करनी नहीं है, वरन् केवल यही कहना है कि चाहे जो भी इसके कारण हों उन सभी का अधिकांश उत्तरदायित्व हिन्दू समाज के मत्थे है। हिन्दू समाज इस अवनति की जवाबदेही से बच नहीं सकता। ऐसी दशा में इस समाज को ऑंखें खोलकर देखना चाहिए कि इसने कौन सा ऐसा महापातक किया है, या कर रहा है, जिससे एक तो उसके फलस्वरूप महादु:खदावानल में दग्ध होना पड़ रहा है और दूसरे उसके लिए अपराधी भी स्वयमेव बनना पड़ रहा है। निस्सन्देह वह साधारण पाप नहीं हो सकता जिसके फल से 33 कोटि प्रजा के कष्ट का अन्त नहीं है। थोड़ा सा विचार करने पर विदित हो जायगा कि हिन्दुओं के सामाजिक संगठन और बन्धन के बेतरह अनुचित रूप से ढीले पड़ जाने के कारण ही यह सब दुर्दशा हो रही है और इस ढीलेपन के लिए सोलहों आने उत्तरदाता केवल ब्राह्मणसमाज है। हिन्दुओं के समाज का संगठन ऐसा है कि उसमें ब्राह्मणों की प्रधानता कई रूपों में है, कम से कम तिहरे ताले के भीतर ब्राह्मणों ने हिन्दू समाज को बन्द कर रखा है। प्रथम तो पुरोहित के रूप में अपना अधिकार बनाया है, फिर गुरु के आकार में और अन्त में व्यास बनकर। यदि कोई एक से कथमपि बच भी गया तो दूसरे से नहीं और तीसरे से बच ही नहीं सकता! वस्तुत: तो यह त्रिगुण घेरा ही सर्वव्यापी है। इसके अतिरिक्त बहुत से स्थानों में राजा, मन्त्री और जमींदार के रूप में भी वही तिहरा घेरा है। पर हाँ, इसका प्रभाव सामाजिक दृष्टि से उतना नहीं है जितना पहले का। अतएव उत्तरदायित्व भी उसी प्रकार न्यूनाधिक है। जब इस प्रकार बलवती प्रधानता जमी हुई है तो फिर क्या हिन्दूसमाज के सत्यानाश या गत्तापात के लिए प्रधान ही जवाबदेह न होगा? ड्राइवर, गार्ड तथा प्वाइन्ट्समैन ही ट्रेनों के लड़ने या टूटने के उत्तरदाता नहीं होंगे तो फिर होगा कौन? जहाज़ डूब गया परन्तु कप्तान और माझी निरपराधा! तो क्या कोई यह भी कहने को तैयार है कि वह पूर्व प्रदर्शित तिरंगी प्रधानता वास्तव में झूठी है? यदि कोई ध्रष्टतावश कहे भी तो क्या यह बात किसी को मान्य होगी? चाहे कोई कुछ भी कहे, पर हिन्दू समाज का संगठन डंके की चोट कह रहा है कि हजार उपाय कर लो सही, लेकिन जब तक विविधा रूप में प्रधानता जमा कर बैठा हुआ ब्राह्मण समाज न सुधारेगा-कर्तव्यपरायण बन कर अपने अधिकार को समझता हुआ उसका दुरुपयोग न रोकेगा-तब तक हिन्दुओं और हिन्दुस्तान की वास्तविक तथा चिरस्थायिनी उन्नति का होना असम्भव सा ही समझो! आप कुछ भी समझाइये और सिखलाइये, पर उन प्रधानों के सामने वह 'नक्कारखाने में तूती की आवाज़' ही हो जाती है। कुछ इने-गिने पुरुषरत्नों को छोड़ शेष ब्राह्मणसमाज की नादिरशाही हिन्दुस्तान में चल रही है। इसमें जरा भी अत्युक्ति नहीं है। और तो और, इस प्रधानता के मद में उस समाज ने अपने ही समाज की परस्पर घोर दुर्दशा कर रखी है। फिर इतर समाज की बात ही क्या?
इतने बड़े अपराधो को करता हुआ ब्राह्मण समाज बड़ी-बड़ी डींगें मारता है और समझता है कि हमारे सामने कोई है ही नहीं। इस पुस्तिका के लिखने का एक मात्र तात्पर्य यही है कि ब्राह्मण मात्र को उनकी सामाजिक स्थिति का यथार्थ ज्ञान कराकर उनके अधिकार उन्हें सुझा दिये जायँ, और यह भी बता दिया जाय कि उन अधिकारों के सदुपयोग तथा दुरुपयोग से उनके और देश को क्या हानि-लाभ हो रहा है ओर आगे होगा। इस लेख का यह भी एक मुख्य प्रयोजन है कि जिन ब्राह्मणेतर जातियों को ब्राह्मणों की सामाजिक दशा का प्राय: पूरा पता नहीं है वह भी उसके जानकार बन उस ज्ञान से लाभ उठावें।
-लेखक
॥ श्री हरि: ॥
पूर्वार्ध्द
प्राचीन-प्रतिष्ठा
श्रुतिस्मृती उभे नेत्रो ब्राह्मणस्य प्रकीख्रत्ताते।
एकया रहित: काणो द्वाभ्यामन्धा उदाहृत:॥ (हारीत)
हिन्दू समाज में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है। यद्यपि संन्यासियों की प्रतिष्ठा सबसे बढ़ी-चढ़ी है तथापि हिन्दूशास्त्रो के अनुसार दण्ड कोषाय, वस्त्रादि धारण संन्यास का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है, न कि इतर वर्णों को भी। अत: संन्यासियों की प्रतिष्ठा भी प्रकारान्तर से ब्राह्मणों की ही प्रतिष्ठा समझी जानी चाहिए। अब विचारना यह है कि यह प्रतिष्ठा क्यों हुई, हिन्दू समाज के ऊपर ब्राह्मणों की इतनी धाक क्यों जम गयी, कि आज इस गये-गुज़रे जमाने में भी ब्राह्मणों के नाम पर कट मरनेवाले लाखों मनुष्य पाये जाते हैं, ब्राह्मण नाममात्र से ही लोगों की श्रध्दासरित क्यों उमड़ पड़ती है, लोग डर के मारे काँप क्यों उठते हैं, तथा प्रतिदिन उनके खिलाने और पिलाने और देने-लेने में आज भी लाखों रुपये क्यों खर्च किये जाते हैं, जब कि अर्थाभाव के ही कारण सभी देशहित के कार्य रुके पड़े हैं-सार्वजनिक कार्यों के लिए देश के सच्चे नेताओं को दर-दर की ख़ाक छाननी पड़ रही है! क्या कारण है कि सम्प्रति समाज पर ब्राह्मणों की इस सत्ता के लाखों विरोधियों के रहते हुए भी जनता की भक्ति अनेक अंशों में ज्यों की त्यों अटूट बनी हुई है। न केवल हिन्दू जनता ने ही, वरन् यजुर्वेद ने भी इनको सबसे ऊँची गद्दी दी है, क्योंकि विराट् भगवान् के मुख का स्थान ब्राह्मणों को दिया है। जैसा कि :
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत:।
उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भयां शूद्रो अजायत॥
''विराट् भगवान् के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुआ, अथवा मुख स्थानीय हुआ, क्षत्रिय बाहु से या बाहुस्थानीय, वैश्य जंघा से अथवा जंघा स्थानीय और शूद्र पाँव से अथवा पाँवस्थानीय'' (यजु. 32/12)। इसी प्रकार जब यजुर्वेद के ही 22वें अधयाय के 22वें मन्त्र में आशीर्वाद या प्रार्थना आई है तो सबसे प्रथम 'आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्' द्वारा ब्रह्मतेजो युक्त ब्राह्मणों के ही हिन्दू समाज में उत्पन्न होने की प्रार्थना की गयी है, बाद को क्षत्रियादि की। इसी तरह 'पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसव: समिन्धान्तां पुनर्ब्रह्मणो वसुनीथ यज्ञै:' (यजु. 12/44) इत्यादि में भी आदित्य आदि देवताओं के बाद ब्राह्मणों का ही नाम लिया गया है। भगवान् मनु भी लिखते हैंकि:
विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥
''शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं'' (मनु; 11-35)। इस सम्बन्ध में और भी अधिक विचार आगे मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू समाज में ब्राह्मणों का स्थान प्रथम से ही ऊँचा है और सभी ने इसे स्वीकार किया है।
अब यदि इस प्रतिष्ठा, इस गौरव वा उच्च स्थान का कारण ढूँढ़ने चलते हैं तो बहुत दूर जाना नहीं पड़ता। जिन वाक्यों या प्रसंगों में प्रतिष्ठा दी गयी है उन्हीं का पर्यालोचन हमें वास्तविक कारण तक निरबाधा पहुँचा देता है। यजुर्वेद के 22वें अध्याय का जो वाक्य पूर्व प्रदर्शित है उससे ही स्पष्ट है कि प्रतिग्रह, जमींदारी, कृषि, पण्डागिरी या ढोंग से पेट पालने अथवा द्रव्य कमानेवाले नाममात्र के ब्राह्मणों की कामना नहीं की गयी है; यह नहीं कहा गया है कि पेटपाल पाण्डे उत्पन्न होकर ढाई सेर अन्न का एक ही बार निस्तार करें, किन्तु ब्रह्मतेज: सम्पन्न ब्रह्मवर्चस्वी शंकर, व्यास, वसिष्ठादि सरीखे तरण तारण ब्राह्मणों के उत्पन्न होने की ही प्रार्थना है, जिनसे जगत् का निस्तार हुआ, हो रहा है और होगा। तिलक तथा गोखले जैसे कर्मवीर ब्राह्मणों को ही हम सर्वदा से चाहते और मानते चले आये हैं। किसी की प्रतिष्ठा उसका मुख देखकर कोई नहीं करता और यदि कभी करता भी है तो सहस्रों में कोई। तिस पर भी वह चिरस्थायिनी नहीं हो सकती है। यजुर्वेद ने भी यदि भगवान् का मुखरूपी स्थान ब्राह्मणों को दिया है तो केवल परान्नभोजी होने के कारण ही नहीं। जिस मुख से भोजन होता है उसी से प्रथम (भोजन से पूर्व) ही वेद शास्त्रो का पठन-पाठन तथा संसार को सदुपदेश हो लेता है। वही मस्तक ज्ञान का भण्डार और सरस्वती का जीता-जागता मन्दिर है। वह ऐसा सरस्वती भवन है जिससे सहस्रों लाभ उठाते हैं और जहाँ चौबीस घण्टे सरस्वती देवी की अविच्छिन्न आराधना होती रहती है। यदि पूर्वोक्त 12वें अध्याय वाला यजुर्वाक्य ब्राह्मणों का नाम लेता है तो साथ ही वह यह भी कहता है कि 'ब्राह्मणों यज्ञैस्त्वा समिन्धान्ताम्'-हे अग्ने, तुम्हें ब्राह्मण लोग यज्ञों द्वारा उद्दीप्त करें। वह यज्ञयाग में जन्म व्यतीत करने वाले ही कर्मपरायण ब्राह्मणों का नाम लेता है, न कि केवल पेटपरायणों का।
अतएव मनु भगवान् ने भी पूर्वलिखित वाक्य द्वारा ब्राह्मणों का स्वाभाविक-जन्मसिध्द-स्वरूप यही बतलाया है कि वह सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाले तथा भूतों की हितकामना वाले होते हैं। वह कहते हैं कि सन्मार्ग का उपदेशक तथा पूर्वोक्त विशेषतायुक्त ही ब्राह्मण कहा जा सकता है। जो ऐसा हो वही पक्का-मानवीय-ब्राह्मण कहलाता है, न कि केवल ब्राह्मणी माता और ब्राह्मण पिता से जन्म होने के कारण ही वह पूज्य हो सकता है। वह ब्राह्मण भले ही कहलाये, क्योंकि जाति जन्म से ही मानी जाती है, न कि कर्मों से। अतएव पतितों-संस्कारहीनों तक को भी मनु ने स्पष्ट ही ब्राह्मण कह दिया है और जो अभी बचे हैं उन्हें ही ब्राह्मण ही कहा है। जैसा कि :
गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश:॥36॥
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्य्यं विप्रस्य पचमे॥37॥
'गर्भ से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का, ग्यारहवें में क्षत्रिय का और बारहवें में वैश्य का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करे। परन्तु यदि व्यास, वसिष्ठादि की तरह ब्रह्मतेजोयुक्त होने की इच्छा हो तो ब्राह्मण का पाँच ही वर्ष में कर डाले' (मनु. 2/36,37)। इन श्लोकों में संस्कारशून्य बच्चे को भी ब्राह्मण ही कहा है। इसी तरह क्षत्रिय आदि भी। 'अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत' यह वेद (ब्राह्मण) वाक्य भी तो संस्काररहित बच्चों को ब्राह्मण ही कहता है। जब संस्कार ही नहीं हुआ हो तो वेदादि का पढ़ना या वैदिक कर्म करना कब हो सकता है? आगे चलकर 10वें अध्याय में 'ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्यस्त्रायो वर्णा द्विजातय:' मनु. 10/3 आदि वाक्यों द्वारा ब्राह्मणादि तीन वर्णों का नाम द्विज बतलाया है और फिर 11वें अध्याय में भी-
येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि।
तांश्चारयित्वात्रीन्कृच्छ्रान्यथाविधयुपनाययेत्॥191॥
प्रायश्चित्तां चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजा:।
ब्राह्मणा च परित्यक्तास्तेषामप्येदादिशेत्॥192॥
''जिन द्विजों का गायत्री (उपनयन) संस्कार यथोचित समय पर विधिवत् नहीं हुआ हो उनसे तीन प्रजापत्य व्रत कराके उनका विधिवत् उपनयन करवावे। जो द्विज वेद के अध्ययन से वंचित तथा पापकर्मा हों, पर उसका प्रायश्चित्त करना चाहें, उनसे भी यही प्रजापत्य व्रत तीन बार करावे'' (191-92)। यदि जन्म से न होकर कर्म से जाति मानी जाती तो फिर संस्कारहीन, वेद विमुख तथा पापी लोग पूर्व वाक्यों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि (द्विज) क्यों कहे जाते? गौतम (न्याय) सूत्रो के भाष्य में भगवान् वात्स्यायन लिखते हैं :
अहो खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसम्पन्न इत्युक्ते कश्चिदाह यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसम्पत् सम्भवति व्रात्येऽपि सम्भवेत् व्रात्योपि ब्राह्मण: सोऽप्यस्तु विद्याचरणसम्पन्न:।
''देखो यह ब्राह्मण कैसा विद्या तथा आचरण से युक्त है-ऐसा सुनकर कोई छलवादी बोला कि यदि ब्राह्मण होने से ही उसमें विद्या और आचरण आ जाते हैं तो फिर संस्कारविहीन-पतित (व्रात्य)-में भी विद्या और आचरण क्यों नहीं होते? क्योंकि वह भी तो ब्राह्मण ही है?'' इत्यादि (अ. 1, सू. 54)। अब क्या इतने पर भी संशय रह सकता है? अस्तु, फिर भी उसमें पूजनीयता या प्रतिष्ठा की योग्यता कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि जातिमात्र से कोई भी पूजनीय नहीं हो सकता। अतएव विद्या तथा तप से विहीन होने पर भी, उसे ब्राह्मण कहते हुए भी, महाभाष्य में भगवान् पतंजलि ने अपूजनीय तथा अमान्य ही ठहराया है। जैसा कि :
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
''विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता'' (पा. 51-115)। इसका आशय कैयट ने इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है :
योनिरिति ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जन्म। ब्राह्मणकारकमिति ब्राह्मणव्यपदेशस्य निमित्तामेतादित्यर्थ:। तप:श्रुताभ्यामिति नासौ परिपूर्णो ब्राह्मण:, जातिलक्षणैकदेशश्रयस्तु तत्रा ब्राह्मणशब्दप्रयोग:।
इसका तात्पर्य प्रथम ही कह चुके हैं। अतएव महाभाष्य के प्रारम्भ (पस्पशाद्दिक) में ही लिखा गया है कि :
ब्राह्मणेनाकारणो धार्म: षडंगो वेदोऽधययो ज्ञेयश्च।
''यह न विचार कर कि वेदवेदांग के पढ़ने से हमें क्या मिलेगा किन्तु अपना धर्म या कर्तव्य समझकर-यह समझकर कि ब्राह्मण होने के नाते ही हम उनके पढ़ने को बाध्य हैं-ब्राह्मण लोग छहों अंगों के सहित वेदों को पढ़ें और उनका अर्थ जानें''। सम्पूर्ण संसार का गुरु बनना कोई मामूली बात नहीं है कि जो ही चाहे वही बन जाय। महान् या बड़ा बनने के लिए कुछ परिश्रम करना पड़ता है। काम से ही नाम व प्रतिष्ठा होती है, न कि केवल बातों से। बड़ी-बड़ी बातें करने से ही यदि काम चल जाय तो किसी को भी मग़ज़ मारने की आवश्यकता ही क्या थी? इसीलिए भागवतकार ने पंचम स्कन्द में कह दिया है कि :
महत्सेवां द्वारमाहु ख्रवमुक्तेस्तमोद्वारं योषितां संगिसंगम्।
महान्तस्ते समचित्ता: प्रशान्ता विमन्यव: सुहृद: साधावो ये॥
''महान् पुरुषों की सेवा से कल्याण की प्राप्ति होती है और स्त्री-सेवियों का संग अज्ञान या नरक का द्वार है। महान् वही कहलाते हैं जो शत्रु-मित्र भाव से रहित, विषयवासनाविमुक्त, क्रोध न करनेवाले, दयालु एवं कोमल हृदय और परोपकारपरायण हुआ करते हैं।''
जिस मनु भगवान् ने ब्राह्मणों को उच्च आसन दिया है उन्होंने यह भी कह दिया है कि-
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
यश्च विप्रोऽनधयानस्त्रायस्ते नाम बिभ्रति॥157॥
यथा षण्ढोऽफल:सत्रीषु यथा गौर्गविचाफला।
यथाचाज्ञेऽफलंदानं तथा विप्रो नृचोऽफल:॥158॥
''जिस तरह काठ का हाथी और चमड़े के हरिण बेकार हैं-सिर्फ देखने के ही काम के हैं-उसी तरह जो ब्राह्मण वेद-शास्त्र का अधययन नहीं करता वह भी केवल नाममात्र का ही ब्राह्मण है। जैसे स्त्रियों के लिए नपुंसक, गाय के लिए गाय, और मूर्ख को दिया हुआ दान व्यर्थ है, वैसे ही वेदों का न पढ़ने और न जानने वाला ब्राह्मण व्यर्थ है'' (अ. 2/157-158)। फिर कहते हैं कि :
संमानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्येव चाकांक्षेदवामानस्य सर्वदा॥162॥
तपोविशेषैख्रवविधौर्व्रतैश्च विधिचोदितै:।
वेद: कृत्स्नोऽधिगन्तव्य: सरहस्यो द्विजन्मना॥165॥
वेदमेव सदाभ्यसयेत्तापस्तप्स्यन् द्विजोत्ताम:।
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य तप: परमिहोच्यते॥166॥
''जैसे विष से डरा करते हैं उसी प्रकार ब्राह्मण सदा ही आदर सत्कार से डरा करे और जिस तरह अमृत की इच्छा की जाती है वैसे ही तिरस्कार को नित्य चाहे। अनेक तरह के तप, नियम ओर व्रतादि करके ब्राह्मण उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों को यथावत् पढ़े और जाने। जब कभी ब्राह्मण को तप करने की आवश्यकता हो तो केवल वेदों का ही अभ्यास (पाठ, विचारादि) किया करे; क्योंकि इस दुनिया में ब्राह्मण के लिए वेदाभ्यास ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है' (अ. 2/162/64)। दान के सम्बन्ध में तो और भी कड़ाई वाला नियम मनुजी ने कहा है। जैसा कि :
ब्राह्मणस्त्वनधायानस्तृणाग्निरिवशाम्यति।
तस्मैहव्यंनदातव्यं नहि भस्मनि हूयते॥
''पठन-पाठन से विमुख ब्राह्मण पुआल की आग की तरह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी से उसे देवपितृकार्य में कुछ नहीं देना चाहिए, क्योंकि राख या पुआल की अग्नि में हवन नहीं किया जाता।''(अ. 4/168)।
अतपास्त्वनधायान: प्रतिग्रहरुचिख्रद्वज:।190॥
अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥
तस्मादविद्वान् बिभियाद्यस्मात्तास्मात्प्रतिग्रहात्।191॥
स्वल्पकेनाप्यऽविद्वान् हि पं गौरिव सीदति॥
न वार्यपि प्रयच्छेत्ता वैडालव्रतिके द्विजे।
न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धार्मवित्॥191॥
''जो ब्राह्मण विद्या और तपस्या से रहित होकर भी प्रतिग्रह की इच्छा करता है वह दाता और दान के साथ ही वैसे ही नरक में डूब मरता है जैसे पत्थर की नाव अपने सवारों के साथ डूब जाती है। इसलिए मूर्ख ब्राह्मण सभी प्रकार के दान प्रतिग्रह से डरता रहे, क्योंकि वह थोड़ा भी लेने से कीचड़ में फँसी हुई गाय की तरह कष्ट पाता है। बकधयानी, बिलारभक्त और वेद के न जानने वाले ब्राह्मणों को धर्मज्ञ पुरुष पानी भी न दे'' (अ. 4/190-92)।
त्रिष्वप्येतेषु दत्तां हि विधिनाप्यख्रजतं धानम्।193॥
दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रदातुरेव च॥
यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधास्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ॥194॥
'पूर्वोक्त तीनों प्रकार के ब्राह्मणों को धर्म से कमाया भी धान यदि दिया जाय तो परलोक में देने तथा लेने वाले दोनों को नरक ले जाता है। जिस तरह पत्थर की नाव पर चढ़कर पार जानेवाले पानी में डूब मरते हैं, उसी प्रकार मूर्ख दाता और मूर्ख लेने वाला दोनों नरक में डूब जाया करते हैं।' (अ. 4/193-94)।
इस दान के विचार प्रसंग में याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि :
देशे काले उपायेन द्रव्यं श्रध्दासमन्वितम्।
पात्रो प्रदीयते यत्तात्सकलं धार्मलक्षणम्॥
''उत्तम देश और उत्तम काल में शास्त्राक्त विधि के अनुसार श्रध्दापूर्वक जो कुछ पदार्थ दान के योग्य (पात्र) पुरुष को दिया जाता है वही धर्म कहलाता है'' (आचा. 6)। जब यह शंका हुई कि अच्छा, तो दान के योग्य पात्र किसे कहते हैं, तो स्वयमेव आगे चलकर दान प्रकरण में कहते हैं कि-
तपस्तप्त्वाऽसृजद् ब्रह्मा ब्राह्मणान्वेदगुप्तये।
तृप्त्यर्थं पितृदेवानां धार्मसंरक्षणाय च॥
सर्वस्य प्रभवो विप्रा: श्रुताधययनशीलिन:।
तेभ्य: क्रियापरा: श्रेष्ठास्तेभ्योऽप्यधयात्मवित्तामा:॥
न विद्यया केवलया तपसा वापि पात्राता।
यत्रा वृत्तामिमे चोभे तध्दि पात्रां प्रकीख्रत्तातम्॥
''वेदों की रक्षा, पितरों तथा देवताओं की तृप्ति और धार्म के प्रचार के ही लिए ब्रह्मा ने तपस्या करके ब्राह्मणों को उत्पन्न किया। वेदशास्त्रो के पठन-पाठन और विचार में समय बिताने वाले ब्राह्मण सभी लोगों से श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों में भी शास्त्रोक्त धर्म के करने वाले अन्यों से श्रेष्ठ हैं और उनसे भी श्रेष्ठ अध्यात्मत्व के ज्ञाता हैं। क्योंकि केवल शास्त्र पढ़ लेने से ही कोई दानपात्र नहीं हो सकता, अथवा केवल तप करने मात्रा से भी नहीं, किन्तु जिस पुरुष में विद्या, तप और शास्त्रोक्त कर्मों का अनुष्ठान एवं सदाचार रहता है वही दानपात्र है।'' (198-200)।
गोभूतिलहिरण्यादि पात्रो दातव्यमख्रचतम्।
नापात्रो विदुषा किंचिदात्मन: श्रेय इच्छता॥
विद्यातपोभ्यां हीनेन न तु ग्राह्य: प्रतिग्रह:।
गृह्णन् प्रादातारमधो नयत्यात्मानमेव च॥
''गौ, भूमि, तिल, सुवर्णादि पदार्थ सत्कारपूर्वक दानपात्र को धर्मज्ञ पुरुष अपने कल्याण की इच्छा से दे, कुपात्र को कभी न दे। जिसमें विद्या और तप न हो वह प्रतिग्रह स्वीकार न करे। क्योंकि ऐसा करने से अपने साथ दाता को भी नरक मे ले जाता है।'' (201-202)। भगवान् हारीत ने भी ब्राह्मणों का यथार्थ स्वरूप यों कहा है :
श्रुतिस्मृती उभे नेत्रो ब्राह्मणस्य प्रकीख्रत्ताते।
एकया रहित: काणो द्वाभ्यामन्धा उदाहृत:॥
''वेद और स्मृतियाँ ये दोनों ब्राह्मण की ऑंखें हैं। यदि केवल वेद या स्मृति मात्र का ही ज्ञाता हो तो उसे काना समझना चाहिए। परन्तु दोनों को ही न जानता हो तो अन्धा कहलाता है।'' मनुजी ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के कारणों के साथ-साथ उनके कर्तव्यों का वर्णन इस तरह किया है :
उत्तामांगोद्भवाज्ज्यैष्ठयाद् ब्रह्मणश्चैव धारणात्।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धार्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥
तं हि स्वयम्भू: स्वादास्यात्तापस्तप्त्वादितोऽसृजत्।
हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥
''परमात्मा के उत्तम अंग (सिर) से उत्पन्न होने, वर्णों में ज्येष्ठ होने, और वेद शास्त्रो के ज्ञाता होने के कारण इस सम्पूर्ण सृष्टि का धर्म-विचार से ब्राह्मण ही स्वामी है। क्योंकि ब्रह्मा ने तपस्या करके देवता तथा पितरों का अंश उनके पास पहुँचाने, एवं सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए उसे उत्पन्न किया है।'' (अ. 1-93/94) यहाँ 'सर्वस्यास्य च गुप्तये' पद बड़े ही महत्व के हैं। इनका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण केवल स्वार्थपरायण न हो, किन्तु सभी लोगों के हित-अहित, सुख-दु:ख, उन्नति-अवनति तथा उनके कारणों का विचार करता रहे और लोगों के सुख-दु:खों को ही अपना सुख-दु:ख समझे। अतएव उनके निवारणार्थ कटिबध्द रहे। सारांश, उसे देश का सच्चा नेता तथा हितैषी होना चाहिए। यदि राजनीतिक अवनति देखे तो उसके ही लिए यत्न करे। यदि सामाजिक अवनति हो तो उन सामाजिक दोषों के निर्मूल करने का यत्न करे जिनसे समाज की दुर्दशा हो रही हो और यदि धार्मिक ह्रास हो तो धर्म का यथावत प्रचार करके गीता के सिध्दान्तनुसार प्रजा की रक्षा करे। गीतावाला सिध्दान्त ऐसा है :
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विध्दि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
''अन्न से प्राणियों की उत्पत्ति होती है, वृष्टि से अन्न की, यज्ञ से वृष्टि की, और यज्ञ की अंग-उपांग रूप क्रियाओं द्वारा, क्रियाओं का प्रतिपादिक वेद है, और वेद की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। इसीलिए यद्यपि सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता है, तथापि यज्ञ यज्ञादि क्रियाकलाप में उसकी विशेष रूप से स्थिति है।'' (गी. 3/14-15)। जिन दिनों ब्राह्मण हिन्दू समाज के सच्चे नेता, तथा उपदेशक थे उन दिनों भारत सभी तरह से धान-धाान्य, मान-प्रतिष्ठादि से सम्पन्न था और जगत् का गुरु बनने का दावा गर्व के साथ करता था। उन्हीं दिनों का न कि आजकल की परम पतित अवस्था का स्मरण करके, भगवान् मनु को यह कहने का साहस हुआ था कि :
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रां शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:॥
''ब्रर्ह्मावत्त, ब्रर्हावर्ष आदि देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से ही पृथ्वी के सभी मनुष्य अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें'' (अ. 2/20)। इससे बढ़कर और प्रतिष्ठा क्या हो सकती है कि समूचे संसार के मस्तक पर रख दिया? सारे संसार का शिरोमणि और गुरु बना दिया; सो भी अभिमान और अकड़ के साथ! यदि स्वप्न में भी मनु महाराज की यह धारणा होती कि सामान्यत: समूचे भारत तथा विशेषरूप से ब्राह्मणों की ऐसी पतितावस्था हो जायेगी जैसी आजकल हो रही है तो क्या यह पूर्वोक्त श्लोक उनके मुख से कभी भी निकलता? परन्तु शायद वह यह असम्भव-सा विचार मन में ला ही नहीं सके कि जो सातवें आसमान पर बैठा है कभी वह रसातल के भी
नीचे चला जायगा! सचमुच उस समय-उनके काल में जब कि देशोन्नति के भगवान् भास्कर द्वादश कला युक्त होकर भारत गगन के मध्य में देदीप्यमान थे-ऐसा विचार असम्भव-सा ही था। इसमें उनका अपराध ही क्या? अस्तु, ब्राह्मणों के चरित्र पर प्रथम बहुत अधिक घ्यान दिया जाता था। इसीलिए बिलार दण्डवत् तथा बकभक्ति करनेवालों को पानी तक न देने का आदेश मनु ने किया है। इसीलिए याज्ञवल्क्य ने दानपात्र में विद्या, और तप से ऊँचा दर्जा चरित्र को दिया है और इसी से मनु यह भी आदेश कर गये हैं कि :
सावित्रीमात्रासारोऽपि वरं विप्र: सुयंत्रित:।
नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी॥
''केवल गायत्री भी जानता हुआ शास्त्रानुकूल आचरण एवं चरित्रयुक्त ब्राह्मण श्रेष्ठ है। पर तीन वेदों का ज्ञाता होकर भी भक्ष्याभक्ष्य तथा कर्तव्याकर्तव्य के विचार से रहित दुष्ट चरित्र वाला माननीय नहीं हो सकता।'' (अ. 2/110)। जिस समय मनु के मुख से यह वाक्य निकला होगा कि-
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकस:।
काव्यानि चैव पितर: किंभूतमधिकं तत:॥
''जिस ब्राह्मण के मुख द्वारा सर्वदा ही देवता लोग हव्य, तथा पितर लोग कव्य खाया करते हैं उससे श्रेष्ठ कौन प्राणी हो सकता है?'' (अ. 1/95)। और जिस समय उन्होंने यह कह डाला कि :
भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठा: प्राणिनां बुध्दिजीविन:।
बुध्दिमत्सु नरा: श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणा: स्मृता:॥96॥
ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुंध्दय:।
कृतबुध्दिषु कत्तर्र: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥97॥
''स्थावर जंगम पदार्थों प्राणधारी श्रेष्ठ हैं, प्राणधारियों में भी बुध्दि से काम लेने वाले, बुध्दि वालों में भी मनुष्य, मनुष्यों में भी ब्राह्मण, ब्राह्मणों में भी विद्वान्, विद्वानों में भी उत्तम कार्यों मेंर कर्तव्यबुध्दि वाले, कर्तव्यबुध्दिवालों में भी उत्तम कार्यों के कर डालने वाले, और उत्तम कार्यकर्ताओं में भी ब्रह्मवेत्ता अर्थात् अपने ही आत्मा को सभी में ओत-प्रोत देखने वाले।'' (अ. 1, 96-97)।
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूख्रतर्धार्मस्य शाश्वती।
स हि धार्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते।
ईश्वर: सर्वभूतानां धार्मकोशस्य गुप्तये॥
''ब्राह्मण जन्म मात्र से ही नित्य धर्म की मूर्खता है, क्योंकि वह धर्म के लिए ही उत्पन्न हुआ है और उसी के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। इस पृथ्वी पर उत्पन्न होने के साथ ही ब्राह्मण सब प्राणियों का मालिक और धर्म का रक्षक होता है'' (अ. 1/98, 99)। इत्यादि। उस समय उनके चित्त में ब्राह्मणों के प्रति कितना गौरव रहा होगा! सचमुच वे ब्राह्मणों के जन्मसिध्द पूर्व प्रदर्शित इन गुणों पर मुग्ध थे। पर, यदि उनका यह ध्यान होता कि कभी ऐसा भी समय आएगा जब प्राय: ब्राह्मणमात्र धर्म के रक्षक न होकर उसी के भक्षक हो जायेंगे, उनके लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' वाली कहावत चरितार्थ होगी, उनके लिए सिर्फ बकव्रत रह जायगा, तो क्या वे कभी भी यह हास्यजनक बातें लिखकर लज्जित होने का साहस करते? वे तब क्योंकर लिखते कि जन्म से ही ब्राह्मण धर्म का रक्षक है, धर्म की मूर्खता है और धर्म के ही लिए संसार में आया है?
भगवान् मनु को ब्राह्मणों के बल का पूर्ण अभिमान था। वह अच्छी तरह जानते थे कि उनके आत्मबल, विद्याबल एवं मनोबल की एकबारगी इतिश्री काल पाकर भी असम्भव है। उनकी धर्मबलि तथा स्वार्थत्याग, ये दोनों अन्त तक न्यूनाधिक रूप में बने ही रहेंगे। परोपकारपरायणता उनसे सोलहों आना अलग कभी न होगी। इसी से पूर्वोक्त बातें कह गये हैं। यदि ब्राह्मणों के निजी बल का पूरा ध्यान उन्हें न रहता, तो यह कभी न कहते कि :
न ब्राह्मणोवेदयेत किंचिद्राजनि धार्मवित्।
स्ववीर्येणैव तान्शिष्यान्मानवानपकारिण:॥
स्ववीर्याद्राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तारम्।
तस्मानत्स्वेनैव वीर्येण निगृह्णीयादरीन् द्विज:॥
''यदि ब्राह्मणों का कोई कुछ अपकार करे तो वह उसकी फरियाद राजा से न कर अपने ही बल से उस अपकारी को दण्ड दे। क्योंकि राजा के बल की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य अधिक है। इसीलिए ब्राह्मणों को उचित है कि शत्रुओं का निग्रह अपने ही बल से किया करें।'' (अ. 11/31,32)
श्रुतीरथर्वांगिरसी: कुर्यादित्यविचारयन्।
वाक्शस्त्रां वै ब्राह्मणस्य तेन हन्यादरीन् द्विज:॥33॥
क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदमात्मन:।
धानेन वैश्यशूद्रौ तु जपहोमैख्रद्वजोत्तामा:॥34॥
''अथर्ववेद की क्रियाओं के अनुसार अपना कार्य करे, अथवा वचनरूप (शाप) शस्त्र से ही शत्रुओं का नाश करे; क्योंकि ब्राह्मण का शस्त्रावचन ही है। क्षत्रिय अपनी विपत्ति का अन्त निजी बाहुबल से करे, वैश्य तथा शूद्र धन से एवं ब्राह्मण जप और होम द्वारा।'' (अ. 11/33, 34)। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कह दिया है कि :
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
''मन का निग्रह, इन्द्रियों का काबू में रखना, तपस्या, बाहर-भीतर की पवित्रता, क्षमा, नम्रता, शास्त्रीयज्ञान, आस्तिकता और शास्त्रोक्त बातों का अनुभव ये नौ गुण ब्राह्मणों में स्वभाव से ही हुआ करते हैं।'' (अ. 18/42)। इनमें से एक-एक बातों का भी आदमियों में होना जहाँ दुर्लभ समझा जाता है, सो भी समाज या किसी जाति-भर में नहीं किन्तु व्यक्तिमात्र में, वहाँ किसी समाज-भर में इन सबका होना कुछ कम गौरव की बात नहीं है। यदि सब न भी पाये जाये तथापि समाज के अधिकांश लोगों में यदि ये अधिकांश गुण उस समय न पाये जाते होते तो भगवान् श्रीकृष्ण या वेदव्यास को यह कहने की कभी भी हिम्मत न होती कि ये गुण ब्राह्मणों में जन्म या स्वभाव से हुआ करते हैं। यहाँ तक बढ़कर कह देना यह बतला रहा है कि अवश्यमेव ब्राह्मण समाज पूर्वोक्त अधिकांश गुणों के रंगों में रँगा हुआ था। यदि ऐसी बात न होती तो अत्यन्त अल्पवयस्क ब्राह्मण बालक शृंगी के शाप का प्रभाव चक्रवर्ती परीक्षित के ऊपर अक्षरश: न पड़ता और भृगु के लात मारने पर विष्णु भगवान् को यह कहने को बाध्य होना न पड़ता कि मेरी छाती स्वभाव से ही कठिन है और ब्राह्मणों के चरण कोमल हुआ करते हैं, कहीं आपको चोट न आ गयी हो! यह दूसरी बात है या कालचक्र की कुटिलगति है कि आजकल उन्हीं ब्राह्मणों के वंशधर केवल उनके नाम बेचकर पेट पाल रहे हैं!
ब्राह्मणों के इन्हीं पूर्वोक्त गुणों पर मुग्ध होकर सम्पूर्ण प्रजा उनके हाथ सौंपी गयी थी, छोटे से बड़े तक के ऊपर उनका आतंक छाया था और सभी उनकी आज्ञा में थे। जैसा कि मनु ने कहा है :
प्रतापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वा: परिददे प्रजा:॥
''भगवान् ने वैश्य को उत्पन्न करके पशु-पालन का कार्य उसे सुपुर्द किया ओर ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के हाथ में सम्पूर्ण प्रजाओं को दे दिया।'' (अ. 9/327)। और भी कहा है कि-
सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किचज्जगतीयगतम्।
श्रेष्ठयेनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति॥10॥
''इस पृथ्वी में जो कुछ है, सब ब्राह्मणों की ही सम्पत्ति है, क्योंकि वह भगवान् के मुख से उत्पन्न होने के कारण श्रेष्ठ होने से सभी कुछ पाने योग्य है।'' (अ. 1/100) जब ब्राह्मणों में इतनी योग्यता थी तो शूद्र आप ही आप उनकी सेवा में तत्पर रहते थे। क्योंकि आज भी देखते हैं कि यद्यपि महात्मा गाँधी ब्राह्मण नहीं हैं, फिर भी लोग किसी ब्राह्मण नेता की अपेक्षा उनकी प्रतिष्ठा या सेवा कम करते नहीं दीखते। सभी उनके नाम पर बलि होने के लिए तत्पर हैं। फिर यदि ब्राह्मणों के पूर्वोक्त अपूर्व गुणों के कारण शूद्र समाज उनकी सेवा में अपना समय बिताता था, या उसी के लिए स्वेच्छया बाघ्य था तो इसमें आश्चर्य ही क्या? हाँ, आजकल के लोगों की अवश्य ग़लती है कि योग्यता तो इनमें कुछ भी नहीं है, फिर भी संसार से सेवा ही करवाने की धुन में मस्त रहते हैं। इसके लिए यदि ये लोग अपराधी ठहराये जाये तो कुछ अनुचित नहीं। पर इतने से ही प्राचीनकाल के धर्मशास्त्रकर्ताओं को यह दोष नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने शूद्रों या इतर वर्णों के साथ अन्याय वा कड़ाई अधिक की। हाँ यदि ऑंख मींचकर सभी बुरे-भलों की बन्दगी बजाने का आदेश शूद्र समाज को दिया गया होता तो अवश्यमेव वे लोग भी दोष के भागी समझे जाते। लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं। अतएव मनु ने लिखा है कि :
विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।
शुश्रुषैव तु शूद्रस्य धार्मो नैश्रेयस: पर:॥334॥
''वेद-वेदांगों के ज्ञाता ब्राह्मणों तथा यशस्वी गृहस्थों की सेवा ही शूद्रों के लिए परम कल्याणकारक धर्म है।'' (अ. 9/334)। फिर जिन लोगों का यश:सौरभ संसार में व्याप्त नहीं और जो वेदशास्त्रो के जानकार नहीं, चाहे किसी वर्ण के क्यों न हों, वे क्योंकर शूद्रों या अपने से हीन वर्णों द्वारा की जाने वाली सेवा का दावा कर सकते हैं? यह उन लोगों की सर्वथा अनधिकारचर्चा है। जब ब्राह्मण लोग, वेदाभ्यास के ज्ञानोपदेश द्वारा, क्षत्रिय बाहरी अथवा घरेलू शत्रुओं से रक्षा करके, और वैश्य सभी को भोजनार्थ अन्न देकर हिन्दू समाज की सेवा कर रहे थे, जैसा कि :
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।
वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु॥
''अन्य कामों की अपेक्षा ब्राह्मणों का प्रधान काम वेदाभ्यास, क्षत्रिय का रक्षा करना और वैश्यों का वाणिज्यादि द्वारा अन्नोत्पादन है।''(अ. 10/80) से विदित है, तो फिर शूद्र क्यों नहीं सेवा करते? अस्तु।
यद्यपि ब्राह्मणों का प्रधान काम वेदाभ्यास था, तो भी देखना चाहिए कि आख़िर उनके अप्रधान काम कौन से थे और जीविका के लिए सर्वथा पराधीन ही थे या स्वाधीन। इस सम्बन्ध में मनु-गौतमादि की आज्ञा ऐसी है कि ब्राह्मण सर्वथा परमुखापेक्षी न होकर अपनी प्राणरक्षा के लिए शिल, उछ, कृषि, वाणिज्यादि द्वारा और उससे भी न हो सके तो पुरोहिती प्रतिग्रहादि द्वारा अन्न का उपार्जन कर ले। अतएव मनुस्मृति के चौथे अध्याय, जो अनापत्ति (कोई आपत्ति या दबाव न रहते) समय के धार्मों का प्रकरण है, के आरम्भ में पुरोहिती-प्रतिग्रहादि का वर्णन न कर केवल शिल, उछ, कृषि, वाणिज्यादि का ही विधान ब्राह्मणों के लिए है। जैसा कि :
ऋतामृताभ्यां जीवेत्ता सृतेन प्रभृतेन वा।
सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्तया कदाचन॥
ऋतमु×छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्।
मृतं तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्॥
सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते।
सेवा श्ववृत्ताराख्याता तस्मात्ता परिवर्जयेत्॥
''ऋत, अमृत, मृत, प्रभूत और सत्यानृत नामक जीवनोपायों द्वारा जीविका अर्जन करे, परन्तु श्वानवृत्ति (नौकरी) द्वारा कदापि नहीं। ऋत, उछ एवं शिल का नाम है, अमृत अयाचित का, याचित भिक्षा का मृत, कृषिका प्रभृत, सत्यानृत वाणिज्यका, और श्ववृत्ति नाम नौकरी का है। इसी से उसको त्याग देना चाहिए।'' (अ. 4/4-6)। बहुतों की यह धारणा है कि कृषि, वाणिज्य केवल वैश्य की ही जीविकाएँ हैं। पर यह धारणा भ्रममूलक है। कृषि, वाणिज्य प्रत्येक दो प्रकार के होते हैं। एक 'स्वयंकृत'-अपने हाथों किये गए और दूसरे 'अस्वयं कृत'-नौकर द्वारा कराये गये। उनमें दूसरे प्रकार के अर्थात् 'अस्वयं कृत' ब्राह्मणों के लिए है और 'स्वयंकृत' वैश्यों के लिए। यह बात इन्हीं श्लोकों की टीका में कुल्लुक भट्ट को भी स्वीकृत है। अतएव गौतमस्मृति के दसवें अध्याय में साफ-साफ लिखा गया है कि ब्राह्मणों की जीविकाएँ-'कृषि, वाणिज्ये स्वयं चाकृते कुसीदं च' 'अस्वयंकृत कृषि, वाणिज्य और सूद पर रुपये देना ये तीन हैं।'' इसीलिए आश्वलायन गृह्य सूत्रा (2/10/3) में ब्राह्मणों के नित्य नैमित्तिक आदि बहुत से कर्मों के कहने के बाद जब उनमें अपेक्षित अन्न-द्रव्य की प्राप्ति कैसे होगी, यह आशंका हुई तब सूत्रकार ने कहा है कि :
क्षेत्रां प्रकर्षयेदुत्तारै: प्रोष्ठपदै: फाल्गुनीभी रोहिण्या वा।
''उत्तर भाद्रपद, पूर्वा फाल्गुनी और रोहिणी नक्षत्र में हल चलवाना प्रारम्भ करे''। इसी पर गार्ग्य नारायण लिखते हैं कि :
नित्यकर्मणां द्रव्यसाधयात्वाद्द्रव्यार्थं क्षेत्रां प्रकर्षयेत्। णिच्प्रयोग: स्वयंकृषिनिवृत्तयर्थ:। तथाचानापदि गौतम: 'कृषिवाणिज्ये चास्वयं कृते' इति। मनुरपि 'ऋतामृताभ्यां जीवेत्ता मृतेन प्रमृतेन वा' 'प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्' इति। अक्षसूक्ते चेयमेव वृतिरुक्ता 'अक्षैर्मादीव्य कृषिमित्कृषस्व' इति। प्रतिग्रहादयश्चापत्कल्पा:॥
''नित्यकर्म द्रव्य से होते हैं, इसलिए अन्न-द्रव्यादि की प्राप्ति के लिए खेत जुतवावे। 'खेत जोते' न कहकर 'जुतवावे' यह जो प्रेरणा की गयी है उसका तात्पर्य अनापत्तिकाल में अपने हाथों से खेती न करने में है। इसीलिए अनापत्तिकाल के लिए गौतमस्मृति में कहा है कि नौकर से खेती और व्यापार करवावे। मनुजीनेभीऋत,अमृत, मृत, प्रभृत से जीविका करना लिखकर प्रभृत का अर्थ खेती लिखा है।ऋग्वेदकेअक्षसूक्त में भी यही बात लिखी है कि जुआ मत खेलो, खेती ही करो। ब्राह्मण की जीविकाके लिए जो कहीं-कहीं प्रतिग्रह, पुरोहिती आदि लिखी है वह आपत्तिकाल के लिए है।''
पारस्करगृह्यसूत्रा (कां. 2, कण्डिका 13) के 'पुण्याहे लांगलयोजनं ज्येष्ठया वा इन्द्रदैवत्यम्' 'शुनं सुफाला इतिकृषेत्' 'फालं वा आलभेत्'। इत्यादि सूत्रो द्वारा कण्डिका-भर में कृषि करने का ही विधान है। इसी प्रकार कौशिक सूत्र (3-3) में इसी बात का निरूपण पाया जाता है। यही सिध्दान्त मीमांसा व्याख्याकार कुमारिल स्वामी का भी इसी सूत्र की कारिकाओं में स्पष्टतया प्रतिपादित है। महामहोपाध्याय श्री पार्थसारथि मिश्र ने भी मीमांसा की टीका 'तन्त्ररत्न' में यही सिध्दान्त प्रतिपादित किया है, जैसा कि 'विस्तर के 29-30 पृष्ठों से स्पष्ट है।
ऋग्वेद में किसी भी प्रतिग्रह पुरोहिती आदि जीविकाओं का वर्णन न होने पर भी कृषि के करने की आज्ञा स्पष्ट दी गयी है। जैसा कि अक्षसूक्त की दो ऋचाओं से स्पष्ट है, जिनमें प्रथम ऋचा इस प्रकार है-
अक्षैर्मा दीव्य कृषिमित्कृषस्व वित्तो रमस्व बहु मन्यमान:।
तत्रा गाव: कितव तत्रा जाया तन्मे विचष्टे सवितायमर्य:॥
''हे जुआ खेलने वाले, जुआ मत खेलो, किन्तु खेती ही करो और उसके द्वारा उपार्जित धन का भोग करो। देखो, उस खेती के लिए गायें और स्त्री-बच्चे भी रखने ही पड़ते हैं। हमारी इस बात में विश्वास करो, यही धर्म का रहस्य है और सबके प्रेरक तथा सब धर्मग्रन्थों के रचयिता भगवान् ने ही हमसे यह कहा है (7-8-13)।'' इससे पूर्व के मन्त्र में यह कहकर जुए का निषेध किया गया है कि वह इसी कृषि (खेती) का नाश करने वाला है, जैसा कि :
अक्षास इंदकुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णव:।
कुमार देष्णा जयत: पुनर्हणो मधया संपृक्ता: कितवस्य वर्हणा॥
''जुए के पाशे अंकुश की तरह ही मनुष्यों के दिल में चुभने वाले, कृषि करने वाले पुरुष की खेती के नाश करने वाले, हारने पर अपने को तथा सर्वस्व हारने पर कुटुम्ब को भी दु:ख देने वाले, कदाचित् जीत होने पर पुत्रोत्पत्ति के समान सुखद, परन्तु मधुमिश्रित विष की तरह, खिलाड़ी की उसमें बार-बार प्रवृत्ति कराके उसके सत्यानाश करने वाले हैं।'' (8-7-7)। इन दोनों मन्त्रों में कृषि की ही प्रशंसा है। अतएव इन मन्त्रों का देवता कृषि ही है, जैसा कि अनुक्रमणिका लिखते हुए सायणाचार्य ने कह दिया है कि-'सप्तमीत्रायोदशी च कृषिं स्तौति अतस्तयो: सा देवता'-''सातवीं तथा तेरहवीं ऋचा कृषि की स्तुति करती हैं, इसलिए इन दोनों का देवता कृषि ही है'' (8-7-1)।
अथर्ववेद (का. 3, अनु. 4) के द्वितीय सूक्त में केवल कृषि करने और हल जोतने आदि की ही बात कही गयी है। सायणाचार्य भाष्य में लिखते हैं कि :
''सीरायुजन्ति' इति द्वितीयसूक्तेन कृषिनिष्पत्तिकर्मणि क्षेत्रां गत्वा युगलांगले बधनाति। अनेनैव सूक्तेन दक्षिण मनड्वाहं युगे युनक्ति। तत: कत्तर्र्ता अनेन सूक्तेन प्राचीनं कृषन् सूक्तसमाप्त्यनन्तरं हालिकाय हलं प्रयच्छेत्'-''सीरा युजन्ति' इत्यादि द्वितीय सूक्त पढ़कर खेती के समय खेत में जाए और हल को जोड़े। फिर इसी को पढ़कर पहले दाहिना बैल जोड़े, पीछे बायाँ और इसी को पढ़ता हुआ खेत का स्वामी पूर्वमुख जोते तथा सूक्त की समाप्ति होने पर जोतने के लिए हल हलवाले को दे दे।'' इसी प्रकार शुक्ल यजुर्वेद के 12वें अधयाय के 67 आदि मन्त्रों द्वारा भी कृषिकर्म का ही विधान किया गया और जोतने आदि की विधि बतायी गयीहै।
मनु (अ. 11-7) तथा याज्ञवल्क्य (आ. अधया. 124) से स्पष्ट है कि कम से कम तीन वर्षों तक अपने कुटुम्ब एवं नौकर-चाकर के भरण-पोषण का सामान जिसके पास हो वही ब्राह्मण ज्योतिष्टोम (सोम) योग करे और कम से कम एक वर्ष-भर की खाद्य सामग्री रहने पर ही दर्शपूर्णमास आदि यज्ञ करने की आज्ञा है। इस नियम का उल्लंघन करने पर उसके किये कर्म निष्फल बताये गये हैं। यह भी स्मरण रखने की बात है कि ये पूर्वोक्त कर्म नित्य वं नैमित्तिक (अर्थात् आवश्यकतानुसार समय-समय पर कर्तव्य) दोनों प्रकार के हैं। नित्य सोमयज्ञ प्रतिवर्ष और दर्श पूर्णमास प्रतिमास करने पड़ते हैं। जैसा कि मनु. (अ. 4/25-26) से स्पष्ट है। इससे विदित होता है कि उस समय सामान्यत: सभी ब्राह्मण सम्पन्न थे। यह भी सभी जानते हैं कि इतनी धन-सम्पत्ति-कृषि, वाणिज्य के बिना हो ही नहीं सकती। यह बात मनु (अ. 4/79) तथा याज्ञवल्क्य (अ. 128) के देखने से भी स्पष्ट है। वहाँ वे लोग दिखलाते हैं कि ब्राह्मणों के पास बड़ी-बड़ी कोठियों और खत्तियों में वर्षों तक के लिए अन्न भरे पड़े रहते थे। यह बात पुरोहिती-प्रतिग्रहादि से कभी नहीं हो सकती-सर्वथा असम्भव है। इसीलिए पुरोहिती-प्रतिग्रह को आपध्दर्म के प्रकरण, दसवें अधयाय में मनु ने ही लिखा है, जैसा कि 74-78 श्लोकों से विदित है। अतएव प्रतिग्रह की निन्दा भी बड़े जोर-शोर के साथ की गयी है, जैसा कि :
प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥
''विद्या, तप आदि से युक्त होने के कारण प्रतिग्रह की सामर्थ्य रखता हुआ भी ब्राह्मण प्रतिग्रह प्रेमी या प्रतिग्रह का अवसर ढूँढ़ने वाला कभी न बने, क्योंकि प्रतिग्रह से शीघ्र ही इसके ब्रह्मतेज का नाश हो जाता है।' (अ. 4/186)। अध्यात्मरामायण, श्रीमद्भागवत, महाभारत और अत्रिस्मृति आदि ग्रन्थों में भी सहस्रश: प्रतिग्रह की निन्दाएँ पायी जाती हैं, जैसा कि 'विस्तर' से स्पष्ट है। इन सब बातों का तात्पर्य यह है कि उन दिनों पुरोहिती आदि को वह गौरव प्राप्त न था जैसा कि आजकल है। प्राय: ब्राह्मण लोग इसे अच्छी बात न समझ खेती और वाणिज्य को ही उत्तम समझते और उन्हीं के द्वारा जीवन निर्वाह किया करते थे। हाँ, जब और कोई उपाय न सूझता था तो हार कर या किसी बड़ी बात के लोभ से उसमें भी प्रवृत्त हो जाते थे। इसीलिए ब्राह्मणों के दो दल उस समय भी स्पष्टतया विद्यमान थे। एक तो केवल उछ, शिल, खेती, वाणिज्य और भूमि आदि से जीविका करने वाला जिसे निवृत्त या अयाचक कहते थे, और जो आजकल भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों मं महियाल, तगा वा त्यागी, गोलापुरी, भूमिहार, पश्चिमा, ज़मींदार, भूम्यधिकारी, जगद्वंशी, जाज़पुरी, नागर और चितपावन आदि नामों से पुकारे जाते हैं। दूसरा वह जो किसी कारणवश पुरोहिती आदि द्वारा अपनी जीविका करता था और प्रवृत्त, याचक या पुरोहित कहलाता था और आजकल साधारणतया मैथिल, सर्यूपारी, कान्यकुब्ज, बंगाली, उत्कल, गौड़ या सारस्वत और महाराष्ट्र आदि नामों से भिन्न-भिन्न प्रान्तों में कहने की परिपाटी है। परन्तु प्राय: यही नियम है कि जिस प्रान्त में जो याचक या अयाचक ब्राह्मण हैं वह सभी वास्तव में एक ही मैथिल, कान्यकुब्ज, गौड़ या सारस्वत दल के हैं। केवल जीविका के उपाय भिन्न-भिन्न होने के कारण पृथक्-पृथक् नामों से पुकारे जाते हैं। इसीलिए हम देखते हैं कि जो केवल कृषिकर्म पर निर्भर होने से कभी भूमिहार या पश्चिमा कहता है वही कभी पुरोहिती करने पर मैथिल कहा जाता है। इसी तरह मैथिल भी पुरोहिती छोड़ देने से ही मात्र ज़मींदार, भूमिहार या पश्चिमा कहलाने लगता है। यही बात त्यागी और ग्राही गौड़ों की भी है। इसके दृष्टान्त सभी प्रान्तों में पाये जाते हैं और 'विस्तर' में भी इसका सविस्तर विचार किया गया है। यह भी स्मरण रखने की बात है कि ब्राह्मणों के ये मैथिल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़, भूमिहार, महियाल, त्यागी या महाराष्ट्र आदि नाम प्रथम न थे। यह दलबन्दी और उन दलों के नाम आधुनिक हैं। इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में केवल याचक-अयाचक, त्यागी-ग्राही और प्रवृत्त-निवृत्त यही नाम क्रमश: दोनों दलों के पाये जाते हैं। जैसा महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा है कि :
ब्राह्मणा द्विविधा राजन् धार्मश्च द्विविधा: स्मृत:।
प्रवृत्ताश्च निवृत्ताश्च निवृतोऽहं प्रतिग्रहात्॥
''हे राजा, ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं, प्रवृत्ता और निवृत्ता (याचक और अयाचक)। इसलिए उनके धर्म भी दो प्रकार के हैं, पुरोहिती-प्रतिग्रह आदि में प्रवृत्ति (उसे ही करना) और उससे निवृत्ति (उसे न कर शिल, उछ, कृषि आदि करना)। उन दोनों प्रकार के ब्राह्मणों में मैं निवृत्ता (अयाचक या त्यागी) हूँ।' (अ. 199/39)। इसीलिए उस ब्राह्मण ने राजा इक्ष्वाकु को बड़ी फटकार सुनाई है और कह दिया है कि दान उन लोगों को दो जो लेने के लिए लालायित हैं, मैं तुमसे कुछ भी नहीं ले सकता। प्रत्युत यदि तुम्हें कुछ चाहता हो तो मैं ही दूँ :
तेभ्य: प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप।
अहं न प्रतिगृह्णामि किमिष्टं किं ददामि ते॥ 40 ॥
इसलिए यदि उस समय अयाचक ब्राह्मणों को दान न लेने का गौरव था, इसे वे लोग उत्ताम कार्य समझ अपने को श्रेष्ठ समझते थे, तो उचित ही था। क्योंकि ब्राह्मण समाज या हिन्दूसमाज मात्रा की दृष्टि में वह कोई अच्छा काम न था। उसके करने से लोग उच्च समझे जाने के बदले हीन ही समझे जाते थे। अत: प्रथम तो समाज द्वारा दान त्याग कर आदर होता था और दूसरे वह शास्त्रोक्त था। ऐसी दशा में उसमें अभिमान न रखना ही भूल होती। परन्तु इस समय अविद्या के कारण हिन्दूसमाज की दृष्टि ही निराली है। अब समाज उसी निन्दिततम पुरोहिती-प्रतिग्रह को ब्राह्मणों का परम चिद्द और श्रेष्ठ कर्म समझता है! और समाज में रहना भी आवश्यक है। ऐसी दशा में समाज का नियम बाधय करता है कि उससे घृणा न की जाय। प्रत्युत आवश्यकतानुसार उसे स्वीकार किया जाय। नहीं तो समाज में अप्रतिष्ठा का होना दुख्नवार है, जैसा कि देखा भी जाता है। मनुष्य को समयानुसारी (Up to date½ होना भी चाहिए। अस्तु!
यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उस समय प्रतिष्ठा देखा-देखी अन्धापरम्परा के अनुसार न होकर शास्त्रीय बातों के अनुसार ही होती थी। जिसमें शास्त्रीय बातों की जितनी ही अधिक मात्रा पायी जाती थी उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा थी। जैसा कि :
न हायनै र्नपलितैर्न वित्तोन न बन्धुभि:।
ऋषयश्चक्रिरे धार्मं योनूचान: सनोमहान्॥
''अवस्था अधिक हो जाने, बाल सफेद होने, अधिक धन होने अथवा बड़ा परिवार होने से कोई भी श्रेष्ठ नहीं कहलाता या श्रेष्ठ नहीं माना जाता था। किन्तु ऋषि लोगों ने यही मान रखा था कि हम लोगों में जो ही वेद-वेदांगों का ज्ञाता हो वही बड़ा और पूज्य है।'' (मनु. अ. 2/154)। इसीलिए यही सर्वसम्मत सिध्दान्त-सा हो रहा था कि :
ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च॥
''यह ब्राह्मण का शरीर नीच वा छोटी-छोटी बातों के करने के लिए नहीं है, किन्तु इस लोक में कठिन तप करने और उसका फलस्वरूप परलोक में अनन्त सुख भोगने के लिए है।'' (भा. 11/17/42)। इसीलिए कृषि आदि के करने वाले भी ब्राह्मण उसमें इतने संलग्न नहीं हो जाते थे कि वेद-वेदांगों को पढ़ना-पढ़ाना ही छोड़ दें। किन्तु समय-समय पर दोनों ही किया करते थे। लेकिन कोई ऐसा अवसर आ जाता कि जिससे खेती के कारण वेदों का पढ़ना-पढ़ाना छूटता हो तो उस समय खेती भले ही छोड़ देते थे, परन्तु वेदों को नहीं; क्योंकि उनका पढ़ना उन्हें प्राणों से भी प्यारा था। इसी से खेती छोड़ भूखों रहना तक पसन्द कर लेते थे यदि ऐसा मौका आ जावे, जैसा कि :
वेद: कृषिविनाशाय कृषिर्वेदविनाशिनी।
शक्तिमानुभ्यं कुर्यादशक्तस्तु कृषिं त्यजेत्॥
''निरन्तर खेती में ही लगे रहने से वेदों का पढ़ना-पढ़ाना प्राय: छूट जाता है और निरन्तर वेदों में लगे रहने से खेती भी छूट जाती है। अत: यदि अपने-अपने अवसर पर दोनों को कर सके तो दोनों ही करे। यदि नहीं, तो खेती भले ही छोड़ दे, पर वेद को न छोड़े।'' (बौधा. स्मृति. 5/1/101) से स्पष्ट है। पर ऐसा कहीं भी देखने में नहीं आता है कि केवल याचक या अयाचक; पुरोहित या यजमान, गुरु वा शिष्य अथवा मैथिल, कान्यकुब्ज, गौड़, पश्चिमा, भूमिहार, जमींदार या त्यागी कहलाने से ही कोई उस समय श्रेष्ठ माना जाता रहा हो, जैसा कि आजकल ऑंखों देख रहे हैं। हिन्दू समाज या ब्राह्मणों में ही गुरु, पुरोहित आदि की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं होती थी-उन्हें माना या प्रणाम आदि इसलिए नहीं किया जाता था-कि वे पुरोहित या गुरु हैं, किन्तु केवल इसलिए कि उनमें विद्या और तप है। उन्हें भोजन कराने या कुछ देने के समय यदि लोग उनकी पूजा या उन्हें प्रणाम करते थे, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इतने ही मात्र से पूजा काल से अन्य समय भी वह लोग प्रणाम आदि के योग्य हैं। अन्य समय में तो उन्हें प्रणाम आदि तभी किया जा सकता है जब कि उनमें विद्या, तप आदि रूप योग्यता हो, अन्यथा नहीं। यही पूर्व प्रदर्शित वाक्य का आशय है। हिन्दू समाज में तो यह नियम है कि जिस किसी को कुछ दिया जाय उसको पूजन तथा प्रणामपूर्वक ही दिया जाय। इसीलिए कन्यादान के समय दामाद की भी पूजा की जाती है, एवं शय्यादान के समय महापात्र की। पर इतने ही मात्र से वे लोग यह दावा नहीं करते या कर सकते कि उन्हें सर्वदा ही प्रणाम करना चाहिए और न ऐसा किया ही जाता है। बस, यही नियम सब स्थानों में समझ लेना चाहिए। यदि सिर्फ गुरु या पुरोहित होने मात्रा से हर हालत में पूजन, प्रणाम की योग्यता व अधिकार माना जाता तो महाभारत के उद्योगपर्व में परशुराम के साथ युध्द करते समय भीष्म परशुराम के प्रति यह क्यों कहते हैं कि :
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्॥
''गुरु भी यदि अभिमानी हो जाय, कर्तव्याकर्तव्य न जाने या शास्त्रविरुध्द आचरण करे तो उसका दण्ड करना ही उचित है।'' (उ. 179-24)? यही बात वाल्मीकि रामायण अयोधयाकाण्ड तथा महाभारत के आदिपर्व एवं शान्ति में भी लिखी गयी है।
इस प्रकार पूर्वप्रदर्शित संक्षिप्त विचारों से स्पष्टतया सिध्द है कि हिन्दू समाज में ब्राह्मणों का स्थान प्राचीनकाल में अत्यन्त ऊँचा था और उसके कारण केवल विद्या, तप और सदाचार ही थे।
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