Monday, 13 February 2017
नाथ संप्रदाय
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Nath Sampraday
अनुक्रमणिका
1. ऐतिहासिक सन्दर्भ में भारतीय दर्षन की दो प्रमुख शाखाएं और उनमें एकात्मता का अध्ययन
2. हिन्दुत्व का इतिहास (र्इसा पूर्व दूसरी और चौथी षताबिद)
1. प्रमुख सम्प्रदायों का उदभव
2. मनिदरों का निर्माण
3. भगवान व राजा और मनिदर व महलों में समानता
4. भगवान व राजाओं की षोभा यात्रा तथा वर्तमान स्वरूप
5. मुसिलम धर्म का प्रभाव
6. उत्तर न्यायसिद्ध काल (योगी गोरक्षनाथ का प्राकटय और प्रभाव)
7. बि्रटिष काल में हिन्दुत्व
3. नाथ अर्थात दर्षनी योगी
1. योग पद का विवेचन
2. योग और योगी का महत्व
4. नाथ सम्प्रदाय का सामाजिक क्षेत्र में योगदान
5. नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति और उसके प्रारमिभक आचार्य
6. गोरक्षनाथ
7. नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथ
8. भारत में जाति व्यवस्था
1. जातीय प्रदूषण की अवधारणा
2. भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आर्य जाति की प्रासंगिकता
3. वर्ण तथा जातियों की आधुनिक, औधोगिक व राजनैतिक संज्ञा वर्ग एक दृषिटकोण
4. नाथ सम्प्रदाय का जाति के रूप में विकसित होना
9. जयपुर में नाथ सम्प्रदाय
प्रस्तावना
विष्व मेंं मानव समाज अपनी इकाइयों के प्रत्येक स्तर पर अपने दर्षन, संस्कृति, साहित्य और इतिहास को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास मेंं लगा रहता है, जिसके कारण मानव समाज का इतिहास युद्ध की घटनाओं का संकलन और पर्याय बनकर रह गया है। दर्षन को इतिहास बनने तक एक बहुुत बड़ा मार्ग तय करना पड़ता है। जीवन और जीवन पद्धति के सम्बन्ध मेंं पूर्ण र्इकार्इ द्वारा किया गया चिन्तन दर्षन है। इस दर्षन को व्यäयिें के एक समूह द्वारा अपनाये जाने पर वह संस्कृति बनता है। संस्कृति जनित अनुभव को गध या पध रूप मेंं लिपिबद्ध करने पर वह साहित्य बन जाता है।
अब तक के स्तर पर सबकुछ स्वतन्त्र होता है। आवष्यक नहींं कि आप सम्पूर्ण दर्षन को अपनाकर पूर्ण रूपेण संस्कारित हों और सम्पूर्ण संस्कार साहित्य मेंं सिमट सकें। दर्षन के अनुयायी संस्कारों को क्षमता अनुसार पूर्ण रूपेण अपनाने या न अपनाने के लिये स्वतन्त्र होते हैं। किन्तु इतिहास लिखने और लिखवाने वाले व्यä बिहुत कम होते हैं। उनमेंं भी इतिहास लिखने वाली र्इकार्इ कभी भी स्वतन्त्र नहींं होती, यदि ऐसा होता तो पौराणिक काल में भगवान विष्णु द्वारा अमृत बांटने मेंं किये गये छल को विष्णुचातुर्य की संज्ञा नहीं दी जाती, महाकाव्य काल मेंं विभीषण जैसे देषæोही और कुलघाती को भä षिरोणि नहींं कहा जाता। रामायण के ही सन्दर्भ में और अधिक विचार करें तो चातुर्मास समापित के बाद वानरराज सुग्रीव द्वारा सीता की खोज के अभियान के बाद लंका तक पुल बनने में लगने वाले समय और राम की सेना के लंका पहुंच जाने के बाद युद्ध का वास्तविक समय 84 (चौरासी) दिन है जो वैषाख चतुर्दषी अथवा अमावस्या को रावण के मारे जाने पर समाप्त होता है। वैषाख कृष्ण चतुर्दषी अथवा अमावस्या के स्थान पर रावण पर राम की विजय के रूप में आषिवन मास के शुक्ल पक्ष की दषमी को विजयदषमी के रूप में क्यों और कब मान्यता दी गयी एक पृथक शोध का विषय है। इसी महाकाव्य की महत्वपूर्ण घटना देव-असुर संग्राम में रावण के व्यंग्य से आहत कैकयी द्वारा रावण के दर्प दमन हेतु किये गये निष्चय की पूर्ति के लिये राजा दषरथ से अपने दो वरदान के रूप में तत्कालीन आसुरी शकितयों को समाप्त करने के लिये सबसे अधिक सक्षम श्रीराम को वन भेजने और भरत को अयोध्या की रक्षा का उत्तरदायित्व दिये जाने की घटना को सौतेली मां के चरित्र के रूप में अंकित नहीं किया जा सकता था। अपने परिवार के सदस्यों की समस्त बुराइयों को अच्छे से अच्छे षब्दों मेंं ढंकने के साथ धर्मराज युधिषिठर सुयोधन जैसे सुयोद्धा को दुर्योधन और सुषासन जैसे अच्छे प्रषासक का नाम दु:षासन नहींं लिखवा सकता था। दास भाव से लिखे गये रामायण महाकाव्य में श्रीराम के विवादास्पद व्यवहारों को रामलीला कहकर अलंकृत तथा पत्नी के समीप रहते हुए भी सहवास के त्याग करने वाले भरत के समर्पण, पति के साथ रहने वाली सीता की भूमिका के समक्ष लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के त्याग व सेवा की उच्चता को विस्मृत नहीं किया जा सकता था। अंगे्रज आर्यों को भारत मेंं बाहर से आये हुए नहींं लिखवा सकते थे और वर्तमान मेंं दिखाये जा रहे दूरदर्षन धारावाहिकों मेंं इतिहास की घटनाओं और साहित्य की रचनाओं को मनमाने तरीके से प्रस्तुत नहींं जा सकता था।
दर्षन एक पूर्ण र्इकार्इ द्वारा किया गया चिन्तन है। चिन्तन को संस्कृति रूप मेंं अपनाने वाली र्इकार्इ उस पूर्ण र्इकार्इ की अनुयायी है। साहित्य सृजन करने वाली र्इकार्इ या तो भ्रमित होकर आलोचनात्मक रचनाएं करती है अथवा अनुयायियों मेंंं श्रेष्ठ होकर उनका नेतृत्व करती हैं, किन्तु इतिहास लिखने वाली र्इकार्इ सबसे निम्न स्तर पर होती है और इसीलियेे पूर्णतया परतन्त्र भी। यही कारण है कि, इतिहास का बारम्बार दोहन होता रहता है और वास्तविकता जानने के लियेे षोध करना पड़ता है। साहित्य मेंं केवल वास्तविकता होती है। इसका दोहन नहींं होता तथापि साहित्य की एक सीमा है। साहित्य सम्पूर्ण संस्कृति को नहींं समेट पाता किन्तु फिर भी संस्कृति और दर्षन का प्रतिबिम्ब होने के कारण एक प्रकार से दर्षन के समान ही पूर्ण होता है। मानव समाज के समूह विषेष के दर्षन की झलक उसकी संस्कृति मेंं और संस्कृति का आभास उसके साहित्य मेंं मिलता हैं, किन्तु साहित्य इतिहास का जनक होते हुए भी अपनी पहचान बनाने के लियेे इतिहास पर आश्रित होता है। फिर भी यदि कोर्इ साहित्य इतिहास नहींं बन सका तो यह इतिहास का अधूरापन तो हो सकता है क्योंकि यह अपूर्ण इकाइयों द्वारा पोषित होता है किन्तु यह (साहित्य) सदा सर्वदा महत्त्वपूर्ण बना रहता है और जब कभी इतिहास की Üांृखला कहीं से टूटी-बिखरी नज़र आती है तो साहित्य ही उसे जोडने का काम करता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ भी एक छोटी सी किन्तु लेखक के मानस पटल पर गहरी छाप छोड़़ने वाली घटना का परिणाम है। इस ग्रन्थ का आरम्भ भी मूर्धन्य विद्वान स्वर्गीय नन्दकिषोर पारीक की ‘राजस्थान पत्रिका़ मेंं प्रकाषित ‘नगर परिक्रमा नामक लेखमाला मेंं योगी तारानाथ तथा Ñष्णदास पयहारी के संबन्ध मेंं प्रकाषित एक घटना का सही चित्र सामने लाने के प्रयास से हुआ था जो प्रारम्भ मेंं केवल आठ-दस पृष्ठों का एक लेख मात्र था। जयपुर मेंं नाथ सम्प्रदाय के असितत्व, उत्थान और पतन के सम्बन्ध मेंं समय-समय पर तथ्यहीन और अनर्गल लेख छपते रहे हैं और इस Üांृखला मेंं साधारण व्यä हिी नहींं वरन मूर्धन्य विद्वज्जन भी षामिल हैं। इस क्रम मेंं राजस्थान पत्रिका के नगर परिक्रमा स्तम्भ मेंं स्वर्गीय नन्दकिषोरजी पारीक द्वारा न केवल जयपुर वरन राजस्थान भर मेंं नाथ सम्प्रदाय के संबन्ध मेंं एकत्रित की गयी विषय सामग्री एवं उसकी प्रस्तुति वास्तविक अर्थ मेंं एक भागीरथ प्रयास था। किन्तु न मालूम किन कारणाें से उनके द्वारा प्रस्तुत Üांृखला मेंं जयपुर जलमहल की तलहटी मेंं सिथत नाथ सम्प्रदाय के रामपंथ के प्रमुख आसन की कड़ी चर्चा मेंं आने से रह गयी। जिसके कारण योगी तारानाथ और श्री Ñष्णदास पयहारी के संयोग की एक सुखद घटना विÑत रूप मेंं प्रस्तुत हुर्इ। वास्तविकता यही है कि, 16 जनवरी 1992 को राजस्थान पत्रिका के ‘नगर परिक्रमा स्तम्भ में योगी श्री तारानाथ और श्रीकृष्णदास पयहारी की भेंट की घटना के संबंध में प्रकाषित शब्दों ने ही इस ग्रंथ की रचना का सूत्रपात किया जो प्रारम्भ में मात्र आठ-दस पृष्ठों तक सीमित था। तथ्यों की तलाष में अनेक स्थानों की यात्रा, अनेक पुस्तकालयों की परिक्रमा, पुस्तक मेलों में दिनभर प्रत्येक संभावित स्टाल पर पूछताछ, असंख्य पुस्तकों का दोहन, अनेक मनीषियों से चर्चा, विद्वानों से वार्ता और कभी वाद-विवाद से निकले निष्कषोर्ं से ग्रन्थ का विस्तार होता गया। सम्प्रदायों के इतिहास सहित नाथ सम्प्रदाय की पौराणिक, सामाजिक, दार्षनिक व ऐतिहासिक महिमा, जातियों का उत्थान व विकास क्रम और अन्य तथ्य आधारित तार्किक गवेषणा अग्रांकित पंäयिें को पर्याप्त पृष्ठभूमि व आधार देती है। उस लेख मेंं दिये गये तथ्यों से उद्वेलित मित्रों के परामर्ष से धीरे धीरे सामग्री जुटने और अध्ययन बढने के साथ साथ वह लेख ग्रन्थ का आकार लेता गया। हालांकि महामना श्री नन्दकिषोरजी पारीक की सषक्त लेखनी ने ऐतिहासिक तथ्यों को यथारूप और बहुत प्रभावी प्रस्तुति दी है किन्तु किसी-किसी स्थान पर जयपुर में पुरोहितों के पक्ष में नाथयोगियों के विरूद्ध आक्रामक और साथ ही अपनी निष्पक्षता को सन्तुलित करने के लिये सहानुभूतीपूर्ण शब्दों का प्रयोग भी करती दिखार्इ पडती है। उदहारणार्थ जयपुर में नाथ संप्रदाय के मठ-मनिदर शीर्षक से प्रकाषित कडी में जयपुर की स्थापना को महायोगी गोरक्षनाथ के चौतीसा यन्त्र के आधार पर होने को यह कहते हुए प्रष्चचिन्ह लगाते हैं कि इसका कोर्इ प्रमाण नहीं है। फिर उन्हें समन्वयवादी बताते हुए नाथपंथ का आदर करने वाला बताकर विवाद को विराम भी देना चाहते हैं। निसन्देह सवार्इ जयसिंह वैष्णव था किन्तु उसके वैष्णव होने से जयपुर स्थापना में महायोगी गोरक्षनाथ के चौतीसा यन्त्र की भूमिका और उपयोगिता समाप्त नहीं हो जाती। चौतीसा यन्त्र के आधार पर नगर की तानित्रक स्थापना में सर्वप्रथम दक्षिणमुखी षिवलिंग और उसके सहयोगी देवताओुं की स्थापना की जाती है। नयी पीढी की तो बात ही दूर है पुराने बुजर्ग भी नहीं जानते कि जयपुर में दक्षिणमुखी षिवलिंग और उसके सहयोगी देवों की स्थापना सिटीपैलेस की चारदीवारी में ही जन्तर-मन्तर के उत्तरपूर्वी कोने में और गुप्तेष्वर महादेव (जयपुर राज परिवार के श्मषान गैटोर सिथत गुप्तेष्वर महादेव नहीं) नाम से ऐसा ही एक तानित्रक कि्रया अनुसार तत्समय ही स्थापित षिव परिवार जन्तर-मन्तर के उत्तर-पषिचमी भवन में हैै। फिर चौतीसा यन्त्र के आधार पर ही नगर के दरवाजों, चौपडों, चौकडियों (आवासीय बस्तीयां), देवालयों आदि का निर्धारित आकार एवं सख्या में निर्माण किया गया। चौतीसा यन्त्र के आधार पर निर्मित नगर प्राकृतिक आपदाओं से मुक्त होना कहा जाता है। प्रमाण यही है कि 1980-81 में जयपुर की चौपडों के आकार एवं स्वरूप में परिवर्तन नहीं होने तक जयपुर प्राकृतिक आपदाओं से अछूता रहा। इसी प्रकार श्री नन्दकिषोरजी पारीक जयपुर में नाथ संप्रदाय के मठ-मनिदरों की सूचि बताते हुए संषय उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं कि ”इनमें से कौन से नाथयोगियों से संबद्धित है कहना कठिन है। बहरहाल… महामना श्री नन्दकिषोरजी पारीक के प्रति पूर्ण श्रद्धा सहित नमन करते हुए लेखक स्वर्गीय नन्दकिषोरजी पारीक का âदय की अन्तर्तम गहराइयों से आभारी है जिनकी लेखनी ने एक अपराध अनुसन्धानकर्ता को वास्तविक अथोर्ं मेंं सत्य अन्वेषण के मार्ग मेंं प्रवृत्त कर दिया।
यूं तो लेखक पेषे से एक पुलिस अधिकारी है और साहित्य से संबन्ध के नाम पर उदर्ू मेंं कविता लेखन करता रहा है। लेखक की कविताओं को मिंत्रों द्वारा संगोषिठयों मेंं प्रषंसा मिलती रही किन्तु, लेखक ने उनके प्रकाषन के लियेे कभी गम्भीर प्रयास नहींं किये। स्कूल और कालेज में आवष्यक हिन्दी व अंग्रेजी साहित्य के साथ कतिपय उर्दू कहानियों व कविताओं का मार्ग में आने वाले स्वाभाविक दृष्यों से अधिक महत्व व मूल्य नहीं रहा। दार्षनिक साहित्य के नाम पर केवल मां के द्वारा गीता अध्ययन, नवरात्रों में रामलीला और यदा कदा रात्री जागरणों में छुटपुट व्यवस्थाओं के निमित्त जागरण स्थान पर बने रहने से निगर्ुण व सगुण भजनों को सुन लेने से अधिक कोर्इ सरोकार नहीं रहा। गीता अध्ययन में भी सर्वाधिक याद रहा श्लोक क्लैब्यं मा स्मगम: पार्थ नैतत्व युपपधते। ह्रदय दोर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परन्तप।। था जो कालान्तर में मेरी जोखिम उठाने और साहसिक कायोर्ं में पृवृत होने का हेतुक बना। दर्षन संबंधी इतिहास से जुडी इस ग्रन्थ की विषय वस्तु भी साधारण पाठकों के लियेे रुचिकर और उपयोगी नहींं है, इस सत्य से लेखक परिचित है किन्तु नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों के लियेे यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा और विद्वानों के समक्ष नाथ सम्प्रदाय के अनछुए प्रसंगों का प्राकटय होगा ऐसा लेखक का विष्वास है। लेखक का प्रयास रहा है कि, मूल सन्दर्भ ग्रन्थों का अवलोकन और अध्ययन कर सके। किन्तु व्यावहारिक समस्या रही कि राजस्थान विधान सभा में कनिष्ठ लिपिक के पद पर कार्यरत श्री सत्यनारायण योगी के सहयोग से वर्ष 1988 में विधान सभा के पुस्तकालय से जार्ज डब्ल्यू. जे. बि्रग्स के महान शोध गोरक्षनाथ एण्ड दर्षनी योगीज का केवल जिज्ञासावश जो अध्ययन किया था, आवश्यकता पड़ने पर वह पुस्तक नहीं मिली। विधानसभा पुस्तकालय के ‘केटलाग में इस पुस्तक का कार्ड तो है किन्तु पुस्तक का कोर्इ अता-पता नहीं है। प्रत्येक पुस्तक मेले में इस ग्रंथ के बारे में पूछते रहने पर राजस्थान साहित्य अकादमी, साहित्य ग्रंथागार जोधपुर द्वारा अगली बार उपलब्ध कराने के आष्वासन मृग मरीचिका ही बने रहे। बहुत तलाष करने के बाद माह जून, 2006 में राजकार्य वष अजमेर जाने पर ब्यावर निवासी ‘नाथवाणी के संपादक, साहित्यकार व नाथ सम्प्रदाय के पुरोधा योगी श्री मिश्रीनाथ के पास इस ग्रंंथ के दर्षन हुए। एक दिन के लिये भी विछोह स्वीकार नहीं होना इस दुर्लभ ग्रंथ के प्रति उनकी आस्था व उपयोगिता का प्रमाण थी। किन्तु इतना अवष्य लाभ हुआ कि इस ग्रंथ का नवीनतम प्रकाषन वर्ष 2001 में प्रकाषक मोतीलाल बनारसीदास द्वारा होना ज्ञात हुआ। प्रकाषक कम्पनी के दिल्ली सिथत कार्यालय में सम्पर्क करने पर इस ग्रंथ की अत्यधिक मांग होना तो बतायी गयी किन्तु कोर्इ प्रति उपलब्ध नहीं हुर्इ। निकट भविष्य में पुन: मुदि्रत करने की योजना अवष्य बतायी गयी। बहुत समय तक कोर्इ सकारात्मक प्रतिकि्रया इंगित नहीं हुर्इ। संयोग कुछ ऐसा रहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘मिषन (जनवरी 2008 से मार्च 2009) से अवकाष के दौरान भारत आगमन पर सूडान में भारत के राजदूत श्री दीपक वोहरा के लिये आचार्य चतुरसेन के ऐतिहासिक उपन्यास ‘वयं रक्षाम: की खरीद के सिलसिले में यूं ही जिज्ञासा और आदतवष पूछने और चर्चा करने पर एक पुस्तक विक्रेता ने दिल्ली में प्रकाषक से वार्ता की और अन्ततोगत्वा तीन माह पश्चात सितम्बर 2008 में उक्त पुस्तक प्राप्त होने की सूचना पुस्तक विक्रेता ने मुझे र्इ-मेल से दी तो मै स्वंय को रोक नहीं पाया और मैं भारत आया और उक्त पुस्तक को अपने साथ ले गया।
यही सिथति वेदों की रही। सत्य कहूं तो मेरी इतनी सामथ्र्य भी नहीं है कि, मैं वेदों का अध्ययन शोध और समीक्षा के दृषिटकोण से कर सकूं। हां… पत्र-पत्रिकाओं में विद्वानों के लेख और विचाराें के अध्ययन, अनुशीलन व सत्यापन में हमेंशा मेरी रुचि रही है, उन्हें यथारूप स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति नहीं रही। अत: मैं यह स्वीकार करता हूं कि वेदों के मूल ग्रन्थों का अध्ययन तो दूर मैंने उनका दर्शन भी नहीं किया, किन्तु मेरा विश्वास है कि, गीता प्रेस गोरखपुर से छपने वाली पत्रिका ‘कल्याण में प्रकाशित सामग्री के मूलत्व में किसी को कोर्इ संशय नहीं है। फिर भी, पुस्तक मेले से वेदों का हिन्दी भाषा में रूपान्तरित प्रकाषन अध्ययन हेतु क्रय किया, जो मेरे संकलन में समिमलित है।
द्वितीयत: नाथ सम्प्रदाय के संबंध में शोधकर्ताओं में से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रांगेय राघव, डा. कोमलसिंह सोलंकी, मोहन सिंह आदि अनेक महामनाओं ने जिन ग्रन्थों का सन्दर्भ अपनी रचनाओं में दिया है वह सर्वकालिक प्रमाणित है। कोर्इ नवीन अर्थ दिये बिना किसी तथ्य का पुन: प्रतिपादन रचना का अनावश्यक विस्तार ही कर सकता है। अत: तथ्यों के पुन: प्रतिपादन से शत-प्रतिशत बचने का प्रयास किया है फिर भी आवश्यकता और अपरिहार्यतावश किंचित अंषों का पुन: प्रतिपादन अवष्य हुआ है।
पाठकवृन्द से एक निवेदन अवश्य करना चाहता हूं कि मैं इतिहास, दर्शन और संस्कृति का विधार्थी नहीं रहा। इन विषयों एवं विषेषत: इनके शोध कार्य से मेरा दूर-दूर तक संबंध नहीं है। यहां तक कि इस पुस्तक की आरंभिक पाण्डुलिपि में जोघपुर निवासी मेरे रिष्तेदार एवं मित्र कवि मीठेष निर्मोही और उनके मित्र जोधपुर विश्वविधालय के डा0 दाधीच द्वारा निकाली गयी वर्तनी की अशुद्धियों से अपने हिन्दी के ज्ञान को पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता अनुभव हुर्इ। मै âदय की अन्तर्तम गहराइयों से उनका आभारी हूं जिन्होेंने लेखन के मेरे इस प्रयास को सराहा, संवारा और संशोधित किया। इसी क्रम में एक सामाजिक काय्रक्रम में 9-10 सितम्बर, 09 को दिल्ली में वेदिक शोध संस्थान कण्वाश्रम, गढ़वाल के निदेषक वेदवाचस्पति डा. लक्ष्मीचन्द्र शास्त्री जी से भेंट हुर्इ। परिचय और प्रसंगवष इस ग्रंथ की पाण्डूलिपि की एक प्रति लेकर अध्ययन एवं अनुषीलन के पश्चात एक माह की अवधि में लौटाने की बात कही किन्तु चार दिन बाद ही टेलीफोन पर उनके द्वारा विषयवस्तु की गम्भीरता, तथ्यों के महत्व, और प्रस्तुति की रोचकता की चर्चा करते हुए इसका अनवरत अध्ययन करने के लिये विवषता शब्द का प्रयोग किया गया और एक सम्ताह से भी कम समय में उनके द्वारा सम्पूर्ण सामग्री का प्रक्षालन किया जाकर पुन: 225 वर्तनियों की शुद्धि और कतिपय स्थानों पर मार्गदर्षन भी अंकित किया गया। मेरे पेषे के पूर्णतया विपरीत इस लेखन कार्य के लिये इस परिषोधित प्रतिलिपि के साथ उनके द्वारा प्रेषित प्रषंसा टिप्पणी को मैं उत्साहवर्धन से अधिक मेरे प्रति छिपे हुए उनके अनुराग के रूप में देखता हूं। इसी प्रकार उडि़सा के केन्द्रपाड़ा जिले के केयर्बन्क मठ के पीठासीन महन्त योगी श्री षिवनाथजी महाराज द्वारा भी दो गम्भीर त्रुटियों की ओर इंगित किया गया जो निष्चय ही मेरे मार्ग को प्रषस्त करने वाली थी। इन सभी महानुभावों के प्रति आभार प्रदर्षन के लिये मेरे पास शब्दों की पूंजी नहीं है और वास्तव में मैं इन सभी के आभार से उ़ऋण भी नहीं होना चाहता।
आभार प्रकट करने की श्रंखला में अनेक लोग हैं जिन्होंने इस शुष्क और नीरस विषय में मेरी लेखन तृष्णा को न केवल जागृत बनाये रखा वरन राजस्थान पत्रिका में आलोच्य सामग्री प्रकाषित होने से लेकर अधतन अनेक अवसरों पर मेरी निराषा, कुण्ठा और खीझ को सहकर भी मुझे जब और जिस प्रकार के सहयोग की आवष्यकता हुर्इ उन्होंने कभी भी मुझे अवसर नहीं दिया कि मैं उन्हें कोर्इ उपालम्भ दे सकूं। ऐसे अवसर भी आये जब कोर्इ तर्क अथवा विचार आया और मैं रात को उठकर तुरन्त ही उसे लिखने बैठ गया। मेरी तन्मयता तब टूटती जब चाय का प्याला चुपके से मेरे सामने आ जाता। निषिचत रूप से मैं मेरी पतिन का आभारी हूं जिसने अपने दाम्पत्य, पारिवारिक अथवा किसी भी प्रकार के अधिकार को मेरे इस वैचारिक संघर्ष और अपने आप से जूझने के मध्य नहीं आने दिया। मेरी पुत्रियों ने मेरे सभी दस्तावेजों को इतना सलीके से रखा कि एक शब्द मात्र कह देने पर वांछित सामग्री क्षणभर में उपलब्ध हो जाती। आरंभिक दिनों में समस्त लेखन कागज पर किया गया लेकिन कम्प्यूटर अपरिहार्य होने पर एक साधारण कम्प्यूटर खरीद कर फलापी में ले जाकर अपने कार्यालय से प्रिण्ट निकालता। कालान्तर में अच्छा कम्प्यूटर ले लिया किन्तु वायरस के कारण अनेक बार मुषिकलें हुर्इ और मेरी निराषा ने मुझे असन्तुलित भी किया। ऐसे में मेरे पुत्रों ने अपने अध्ययन को छोडकर समस्त सामग्री को पुन: टंकित किया। हालांकि इसका लाभ भी हुआ कि उनके कम्प्यूटर ज्ञान का स्तर ऊंचा हो गया। इसी प्रकार मेरे अधिवक्ता भान्जे उमेष सारस्वत ने मेरे लेख को प्रबुद्ध लोगों के मध्य चर्चाएं कर उनका मौन एवं अघोषित समर्थन व सराहना प्राप्त कर मुझ तक पहुंचार्इ। इससे मेरा मनोबल बढा क्योंकि मैं किसी से चर्चा करता तो मेरे पास सभी तथ्य, परिसिथति और तर्क होने के कारण वादविवाद अथवा विचार विमर्ष में मैं अपना पक्ष प्रस्तुत करने में अधिक सषक्त था किन्तु उमेष मेरे तथ्यों व तर्कों के अतिरिक्त अपनी प्रज्ञा से एक सीमा तक ही मेरे मत का समर्थन कर सकते थे।
इस क्रम में मैं यह उल्लेख करना अपना दायित्व समझता हूं कि सूडान प्रवास के दौरान ही मेरी ही तरह प्रतिनियुकित पर काम कर रहे एक श्रीलंका निवासी सिविल इनिजनियर राघवन (पूरा नाम याद नहीं) से वार्ताओं में श्रीलंका में नाथ परंपरा होने और इस संबंध में बहुत समृद्ध साहित्य होने का पता चला। उसने कुछ शोध पत्र भी मुझे दिये जिनकी किंचित और प्रासंगिक चर्चा नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति और उसके प्रारमिभक आचार्य नामक अध्याय में की है। निषिचत रूप से मैं उस इनिजनियर का आभारी हूं किन्तु खेद है कि मैं उसके बारे में कोर्इ अधिक जानकारी इन पंकितयों में नहीं दे पा रहा। इसी प्रकार प्रतिनियुकित से अवकाष के दौरान काहिरा के गीज़ा पिरामिडों की यात्रा के दौरान गार्इड द्वारा उसके पेषे के सामान्य अनुक्रम में उसके द्वारा बतायी गयी बातों में पिरामिडों के रहस्य की चर्चा अनजाने ही मेरी रूचि के विषय से संबद्ध निकली। मेरे द्वारा इच्छा व्यक्त करने पर उसने दूसरे दिन पिरामिडों की संरचना का तीन पृष्ठों का एक विवरण मुझे दिया जिसका सार भी नवनाथ चौरासी सिद्धों के अध्याय में वर्णित किया है।
इस सम्प्रदाय के संबंध में महामना डा0 पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, सोहनसिंह सोलंकी, पणिडत रामप्रसाद शुक्ल, आचार्य रजनीष और पाश्चात्य विद्वानों में जार्ज डब्ल्यू. बि्रग्स, गियर्सन व टेरीसरी के शोध कार्य के समक्ष इस तुच्छ रचना की ना तो आवश्यकता थी ना कोर्इ महत्त्व है। इसीलिये नाथयोगियों की वेषभूषा, गुरूओं के प्रकार (चोटी गुरू, चीरागुरू, मन्त्रगुरू, उपदेष गुरू आदि) और षिष्यों का नामकरण (प्रेमपटट, राजपटट और जोगपटट) जैसे विषयों के तथ्य एवं जानकारी एकत्रित करने के पश्चात भी हमने इन विषयों को समिमलित नहीं किया है। फिर यह विषय इतना विशाल है कि, इसके एक-एक तथ्य पर एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। सर्वोपरि तथ्य यह है कि, गोरक्षनाथ और उनके द्वारा प्रवर्तित नाथ सम्प्रदाय के संबंध में तथ्यात्मक जानकारी इस भू-मण्डल में इस तरह बिखर कर खो गयी है कि, नेपाल नरेश पृथ्वीनारायण शाह को वरदान और अभिशाप की कथा की तरह नित्य नये तथ्य सामने आ रहे हैं। बडे़-बडे़ विद्वान लेखकों के शोध भी इस विषय की एकमुश्त जानकारी दे पाने में असमर्थ रहे हैं, फिर मैं तो एक नौकरीपेशा और पद सोपान के क्रम में बहुत नीचे की सीढी पर सेवा के दायित्व से सीमित समय व संसाधनों वाला सामान्य व्यä हिूं। इसलिये जानकारी के प्रयास मेरे पेशे के अनुरूप नहीं होने से इस ग्रन्थ में तथ्यों की कमी स्वाभाविक है। इस सम्प्रदाय का अनुयायी होने के कारण कथित प्रतिस्पर्धी सम्प्रदायों के प्रति मेरी भाषा व शैली में उग्रता का दोष हो सकता हैं, किन्तु इतना अवश्य है कि, जो भी तथ्य दिये गये हैं वे वेद, स्मृति, धर्मयुä प्रमाणित वचन कहने वाले महापुरुषों, निश्छल-निर्लिप्त व निष्पक्ष जन साधारण की किंवदन्ती व परम्पराओं का आधार लिये हुए है। इन तथ्यों को अपने पेशे के अनुरूप तर्क के प्रकाश में जांचने-परखने का प्रयास नितान्त रूप से व्यäगित इसलिये नहीं है कि, जनवरी, 1992 से निरन्तर इस विषय की चर्चा के दौरान इस सम्प्रदाय के वर्तमान पीठाधीश्वरों के अतिरिä स्वतन्त्र लेखक, समीक्षक और अधिवäाओं से होती रही। नाथ सम्प्रदाय से संबद्ध और सत्य कहें तो हितबद्ध व्यäयिें की सहमति को विस्मृत कर दें तो भी अन्य किसी के द्वारा कोर्इ तार्किक खण्ड़न नहीं किया जा सका। बलिक अधिकांश का तो मानना यह रहा कि आमेर के इतिहास के नव प्राकटय से जोधाबार्इ के संबंध में सदियों से चली आ रही भ्रांति समाप्त होगी और जयपुर राजघराने पर लगे हुए लांछन का समापन होगा।
अपनी बात समाप्त करने से पूर्व कहना चाहूंगा कि सम्पूर्ण मानव समाज को नाथ सम्प्रदाय के योगदान और नाथयोगियों की सिद्धि व चमत्कारों से इस धरा का प्रत्येक कण कोर्इ न कोर्इ कथा समेटे हुए है। इसी सम्प्रदाय और सिद्ध योगियों के आशीर्वाद से समाज के सभी वर्ण किसी पक्षपात व लोभ-लालच के बिना समानरूप से लाभानिवत हुए और यह क्रम आज भी जारी है। वर्ण, वर्ग, जाति, स्थान, वंश, लिंग, जन्म और कर्म भेद किये बिना मानव मात्र इस सम्प्रदाय में समिमलित व दीक्षित होने के योग्य व अधिकारी है। समाज में पदलिप्सा, राज्याश्रय की लालसा, सम्पत्ति पर आधिपत्य की इच्छा, दूसरे को हीन दर्शाने की चेष्टा और गुरुगíी पर ब्राह्राणों के समान जाति व वंशवाद जनित झगडों का कोर्इ स्थान नहीं है। पात्रता रखने वालों मेें भी श्रेष्ठ व योग्य शिष्य को ही गुरुगíी पर आसीन किया जाता है। स्नेह, सौहार्द, संयम, समानता व साम्य, और समाज में चरित्र की उज्ज्वलता नाथ-योगियों का प्रथम मनोभाव है। माया, मदिरा, मादा, मैथुन और मांस कुछ गृहस्थ योगियों में तो स्वीकृत है क्योंकि उन पर उनकी मूल जाति का प्रभाव है। विरक्त नाथयोगियों में ये पंच मकार अपवाद स्वरूप तो मिल पायेंगे, किन्तु इनके कारण अब तक कोर्इ विवाद, धार्मिक पद या स्थान को लजिजत करने का कोर्इ प्रकरण सामने नहीं आया। नाथ सम्प्रदाय की इन विशेषताओं का कुछ अंश अन्य धार्मिक समुदायों में दृष्टव्य है। मुसिलम सम्प्रदाय की किसी भी जाति (शेख, कुरैश, पठान जैसे उच्च अथवा भिशित, नार्इ, नीलगर जैसे निम्न) का सदस्य हज कर आने पर ‘हाजी क़ुरान को कण्ठस्थ कर लेने पर ‘हाफिज इसी प्रकार मौलाना, मौलवी, मुतवली तथा इसी प्रकार र्इसार्इ मत में र्इसा मसीह की शिक्षा और सिद्धान्तों को पूर्णत: अंगीकार करने वाला ‘पादरी, बुद्ध के पंचशील आदशोर्ं को अपनाने वाला ‘बौद्ध भिक्षु और ‘लामा आदि धार्मिक पदों का अधिकारी व विशेष व्यä हिे जाता हैं, किन्तु हिन्दू मतावलम्बी निम्न जाति का व्यä सिंस्कृत, वेद और शास्त्रों का मर्मज्ञ होकर भी धर्मगुरु तो दूर धार्मिक पद का अधिकारी भी नहीं हो पाता। यदि कोर्इ निम्न जाति का व्यä अिपनी विद्वत्ता के कारण किसी धार्मिक पद के लिये अपरिहार्य हो जावे तो उसे किसी न किसी प्रकार ब्राह्राण सिद्ध किये जाने का प्रयास किया जाता है। उदाहरणार्थ रामायण व महाभारत में मां के नाम से पहचाने जाने वाले सुमित्रा नन्दन, देवकी नन्दन की तर्ज पर वेदव्यास को मछली की दुर्गन्ध वाली केवट कन्या उनकी माता के नाम पर सत्यवती नन्दन नहीं कहा गया। डाकू रहने तक रत्नाकर को निम्न जाति का व्यä किहा जाता रहा और वाल्मीकि होते ही उन्हें ब्राह्राण सिद्ध किया जाने लगा। योगी गोरक्षनाथ के सन्दर्भ में देखा जावे तो माता-पिता का पता नहीं होने और जनसाधारण को मानव मात्र समझकर समानता की तरफदारी करने तक वे निम्न जाति के व्यä किहे जाते हैं और जब योगारूढ़ होकर उनमें एक चमत्कारी व्यäतिव का प्राकटय होता है, तो अवध में वषिष्ठ गोत्र के ब्राहमण परिवार में सरस्वती नामक बांझ महिला को किसी योगी द्वारा अभिमंत्रित भभूत देने और भभूत से बच्चा पैदा होने की बात पर उपहास का पात्र बनने से बचने के लिये उसे गोबर के खडडे में फेंक देने की कथा रची जाकर उनके ब्राह्राण कुल से संबद्ध होने की सुगबुगाहट प्रारंभ हो जाती है।
धार्मिक स्थानों पर काबिज होने का परिवारवाद का सिद्धान्त जितना ब्राह्राण और पुरोहितार्इ कार्य करने वालों की मानसिकता में है उतना अन्यत्र कहीं नहीं है। षंकराचार्य का पद सात षताबिदयों से भी अधिक समय तक केवल इसलिये रिä रहा कि दक्षिण भारत के अîयर गोत्र के ब्राह्राण परिवार में कोर्इ योग्य व्यä इितने वषोर्ं तक नहीं हुआ। परिवार बढ़ जाने पर पूजा के अवसर (औसरा) की कल्पना और विशेष अवसरों पर धार्मिक स्थान से होने वाली आय को लेकर होने वाले झगडे़ इसी वर्ग की देन है। वैसे तो ऐसे असंख्य धार्मिक स्थान हैं जिनके स्वामित्व संबंधी वाद देश भर के थानों, तहसीलों और न्यायालयों में विचाराधीन हैं लेकिन वर्ष 2005 में कांचिकामकोटि पीठ के शंकराचार्य का हत्या के मामले में फंसना, ब्रह्राा मनिदर पुष्कर की गíीनशीनी को लेकर होने वाला झगड़ा और वर्ष 2006 में गलतापीठ जयपुर के पीठाधीश्वर श्रीदामोदराचार्य के स्वर्गवास के पश्चात रामनन्द व रामानुज सम्प्रदाय के संन्यासियों (कोर्इ अन्य संज्ञा प्रयोग नहीं कर सकने की विवशता है) के मध्य इस पीठ पर काबिज होने के लिये होने वाले झगडे़ इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण है। वैसे इस सत्यता के उदाहरणों की संख्या इतनी अधिक है कि केवल नाम दिये जाने पर भी ऐसे नामों का एक शब्दकोष तैयार हो सकता है।
मैंं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि पारंपरिक रूप से इस प्रकार के शोध पत्रों में सन्दर्भ ग्रन्थों का उल्लेख किया जाता है। चूंकि प्रस्तुत सामग्री पहले से प्रकाषित किसी विषय वस्तु की पुन: अक्षरष प्रस्तुती नहीं है वरन मेरे संंज्ञान में आयी जानकारियों के संबद्ध में व्यकितगत टिप्पणी अथवा तथ्यों की व्याख्या है। वैसे भी टिप्पणी अथवा व्याख्या के साथ ही यथास्थान उस जानकारी के उदगम स्त्रोत का नाम दिया गया है जैसे श्रीमदभगवदगीता का श्लोक की संख्या लिखी गयी है तो यह सुस्थापित है और इसके लिये पृथक से सन्दर्भ ग्रन्थ की सूचि बनायी जाकर पृष्ठों की संख्या बढाया जाना मेरा उददेष्य नहीं है। अत: मेरे दृषिटकोण से सन्दर्भ ग्रन्थों की सूचि की आवष्यकता नहीं है। वैसे भी मैं कोर्इ व्यावसायिक लेखक नहीं हूं। पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक के अध्यायों को पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले ऐसे पृथक-पृथक स्वतन्त्र लेख समझें जिन्हें एकीकृत रूप से प्रकाषित किया गया है।
अन्त में निवेदन है कि सम्भव है कि, लिखित ऐतिहासिक साक्ष्यों के अभाव में इस पुस्तक प्रकट अनेक तथ्य को मान्यता नहीं मिले उल्टे तथ्यों के प्रकटीकरण से आहत होकर किसी व्यä,ि परिवार अथवा ब्राह्राण संगठनों का विरोध मुखरित हो और एक नये सम्प्रदाय अथवा जाति विद्वेष का सूत्रपात हो जावे। जाति आधारित इस राजनैतिक समय में ‘संघे शä किलौयुगे का मन्त्र उदघोष हो और कोर्इ अति उत्साही व्यä लिेखक के प्रति कोर्इ आक्रामक अथवा अशोभनीय कृत्य करे। लेखक का प्रयास और उíेश्य केवल सत्य को सामने लाना है। हम सदा-सर्वदा उस अवसर की प्रतीक्षा में हैं कि कोर्इ मान्य खण्डन प्राप्त हो सके। फिलहाल तो इतना ही कहेंगें कि नित्य-निरन्तर नये सत्य का प्रस्फुटन होता रहता है। जो कल तक सत्य था वह आज असत्य है और जो कल तक असत्य था वह आज सत्य है। विद्वानों ने पहले पृथ्वी को सिथर माना और सूर्य को इसकी परिक्रमा करने वाला बताया। आज का सत्य इसके विपरीत है। प्रगतिशील, विचारवान और विज्ञान व तर्क की कसौटी पर आश्रित रहने वाले महानुभाव अपने विश्वास का नवीनीकरण करने को उत्सुक व प्रयत्नशील रहते हैं, किन्तु जड़बुद्धि व्यä किी एक बार जो धारणा बन गयी उसे कोर्इ भी प्रमाण समाप्त नहीं कर सकता। शास्त्र इसमें प्रमाण हैं, कि-
वेदा: प्रमाणं स्मृतय: प्रमाणं धर्मार्थ युäं वचनं प्रमाणम।।
नैतत्त्रयं यस्य भवेत्प्रमाणं कस्तस्य कुर्यांद्वचनं प्रमाणम।।32।।
(अ0 45 कौमार खण्ड, स्कन्द पुराण)
अर्थात- जिसमें वेद प्रमाण और स्मृतियां प्रमाण और धर्म, अर्थ युä सत्य वäा सर्वज्ञ पुरुषों का वाक्य प्रमाण हैं। इन तीनों को जो नहीं जानतामानता उसके संशय को दूर करने के लिये कौनसा प्रमाण है।
आदेष-आदेष….
योगी हुकमसिंह तंवर
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ऐतिहासिक सन्दर्भ में भारतीय दर्षन की दो प्रमुख शाखाओं और उनमें एकात्मता का अध्ययन
1. वैष्णव शाखा
वैष्णव सम्प्रदाय का एक लम्बा इतिहास है, जो वेदों1 में विष्णु पूजा2, महाकाव्यों की भकित धारणा और र्इसा पूर्व के वासुदेव सम्प्रदाय के समय से रेखांकन योग्य है। वैष्णव सम्प्रदाय के दो मुख्य धर्मग्रन्थ पंचरात्र और वैखानस बहुत महत्त्वपूर्ण है। यधपि वैष्णव मतावलंबी पंचरात्र ग्रंथ को वैदिक मूल का होना अंकित करते हैंं किन्तु षंकराचार्य जैसे विचारक इस दावे को सही नहीं मानते। पंचरात्र ग्रंथ के मुख्य विषय मूर्तिपूजा, धार्मिक संस्कार और वैष्णव मतावलंबियों के धार्मिक कर्मकाण्ड से संबंधित हैं। अहिबर्ुध्न्य संहिता (षिव स्तोत्र का संग्रह) और जयक्य संहिता (स्तोत्रों का संग्रह) दार्षनिक महत्त्व के ग्रंथ हैं। सुप्रसिद्ध पंचरात्र सिद्धान्त र्इष्वर के चार आत्मस्वरूपों से संबद्ध हैं, जिनमें षुद्ध और सर्वोच्च सिथति को वासुदेव, ज्ञान और षकित की प्रधानतावाले स्वरूप को संकर्षण, समृद्धि और साहस की प्रधानता वाले स्वरूपा को प्रधुम्न तथा षकित व ऊर्जा की प्रधानता वाले स्वरूपा को अनिरुद्ध नाम से जाना जाता है। षंकराचार्य ने संकर्षण स्वरूप को स्वतन्त्र आत्मा, प्रधुम्न को मसितष्क और अनिरुद्ध को अहम भाव से युक्त होना बताया। इसके अतिरिक्त र्इष्वर की पांच षकितयां क्रमष: उत्पन्न करना, पालन, कृपा, अकृपा तथा नाष करना है। भकित को र्इष्वर से प्रेमभाव तथा उसकी संप्रभुता व सत्ता को स्वीकार करने से संबद्ध होना परिभाषित किया है। इस संबंध में उत्तरन्यायसिद्ध काल में यामुनाचार्य के प्रपत्ति-सिद्धान्त की चर्चा प्रासंगिक है।
वैष्णव मतावलम्बी विष्णु और उसके विभिन्न अवतारों की पूजा करते हैंं। वैदिक काल से अब तक के लम्बे समय में विकास क्रम अनेक अथोर्ं में उलझा हुआ है और इस मध्य वैष्णव सम्प्रदाय में विभिन्न मतों और उíेष्यों वाले अनेक समूहों का उदभव हुआ। जिनमें प्रमुख रूप से दक्षिण भारत के श्रीवैष्णव, पषिचमी भारत मेंं वल्लभाचार्य की षिक्षाओं को मानने वाले तथा पूर्वी भारत में बंगाल में संत चैतन्य महाप्रभु की षिक्षा का अनुगमन करने वाले षामिल हैं। यह कहा जा सकता है कि, वैष्णव मत के अनुयायियों का एक बड़ा भाग वैष्णव मत की विभिन्न परम्पराओं को अपनी स्थानीय परम्पराओं से मिलाकर व्यवहार करते रहे हैं। वेदों में विष्णु को सर्वव्यापी और सर्वगामी भगवान कहा गया है, जो तीनों लोकों मे मानव असितत्व को बचाने के लिये तीनों लोकों में आवागमन करता है। सभी जीव उसके तीन पदों (लोकों) में निवास करना कहे गये हैं, जिनमें सर्वोच्च पद (लोक), नाषवानों के ज्ञान की सीमा के परे उसके प्रिय और सर्वोच्च धाम स्वर्ग में बताया गया है। र्इसा की पूर्ववर्ती अनेक शताबिदयों से विष्णु अपने विषेष भäों द्वारा पुरुष, प्रजापति, नारायण, Ñष्ण तथा वासुदेव नामों से र्इष्वर रूप में पूजित है ।
विष्णु से जुड़ी हुयी विस्तीर्ण पौराणिक कथाओं में उसके अवतारों का वर्णन है। यहां यह उल्लेखनीय है कि, हिन्दू सम्प्रदाय के विभिन्न मतों में केवल वैष्णव मत में अवतारों की अवधारणा हैं। इसके मूल में विष्णु की सामाजिक भूमिका को गतिमान करते हुए यह विचार प्रतिपादित किया गया कि जब-जब धर्म की हानि होती है तो विष्णु अपने वैकुण्ठ लोक को छोड़कर मृत्यु लोक में आवष्यकतानुसार स्थानीय स्वरूप में अवतार लेते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं3 विष्णु का प्रत्येक अवतार एक विषेष पौराणिक कथाघटना के असितत्व को प्रतिबिमिबत करता है। पषु रूप से प्रारम्भ होकर पूर्ण मानव रूप तक इन शास्त्रीय अवतारों की कुल संख्या दस है़4। ये दस अवतार क्रमष: मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परषुराम, दाषरथीराम, Ñष्ण तथा बुद्ध हैं और दसवां अवतार कलिक अवतार है, जो भविष्य में होना है।
दषावतार के विषय में वैष्णव संप्रदाय के मतानुसार कृष्ण स्वयं भगवान हैं, जिनके द्वारा विभिन्न कारणों से अन्य नौ अवतार लिये जाते हैं और केवल धर्म की हानि होने पर उसकी पुन: स्थापना के लिये प्रकृति को अपने अधीन करके वे स्वयं प्रकट होते हैं। अत: वे अवतारी तो हैं परन्तु अवतार नहीं हैं। निम्नांकित पंकितयों में केवल नौ अवतारों के नाम है। स्वयं कृष्ण इसमें लुप्त हैं। देखिये…….
मत्स्य कूर्म वराहष्च नरसिंहष्च वामन,
रामरामष्च रामष्च बुद्ध कलकी तयेवच।।
(कम्प्यूटर में कुच्छ अक्षरों की अनुपलब्धता के कारण वर्तनी की अषुद्धता के लिये खेद है। इसमें रामराष्च रामष्च दो बार प्रयुक्त हुआ है, जो दाषरथी राम और परषुराम के नाम प्रतीत होते हैं। उक्त श्लोक एक वैष्णव साधू (नाम याद नहीं) से प्राप्त हुआ है और हम किसी ग्रंथ से प्रमाणित नहीं कर सके हैं। प्रष्न यह रह जाता है कि, यदि विष्णू और कृष्ण एक ही हैं तो राम कहां, कैसे और क्यों अलग है? यदि राम अवतार हैं तो कृष्ण भी अवतार ही है।)
इस प्रकार विष्णु एक ऐसा देवता है, जो समाज की उन्नति, विकास और परस्पर प्रेम को गतिमान रखता है। वास्तव में विष्णु मुख्य रूप से उसके अवतारों में और विषेषत: राम और Ñष्ण के रूप में एक निषिचत और विषेष स्तर तक समर्पण (भä)ि का प्रतिमान रहा है। र्इष्वर अपनी Ñपा से भäप्रिदान करता है, जिससे भä को पुनर्जन्म के बंधन से मुä प्रिप्त हो सकती है। अन्य देवताओं की भांति विष्णु भी अपने विषेष पार्षदों लक्ष्मी, गरुड़, शंख, चक्र तथा गदा से युä है।
वैष्णव सम्प्रदाय के अलग-अलग समूह (उदाहरणार्थ दक्षिण भारत के श्रीवैष्णव (श्री संप्रदाय जिसको रामानुज संप्रदाय कहा जाता है, निम्बार्क और माधवाचार्य संप्रदाय, बंगाल के श्री चैतन्य महाप्रभु के द्वारा प्रतिषिठत गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय, आसाम के श्री शंकरदेव द्वारा प्रतिषिठत शंकरी संप्रदाय, उत्तर भारत के रामानन्द संप्रदाय जिसेे वैरागी संप्रदाय भी कहा जाता है और महाराष्ट्र में विष्णु के विठोबा विग्रह की पूजा करने वाले वारकरी संप्रदाय) अपने दार्षनिक मत के समर्थन में चाहै, जो तर्क देते हों, सभी वैष्णव मतानुयायी स्वयं को विषिष्ट उच्चता प्राप्त व्यकित के रूप में सिद्ध करने का प्रयास करते हैंं और भगवान के विभिन्न रूपों और प्रतिनिधियों के माध्यम से उसकी पूजा करते हैंं। वैष्णव मत आत्यनितक रूप से एकेष्वरवादी है फिर चाहे भä कि केन्द्र विष्णु का नारायण रूप हो या उसके अवतारों में से Ñष्ण या राम का। विष्णु के इन स्वरूपों में से किसको प्राथमिकता दी जाती है? मोटे तौर पर यह स्थानीय परम्परा से संबद्ध मामला है। यही कारण है कि, दक्षिण भारत के श्रीवैष्णव विष्णु, राम और लक्ष्मी की पूजा अधिक करते हैंं जबकी उत्तरी भारत में Ñष्ण भäों की संख्या अधिक है। एकेष्वरवाद के इस खाके में विष्णु के इन दिव्यतायुä नायकत्व लिये हुए अवतारों की अवधारणा एक सषä एकीकरण बलदात्री सिद्ध हुयी। जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है तब तब पृथ्वी का रक्षक भगवान भलार्इ की रक्षा, बुराइयों के अन्त और धर्म की पुनस्र्थापना के लिये पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवों में से ही किसी स्वरूप में स्वयं को प्रकट करता है। विष्णु के राम और Ñष्ण स्वरूप में की गयी ये परोपकारी और लाभकारी गतिविधियां सन्देह से परे नहीं हैं। अनेक पौराणिक कथाओं में विष्णु को एक महान अनुकूलनीय बहुमुखी प्रतिभा के रूप में अंकित किया गया है, जो स्वयं को किसी भी रूप में प्रस्तुत कर सकता है, जैसे कि अमृत मंथन के समय असुरों से अमृत को बचाने के लिये कामिनी रूप में प्रकट करना। विष्णु द्वारा किये गये महान कायोर्ं की लम्बी Üाृंखला पृथ्वी पर विषेषत: भारत में बिखरी पड़ी है। विष्णु का यह बहुआयामी चरित्र ऐसी विभिन्न कहानियों का प्रेरणा स्रोत था, जिनमें वह अपने भäों के हित में एक कपटी तथा स्वार्थी नायक तक के रूप में कार्य करने को उधत रहता है। सारांष में वे सब विष्णु को एक आष्चर्यजनक महामानव के रूप में प्रस्तुत करती हैं जिसके कार्य और प्रतिक्रियाएं साधारण प्रज्ञा की परिधि से परे हैं।
भä किे प्रति सषä अभिवृत्ति वैष्णव मत का निषिचत और विषिष्टांग है, जो कि सामान्यत: पूजा का केन्द्र बिन्दु, अपने र्इष्ट के प्रति पूर्ण एकल दायित्व तथा एक व्यä कि परमात्मा से साक्षात्कार का प्राथमिक आधार है। फल की कामना और आसä किये बिना अपने सभी कायोर्ं को र्इष्वर के निमित्त करना, र्इष्वर के प्रति सदा-सर्वदा पूर्ण समर्पण तथा नित्य निरन्तर र्इष्वर तत्त्व के चिन्तन को भä किी संज्ञा दी गयी है। विस्तृत भä अिन्दोलन, वैष्णव मत के अनुयायियों द्वारा अपने र्इष्ट के प्रति प्रेम, Ñतज्ञता और समर्पण की उपसिद्धि है। ध्यान की भावनात्मक प्रवृत्ति या अपने सर्वोच्च उíेष्य के अधिक प्रभावषाली वैदानितक साधनों को अनुमोदित करते हुए भä मित का व्यावहारिक और सैद्धानितक विकास वैष्णव सम्प्रदाय की विभिन्न शाखाओं के मध्य मुख्य अन्तर का प्रतिपादन करता है। भगवदगीता में Ñष्ण द्वारा दिया गया वचन कि जो सम्पूर्ण रूप से श्री भगवान की शरण होंगे वे भगवान की Ñपा के पात्र होकर परम शानित को प्राप्त होंगे, तथा व्यकित द्वारा किये गये कायोर्ं के परिणाम अनुसार दिव्य लोकों की प्रापित होगी5।
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2. शैव शाखा
शैव शाखाएं शैव सम्प्रदाय के कलेवर में वे दार्षनिक रीतियां हैं, जो इस मत के अनुयायियों द्वारा षिव को सर्वोच्च सत्ता के रूप में पूजती है। विष्णु की अपेक्षा षिव की पूजा वाजसनेयी संहिता, अथर्ववेद और ऋग्वेद के रुद्र स्त्रोतों से भी पूर्व से की जाती रही है। महान विचारक माधव ने अपनी कृति सर्वदर्षन संग्रह में षिव की तीन पद्धतियां लकुलीष-पाषुपत, षिव और प्रत्यभिज्ञा बतायी है6। माधव द्वारा बताया गया षिव पद्धतियों का वर्गीकरण संभवत: तमिल क्षेत्र के शैव सिद्धान्त समतुल्य है और प्रत्यभिज्ञा काष्मीर के शैव मत के रूप में जाना जाता है। शैव सिद्धान्त यथार्थवादी तथा द्वैतवादी है और काष्मीर का शैव मत आदर्षवादी है। वैदिक देवता रुद्र अर्थात षिव, जो स्वभाव से कोमल, अध्यात्म की दृषिट से पवित्र और सामाजिक दृषिट से मंगलकारी है, की सिथति और चरित्र विष्णु के साथ और सही अथोर्ं में देखा जावे तो विष्णु से पूर्व हिन्दुत्व विचारधारा में प्रभावषील है तथा षिव की विरोधाभासी व समान्तर प्रÑति के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर गहन विचार किया जावे तो षिव की सिथति और चरित्र का एक स्पष्ट चित्र उभर कर सामने आता है।
प्राचीनकाल संभवत: वैदिक काल की प्रांरभिक अवस्था से उलझे हुए विकास क्रम के दौरान अनेक अलग-अलग शैव समुदायों का उदभव हुआ। दक्षिण भारत के लिंगायत व कष्मीर के शैव जैसे प्रमुख शैव समुदायों ने ब्रह्राज्ञान के सिद्धान्त का प्रचार किया और षिव की पूजा भारतीय षिव दर्षन तथा स्थानीय षिव पूजा का एक किलष्ट मिश्रण बन गया। प्राचीन मनुष्यों की सोच में षिव प्राथमिक रूप से प्रÑति के अविकसित, भयंकर, अविष्वसनीय और अनिष्चित रूप के प्रतिनिधि रहे होंगे। स्वयं षिव का चरित्र भी इन आंषिक अभिव्यकितयों के लिये उत्तरदायी है। षिव का प्रत्येक चरित्र उसके एक रूप का और अन्य देवताओं से समान प्रकृति की दिव्य शäयिें को आत्मसात करने का भी प्रतिनिधित्व करता है। ऋग्वेद में पहले से ही प्राÑतिक आपदा के समय सहायता की प्रार्थनाएं जिनका कि वह संचालक हो सकता है, उसकी महान शकितयों के पुषिटकरण के साथ जुड़ी हुर्इ थीं। वैदिक काल के क्रम में, षिव मूलत: धार्मिक और वैचारिक बाá व्यकित, तथापि एक शäमिन देवता जिसका परोपकारी रूप पहले से ही प्रख्यात था, शनै: शनै: दूसरे पूजित देवताओं जो मानव हितों के विभिन्न क्षेत्रों पर विराजमान थे, के वृत्त में प्रवेष पा गया। वैदिक सृषिटकर्ता देवता प्रजापति, इनिद्रयों का देवता इन्द्र तथा अगिन का देवता अगिन आदि की सभी विषेषताएं षिव के असितत्व में समाहित थी।
श्वेताष्वरोपनिषद के अनुसार इस पृष्ठभूमि में षिव देवताओं की श्रेणी में सर्वोच्च स्थान पर आसीन हुए। षिव के सन्दर्भ में इस उपनिषद की भाषा में अत्यधिक आडम्बरपूर्ण और प्रभावषाली पदों का प्रयोग किया गया है तथा षिव को संसार सागर में बारम्बार जन्म लेने व मरने के बन्धन से मुä करने वाला और शाष्वत-सनातन र्इष्वर उदघोषित किया गया है7। षिव की प्रकृति के इस वर्णन में, पष्चात्वर्ती र्इष्वर षिव की कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषेषताएं स्पष्टत: दृषिटगम्य हैं- कि वह समस्त जीवों का आदि जनक व आधार है और समस्त जीव उसके अधीन हैं। वह ब्रह्रााण्ड की पुनर्रचना के समय, प्रकृति विषयक असितत्व में पूर्ण रुकावट को प्रदर्षित करने वाले सदृषीकरण ध्यान का मूल है। इस प्रकार जब विष्णु मानव के अधिक समीप और हितैषी सिद्ध हुआ तो रुæ षिव एक विरोधाभासी और बहुआयामी स्वामीसंचालक के रूप में स्थापित हुआ। हालांकि, वह आंषिक रूप में मानव जाति के मध्य सक्रिय था। पषुपति के रूप में उसने वैदिक देवता वरुण की शकितयां आत्मसात कर ली थीं तो अघोरी के वेष में षिव ने अपनी प्रकृति की अलौकिक विषेषताओं का प्रदर्षन किया। कुछ मामलों में यह स्पष्ट नहींं है कि, षिव की स्तुति उसके भयावह रूप के कारण एक महान देवता के रूप में की गयी है, जो शैतानी शकितयों को विजित करने में सक्षम है या एक संरक्षक, परोपकारी और वरदान देने वाले स्वामी के रूप में। आकसिमकता के परे एक प्रकट सर्वोच्च हस्ती के लिये र्इष्वर की अवधारणा अपेक्षाकृत एक सारांष मात्र है। इसलिये इस अवधारणा को प्रचारित करने वालों को कल्पना, लोक विष्वास और आध्यातिमक विचारों की आवष्यकता हुयी। षिव समस्त परिवर्तनों और उतार-चढावों के परे एकमात्र प्रधान हो सकते हैं फिर भी वह असंख्य स्थानीय देवताओं और अधिकांष हिन्दुओं द्वारा पूजित अनेक भयकारक शäयिें से अपने संबंधों को नकार नहीं सकता। विष्णु देवताओं का सर्वकालिक समर्थक है, जबकि षिव कहीं-कहीं पर राक्षसों का भी पक्ष लेता दिखार्इ देता है।
सर्वोच्च हसितयों में षिव ध्रुवता का एक आष्चर्यजनक उदाहरण है क्योंकि, वह अपने व्यकितगत विषिष्ट विरोधी तथापि प्रषंसनीय रूप में झगड़ों का निपटारा करते हैंं। वह बहुत कोमल भी हैं और बहुत भयावह भी, उत्पत्ति कर्ता और संहारक, परम शानित का धाम और सनातन क्रिया कलापों का प्रतिनिधि है। षिव के ये प्रकट विरोधी रूप, उनको सर्वोपरि महामानव सिद्ध करने वाली कथाएं और उनके स्वयं के रहस्यमय परम वैभव उनके असितत्व की असत्यता का आभास कराते हैं। उनका चरित्र इतना उलझा हुआ और उनके उíेष्य परस्पर इतने विरोधी हैं, जो उन्हें पौराणिक कथाओं की संघर्षीय और भ्रमित करने वाली परिसिथतियों व चरित्रों में सबसे आगे खड़ा कर देते हैं। इस पर भी, ब्राह्राण दर्षनवेत्ता उनके संन्यासी रूप का और तानित्रक परम्पराओं का निर्वाह करने वाले कर्मकाण्डी उनके केवल कामुक और संहारक रूप का ही गुणगान करते हैं। षिव के इन दो नितान्त विरोधी गुणों को सामान्यत: एक सिôे के दो पहलुओं की भांति स्वीकार किया जाता है। इन विरोधाभासी गुणों में कल्पनाओं के परे सामंजस्य बैठा सकने के कारण षिव का राजनीतिक प्रबन्धन उन्हें राजनीतिज्ञों के सर्वोच्च षिखर पर बैठा देता है। परस्पर विरोधी प्रकृति के न केवल विचार रखने वाले परिजन, वरन एक दूसरे को अपना भोजन बना लेने तक की वैमनस्यता रखने वाले जीवों को अपने परिवार में शानितपूर्वक रखने का उदाहरण अन्यत्र ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता।
षिव अपनी तपस्या (योग साधना) और कठोरता को कभी कभी पार्वती से विवाह के समय तोड़ते हैं और कभी-कभी पार्वती का सान्निध्य पाने के लिये भी योग का अनुसरण करते हैंं। वह योगी और प्रेमी की भूमिका का इस स्तर तक मिश्रण करते हैंं कि उनकी पत्नी उनके कठोर तप के समय एक योगिनी होनी चाहिये और जब वे काम के स्वरूप में होते हैं तो वह एक कामातुर गृहिणी होनी चाहिये। इस प्रकार के दोहरे चरित्र का स्पष्टीकरण प्राचीन दोहरे दृढ़विष्वास में मिलता है, तदनुसार निर्बाध संभोग की प्रÑति उत्पादकता में सहायक है, दूसरी ओर योगियों की पवित्रता व ब्रह्राचर्य अदभुत घटनाओं के जनक होते हैं और काल की समस्त अलक्षित इकाइयों पर इन योगियों का असामान्य प्रभाव एवं नियन्त्रण होता है। अपनी पवित्रता के कारण एक योगी असाधारण शकित (जिसमें काम शकित भी समिमलित है) संचय करता है, जिसके आकसिमक व सम्पूर्ण उपयोग द्वारा अदभुत परिणाम उत्पन्न किये जा सकते हैं।
विभिन्न पौराणिक कथाओं में यह देखा गया है कि, उत्पादकता तथा प्रÑति के पुननिर्माण की सविराम प्रक्रिया के लिये पवित्रता और एकान्तता का समय-समय पर ह्रास आवष्यक है। हिन्दुत्व में योगियों के काम व रचनात्मक अनुभव, अन्तरंग व विषिष्ट अंग हैं और पौराणिक विचारों में काम का संकुल तत्त्व, संन्यास और गृहस्थाश्रम को प्रतिसंतुलित करता है। इस प्रकार की कामुकता, जो कि Ñष्ण के सन्दर्भ में अपेक्षाÑत काव्यात्मक है और षिव के सन्दर्भ में इस कामुकता का रूप अदभुत है। यही कारण है कि, एक जिज्ञासु, षिव में एक संन्यासी और गृहस्थी दोनों संभावनाओं का साक्षात्कार कर सकता है। पार्वती से उनका विवाह दाम्पत्य जीवन के एक अनुपम आदर्ष से इतर मानव समाज में विवाह का दिव्य आदि प्रतीक तथा मानव जाति पर वंषक्रम को आगे बढाने वाले बलों को सामाजिक स्वीकृति तथा वैधता प्रदान करने वाला है। षिव की पौराणिक कथाएं उन्हें आत्यनितक रूप से सर्वषäमिन तथा अदभुत अंकित करती हैं जो किसी भी व्यä यि वस्तु के लिये उत्तरदायी नहीं है। उनकी विभिन्न मुद्राएं उनकी प्रÑति को प्रकट करती हैं। एक नर्तक के रूप में वह ब्रह्रााण्ड के शाष्वत लय के प्रवर्तक हैं। सर्वपापनाषिनी गंगा को उन्होंने मस्तक पर धारण कर यह सिद्ध किया है कि, जीवों का पाप से उद्धार करना उनका परम उíेष्य है। इसी प्रकार अपनी जटाओं में शुक्ल द्वितीया का उदयमान चन्द्रमा धारण किया है, जो उत्तरोतर प्रगति का धोतक होने के साथ ही नित्य निरन्तर जीवनदायी अमृत का स्रोत भी है, जो उनके शाष्वत जीवन को परिलक्षित करता है। षिव दिव्यता की अकल्पनीय संभावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैंं। उनमें वैदिक देवता रुद्र की विषेषताएं यथावत हैं, किन्तु उनकी पौराणिक कथाएं जटिलताओं की सीमा पार कर गयी है। वे वध करते हैंं और अपने षिकार की खाल उतारते हैं और खूंखार पषुओं की खाल से अपना अधोअंग ढके रहकर भय देने वाला नृत्य करते हैंं। समाज और सामान्य संसार से दूर, अगम्य कैलाष पर्वत के पठारी भाग हिमालय पर बैठते हैं। एक कठोर तपस्वी, प्रेम का अनिच्छुक जो प्यार के देवता काम को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर देता है, जबकि दूसरी ओर षिव सम्पूर्ण भारत में लिंग रूप में पूजित है, जो पूर्ववर्ती विषेषताओं के सर्वथा विपरीत है। कल्प के अन्त में वह ब्रह्रााण्ड के विध्वंस के लिये नृत्य करेंगे। काल रूपी सर्प जिनके शरीर पर लिपटे रहते हैं, जो मानव कपालों की माला पहनते हैं, संन्यासियों की भांति बालों का जूड़ा बांध कर ध्यान में बैठते हैं और जो शरीर पर चिता की भस्म मलते हैं। दूसरे शब्दों में जो संसार में जीवन व शान्त जीवन के चिàों के सर्वदा विपरीत हैं, इतने सब कुछ पर भी उन्हें षिव, शंभु शंकर अर्थात महामंगलकारी और परमषान्त कहा जाकर स्तुति की जाती है। अन्य अनेक संन्यासियों की भांति षिव भी प्राय: शीघ्र कुपित होने वाले और भयकारक किन्तु साधारण सेवा से प्रसन्न हो जाने वाले हैं। विष्णुप्रिया देवी लक्ष्मी के सर्वथा विपरीत पर्वतराज की पुत्री देवी पार्वती उनकी पत्नी है, जो षिव की अर्धांगिनी के रूप में षिव की कुछ भयकारक शäयिें की स्वामिनी है जिनमें काली, चणिडका, दुर्गा, ब्रह्राचारिणी, चामुण्डा आदि उनके रौद्र रूप हैं, किन्तु इस पर भी वे वैष्णवी और पार्वती नाम से जगदम्बा रूप में पूजित हैं। वे षिव की शä किे रूप में प्रतिषिठत हैं जिनके बिना षिव केवल शव के समान हैं।
निष्पक्ष विचारण एवं गवेषणा की जावे तो षिव का कहीं-कहीं भयावह रूप होने पर भी उनको संहार का देवता कहा जाना न्यायोचित नहीं है। वस्तुत: आष्चर्य की सीमा तक सत्य यह है कि, षिव ने किसी का संहार किया ही नहीं। समस्त पौराणिक कथाओं पर दृषिटपात और षिव तथा विष्णु के चरित्र का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन करें तो मधु-केटभ, हिरण्याक्ष, हिरण्यकष्यप, खर-दूषण, बाली, मारीच, कुंभकरण, मेघनाद, अहिरावण, माली-सुमाली, रावण, पूतना, कालियानाग, चण-चाणूर, कंस, षिषुपाल आदि सहित समस्त वध विष्णु अथवा उनके अवतारों द्वारा किये गये। विष्णु के समस्त ज्ञात और अज्ञात चित्र व मूर्तियों की समीक्षा करें तो खडी मुद्रा में सदा हाथ में गदा लिये संहार करने को तत्पर तथा विश्राम अवस्था में षेषनाग को दमनपूर्वक बन्धक बनाया हुआ और लक्ष्मीरूप में नारी से दासी की भांति पांव दबवाते हुए प्रदर्षित किया जाकर भी उन्हें पालनकर्ता की उपाधी से विभूषित किया जाता है। समानता और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में भी कभी मोहिनी बनकर दानवों के साथ अमृत बांटने में छल करते हैं, कभी जालन्धर का रूप धारण कर उसकी पतिन वृन्दा का सतीत्व हरण करते हैं, कभी प्रहलाद को अपनी चमत्कारी शकितयों के प्रभाव से बचाकर अपने ही पिता के विरूद्ध आन्दोलन करवाकर हिरण्यकष्यप के परिवार में मतभेद उत्पन्न करते हैं और अपने ही भक्त प्रहलाद के वंषज बाली का यज्ञ इसलिये पूर्ण नहीं होने देते कि वह इन्द्र के आसन की योग्यता प्राप्त नहीं कर ले। दूसरी ओर षिव सदा सर्वदा समाधी अवस्था में लोक कल्याण के संबंध में विचार करते हुए और किसी भी भक्त के पुकारे जाने पर उठ खडे होने के लिये एक पादासन में मंगलकारी भावना के साथ बैठते हैं। पतिन को दासी की भांति नहीं वरन अपने समकक्ष स्थान देकर उसे अपना आधा अंग बताते हुए सम्मानित करते हैं। वरदान देने के लिये उनके पास दैत्य, दानव, मानव और देव का आरक्षण नहीं होकर केवल तपस्या की योग्यता ही मापदण्ड है। उच्छृंखल व्यवहार के लिये वे देवताओं की भत्र्सना के साथ कामदेव को भस्म कर देने तक दणिडत करते हैं वहीं पाणिडत्यपूर्ण कायोर्ंं के लिये वे सपोर्ं का दमन कर उन्हें बन्धक बनाकर उनका मानमर्दन नहीं करते वरन उन्हें गले लगाकर मित्रवत व्यवहार करते हुए वन्य जीवों के साथ सहअसितत्व का सन्देष देते हैं। गंगा को सिर पर धारण कर षिव जहां जल के महत्व को स्थापित करते हैं वहीं विष्णु के लिये गंगा जैसा शुद्ध जल (पवित्र नहीं मानने पर भी) भी चरण पखारने के सामान से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। सृजन के संबंध में भी केवल षिव ही है जिन्होंने पहले तो एकोहं बहुस्याम की इच्छा से अपने समान देव उत्पन्न किये और बाद में सामाजिक मूल्यों का उच्च स्तरीय मान स्थापित कर वैवाहिक संस्था के असितत्व को पहचान दी अन्यथा ना तो ब्रहमा द्वारा कथित सृष्टी रचना के कोर्इ तथ्य, प्रमाण अथवा कथा है और ना ही विष्णु द्वारा कोर्इ सन्तान उत्पन्न करने के साक्ष्य है। षिव के संहारक रूप संबंध में केवल एक प्रसंग आता है कि उन्होंने प्रजापति दक्ष के यज्ञ में ताण्डव नृत्य किया। देखा जाये तो पति के सम्मान के लिये प्राणोत्सर्ग कर देने वाली पतिन के प्रेम में पागल हो गये पति के आत्मविस्मृत रूप को ही ताण्डव नृत्य का नाम दिया जाकर षिव को संहार का देवता निरूपित कर दिया गया। जबकि ताण्डव नृत्य से थोडी ही देर पहले तक षिव अपने अपमान की पराकाष्ठा तक भी निर्लिप्त भाव से उस यज्ञ स्थल पर बैठे रहते हैं और प्रजापति दक्ष द्वारा किये जाने वाले अपमान में सभी आमनित्रत हसितयों (जिसमें ‘त्रिदेव के दो प्रमुख घटक स्वयं विष्णु और ब्रहमा भी उपसिथत हैं) द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भाग लिये जाने पर भी वे कुपित नहीं होते।
जहां तक हिन्दुत्व की दोनों शाखाओं में वास्तविक विभेद का प्रष्न है, यह विभेद धर्म जैसे संवेदनषील, किन्तु सुलभ विषय के आधार पर, मानव समूहों का नेतृत्व करने से होने वाले प्रभुत्व की लालसा रखने वाले तथाकथित धर्मोपदेषकों द्वारा उत्पन्न एक सिथति है। अन्यथा पौराणिक कथाओं पर दृषिटपात करें तो षिव और विष्णु एक दूसरे के प्रति इतने समर्पित हैं कि, किसी एक पर विपत्ति आने पर दूसरा उसकी सहायतार्थ अपना सबकुछ दांव पर लगा देता है। भस्मासुर को दिये हुए अपने ही वरदान की त्रासदी से बचाने के लिये विष्णु कामिनी का रूप धारण करते है और राम अवतार में षिव उसकी सहायता के लिये हनुमान का रूप धारण करते है। विष्णु इसलिये अपने भाल पर लम्बवत तिलक लगाते हैं कि, वह षिव के हमेषा लम्बवत खडे़ रहने अथवा सीधे बैठे हुए का प्रतीक है दूसरी ओर षिव के माथे का तिलक विष्णु के हमेषा शेष शय्या पर लेटे रहने का प्रतीक है। यहां तक कि विष्णु अपने समस्त अवतारों में षिव की महिमा को स्थापित करते हैंंं और विष्णु के प्रत्येक अवतार में षिव किसी न किसी रूप में उनके सहायक होते हैं। अध्ययन के इस दृषिटकोण के अनुसार शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के क्षेत्र एक दूसरे से सर्वथा विपरीत मार्गी है और महत्त्वपूर्ण सन्दभोर्ं में ये दोनों मत हिन्दुत्व के दो भिन्न दर्षनों का प्रतिनिधित्व करते हैंं, तथापि दोनों ही सम्प्रदाय हिन्दू मतावलंबियों के लिये धर्म की स्थापना और उसके उत्थान पर केनिद्रत रहते हुए विष्व में सामाजिक व्यवस्था बनाये रखकर जन्म-मरण के बंधन से मोक्ष को अनितम लक्ष्य निर्धारित करते हैंं। अत: इस अध्याय के शीर्षक के अनुरूप हम इस मत का कठोरता से नकारते हैं कि, शैव और वैष्णव मत परस्पर विरोधी है। यह विरोध केवल मठाधीषों के स्वार्थपरक प्रभुत्व की महत्त्वाकांक्षा जनित है।
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1. ़यजुर्वेद 31 ;1.16
सहस्रषीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्रपात।
स भूमिं सर्वतस्पृत्वा•त्यतिष्ठíषा³गुलम।।1।।
पुरुष एवेदसर्वं य˜ूतं यच्च भाव्यम।
उतामृतत्वस्येषानो यदन्नेनातिरोहति।।2।।
एतावानस्य महि∙मातो ज्यायांंष्च पुरुष:।
पादो•स्य विष्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।3।।
त्रिपादूध्र्वं उदैत्पुरुष: पादो•स्येहाभवत्पुन:।
ततो विष्व³ व्यक्रामत्साषनानषने अभि।।4।।
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुष:।
स जातो अत्यरिच्यत पष्चा˜ूभूमिमथो पुर:।।5।।
तस्माधज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृष्दाज्यम।
पषुंंंस्तांंंष्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याष्च ये।।6।।
तस्माधज्ञात्सर्वहुत: ऋच:सामानि जज्ञिरे।
íन्दासि जज्ञिरे तस्माधजुस्तस्मादजायत।।7।।
तस्मादष्वा अजायन्त ये के चोभयादत:।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावय:।।8।।
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन पुरुषं जातमग्रत:।
हिन्दुत्व का इतिहास
(र्इसा पूर्व दूसरी तथा पष्चातवर्ती चौथी षताब्दी)
प्रमुख सम्प्रदायों (षैव, शाक्त तथा वैष्णव) का उ˜व
ऋग्वैदिक काल के अन्त मेंं वैदिक देवता रुæ का महत्व बढ़ना प्रारम्भ हुआ। श्वेताष्वतरोपनिषद के अनुसार रुæ को पहली बार षिव कहा गया और विष्व का जनक, पालक और संहारक बताया गया और उसके अनुयायियों द्वारा भäपिूर्वक उसकी पूजा प्रारम्भ की गयी। इस काल मेंं जनसाधारण में अपने आप को एक धार्मिक संस्था मेंं परिवर्तित करने की प्रवृत्ति का विकसित होना स्वयंसिद्ध है। यधपि शैव और वैष्णव मतावलमिबयों के समूहों ने एक आकार लेना प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु सही अथोर्ं मेंं बौद्ध और जैन सम्प्रदायाें ने शैव और वैष्णव मतावलंिबयों को आत्यनितक रूप से एक धार्मिक संस्था के रूप मेंं संगठित होने का मार्ग प्रषस्त किया। अलग-अलग पंथों के इन श्रद्धालुओं के स्थानीय संगठन नये सम्प्रदायों के विस्तार मेंं प्रमुख घटक प्रतीत होते हैं। इस समय तक आसितक योगियों और तपसिवयों की संख्या अत्यन्त कम है किन्तु शैव सम्प्रदाय के संन्यासियों की पाषुपत के नाम से बहुतायत मेंं उपसिथति सिद्ध होती है।
र्इसा से 185 वर्ष पूर्व मौर्य साम्राज्य के पतन और र्इस्वी संवत 320 में गुप्त साम्राज्य के उत्थान अर्थात 505 वषोर्ं के मध्य एक काफी बड़ा परिवर्तन हुआ। भारत की तत्कालीन सुदूर पषिचमी सीमा पर निरन्तर होने वाले आक्रमण हुए और काफी बड़ा भू-भाग आक्रमणकारियों ने जीत लिया। वे जीते हुए भाग न केवल पषिचमी आक्रान्ताओं बल्की रोमन साम्राज्य सहित समुæी व्यापार करने वाले अन्य देषाें के लियेे भी भारत मेंं आने के लियेे ऐसे द्वार सिद्ध हुए जैसे पहले कभी नहींं था। नये सम्पकोर्ं का प्रभाव कला और वास्तु पर सुस्पष्ट है। पाकिस्तान मेंं रावलपिण्डी के समीप तक्षषिला मेंं सबसे पुराने मनिदर मेंं हुए उत्खनन से प्रकट हुआ है कि, र्इसा से 100 वर्ष पूर्व भवन निर्माण की गांधार शैली का विकास इस क्षेत्र मेंं हुआ और इसमेंं रोम तथा हेलेना की मूल भवन निर्माण कला का समावेष प्रमुखत: बौद्ध विहारों मेंं किया गया। इससे पूर्व या तो मनिदरों का असितत्व नहीं था, क्योंकि उनका कोर्इ अवशेष ज्ञात नहींं हुआ है फिर भी साहितियक साक्ष्य उनका असितत्व बताती है, अत: संभव है कि, तब तक हिन्दू मनिदर लकड़ी के बनाये जाते रहे होंगे।
गुप्त साम्राज्य के आरम्भ मेंं पुराने वैदिक धर्म के साथ एक नये सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ और हिन्दुत्व की दो मुख्य शाखाओंं को पूर्ण पहचान प्राप्त हुयी। वैष्णव सम्प्रदाय को गुप्त वंष के सम्राटों का समर्थन प्राप्त था और उन्होंने परमभागवत अर्थात विष्णु के अनन्य भä की उपाधि धारण की। इस काल मेंं विष्णु के अनेक मनिदर बने और विष्णु के अवतारों को काफी मान्यता मिली। तथापि विष्णु के 10 अवतारों (मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परषुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और भावी अवतार कल्की) मेंं से केवल दो अवतारों की पूजा अधिक हुयी। ये दो अवतार महाभारत के नायक Ñष्ण और पृथ्वी के उद्धारक वराह के थे। इन दोनों अवतारों के गुप्तकाल के अनेक आकर्षक चित्रप्रतिरूप प्राप्त हुए हैंं।
शैव सम्प्रदाय भी भारतीय धार्मिक जीवन मेंं एक उभरती हुयी शä थि। दूसरी शताबिद के लकुलीष द्वारा प्रवर्तित पाषुपत योगियों का असितत्व भी 5वीं शताबिद के अंकन और षिलालेखों द्वारा अनुमोदित है और हिन्दुत्व के प्रारमिभक साम्प्रदायिक और धार्मिक अनुक्रम की कड़ी मेंं से एक है। र्इस्वी सन 100 के लगभग कुषाण कालीन सिक्कों पर षिव के पुत्र स्कन्द (जिसे कार्तिकेय अर्थात युद्ध का देवता भी कहा जाता है, की छवि अंकित होना शैव सम्प्रदाय का ही प्रतिनिधित्व करती है। षिव के दूसरे पुत्र गणेष जो व्यापारिक और साहितियक उपक्रमों का संरक्षक देवता है, का 5़वीं शताबिद तक प्राकटय नहींंं हुआ। इस काल मेंं सूर्य बहुत महत्वपूर्ण देवता है। यधपि आज सूर्य पूजा का वह रूप नहीं रहा और अधिकांष हिन्दुओं द्वारा उसकी बहुत कम पूजा अर्चना की जाती है किन्तु उस काल मेंं न केवल पूजा अर्चना वरन अनेक सूर्य मनिदरों का निर्माण होना उसके महत्त्व और सम्मान का प्रतीक है। सूर्य उपासना की धारणा और उसका मूल कारण तो वैदिक ऋचाएं हैं, किन्तु बाद मेंं र्इरानी प्रभाव के आवरण मेंं सूर्य उपासना छिप गयी प्रतीत होती है।
इसी काल मेंं अनेक देवियों का महत्त्व भी बढना प्रारम्भ हुआ। हालांकि देवियां हमेषां स्थानीय सम्प्रदायों मेंं लोकप्रिय और पूजित रहीं और वैदिक धर्म मेंं उनकी भूमिका तुलनात्मक दृषिट से कम महत्त्व की रही। विष्णु की भार्या और भाग्य की देवी लक्ष्मी र्इसार्इ संवत प्रारम्भ होने से पूर्व पूजी जाती रही। इसी प्रकार अन्य कर्इ देवियां भी गुप्त काल मेंं असितत्व मेंं थी। लेकिन षिव की पत्नी दुर्गा का महत्त्व चौथी शताबिद मेंं ही बढ़ना प्रारम्भ हुआ और शä सिम्प्रदाय का विकास मध्य काल तक स्थान नहींं पा सका।
हिन्दुत्व के विकास और सांस्Ñतिक पृष्ठभूमि के इतिहास के संबन्ध मेंं चिन्तन करते हैंंं तो न्यायसिद्ध काल की चर्चा अनायास, किन्तु एक आवष्यकता के रूप मेंं सामने आती है। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर हिन्दुत्व का स्रोत तलाष करने के लियेे यह समय वैदिक व पौराणिक काल के बाद हठात उपसिथत होता है जहां से हिन्दुत्व के बीज का अंकुरण दिखार्इ पड़ता है। भारतीय विचारधारा का न्यायसिद्ध काल पहली से दूसरी शताबिद के मध्य कुषाणों के साथ प्रारम्भ हुआ। गौतम द्वारा प्रवर्तित न्यायसूत्र (जो संभवत: र्इसार्इ संवत के प्रारम्भ मेंं असितत्व मेंं आया) और 5वीं शताबिद मेंं न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने न्यायसिद्धान्त की आधारषिला रखी, जो आत्यनितक रूप से तर्क और जानकारी के विषयों से आच्छादित था। बौद्धपंथ मेंं मध्यम मार्ग अथवा शून्यवाद का आविर्भाव इस काल मेंं उदय हुआ और शून्यवाद के प्रबल समर्थक नागाजर्ुन के विचारों को बहुत अधिक मान्यता मिली। हालांकि बौद्ध मत के न्याय सिद्धान्त का वास्तविक और कठोर अथोर्ं मेंं कोर्इ असितत्व नहींं था लेकिन वैचारिक सम्प्रदायों मेंं दार्षनिकता की न्यायिक शैली का असितत्व अवष्य था।
गुप्त साम्राज्य के दौरान, ब्राह्राणवाद एक परिष्Ñत तथा अधिक शालीन रूप मेंं पुनर्जीवित हुआ। भगवान Ñष्ण को मध्य मेंं रखकर और क्रियाओं के कर्म से संन्यास की वकालत करते हुए वासुदेव सम्प्रदाय का वैष्णव मत तथा शैव पंथ भी बौद्ध और जैन पंथों के साथ साथ समृद्ध हुए। बौद्ध धर्म की दोनों शाखाओंं अर्थात महायान और हीनयान ने इस समय काफी उन्नति की। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह था कि बौद्ध सम्प्रदाय मेंं योगाचार शाखा का उदय हुआ, जिसके चौथी शताबिद मेंं असंग और उसका भार्इ वासुबन्धु महान पथ प्रदर्षक थे। पांचवी शताबिद के अन्त मेंं दि³नाग नामक बौद्ध तर्कषास्त्री ने ‘प्रमाणसमुच्चय नामक सत्य ज्ञान के अर्थ का सार लिखा, जो बौद्ध सम्प्रदाय की विचारधारा और उसके आधार के संबन्ध मेंं किया गया कार्य था।
भारतीय दर्षन से संबद्ध महान हसितयां गुप्तकाल के पष्चात 7वीं से 10वीं शताबिद के मध्य हुयीं। तत्समय बौद्ध सम्प्रदाय का उतार और तानित्रक सम्प्रदाय का उदय हो रहा था। एक ऐसी सिथति आयी कि जिसने बौद्ध सम्प्रदाय मेंं भी तन्त्र साधना का अध्याय खोल दिया। काष्मीर मेंं शैव सम्प्रदाय का वर्चस्व दिनोंदिन बढ रहा था और भारत के दक्षिण मेंं वैष्णव मत का प्रचार हो रहा था। महान दार्षनिक और मीमांसक कुमारिल (7वीं शताबिद), प्रभाकर (7-8वीं शताबिद), मण्डन मिश्र (8वीं षताबिद), शालिकनाथ (9वीं शताबिद) और पार्थसारथी मिश्र (10वीं शताबिद) इस कालखण्ड मेंं हुए। फिर भी यह कहा जा सकता है कि, इस काल के महानतम दार्षनिक की उपाधि शंकराचार्य को दी गयी। इन सभी ने गैर सनातनपंथी सम्प्रदायों के विरुद्ध और विषेषतौर पर बौद्ध सम्प्रदाय की आलोचनाओं के विरोध मेंं ब्राह्राणवाद का पक्ष लिया। इस काल मेंं न्याय शाखा के तत्कालीन दार्षनिक वाचस्पति मिश्र, उदयानाचार्य और उडियातकारा के द्वारा ब्राह्राणवाद और बौद्ध सम्प्रदाय के मध्य तार्किक स्तर पर बहस चलती रही।
दर्षन आधारित धार्मिक संक्रानित के इस काल मेंं मनिदरों के निर्माण की एक अनूठी कड़ी है, जिसका उल्लेख अपरिहार्य रूप से आवष्यक हो जाता है। अगले कुछ पृष्ठों में हम इसकी चर्चा करते हैं।
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मनिदरों का निर्माण
(11वीं से 19वीं शताबिद)
पौराणिक सन्दर्भ मेंं देखा जावे तो मनिदरों का निर्माण, उनकी संख्या और बनावट के विषय मेंं यही कहा जा सकता है कि, यधपि मनिदरों का असितत्व था तो सही किन्तु उनका उल्लेख इतना कम है कि, निषिचत रूप से यह कहा जा सकता है कि, लोकजीवन मेंं मनिदरों का महत्त्व उतना नहींं था जितना आत्मचिन्तन और मनन का। अधिकांष मनिदर व्यäगित उपासना स्थलों के रूप मेंं थे। यही कारण जान पड़ता है कि, मनिदरों के असितत्त्व का सार्वजनिक असितत्त्व दृषिटगोचर नहींं होता। रामायण काल मेंं श्रीराम अपने महल मेंं ही एक विषेष भाग मेंं अपने पूर्वजों की प्रतिमाओं के समक्ष समय-समय पर उनके आषीर्वाद और मार्गदर्षन के निमित्त प्रार्थना करने जाते हैंं और स्वयंवर से पूर्व सीता भी अपनी सखियों और दासियों के साथ गौरी पूजा के लियेे राजा जनक के महलों की वाटिका मेंं ही सिथत गौरी मनिदर मेंं पूजा के लियेे जाती हैं, किन्तु अयोध्या या जनकपुरी मेंं किसी अन्य मनिदर का उल्लेख नहींं होना उस काल मेंं मनिदरों के असितत्व के संबन्ध मेंं इंगित करता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि, राजा जनक को वैष्णव अर्थात विष्णु भä बताया गया है किन्तु उनके प्रासाद या वाटिका मेंं गौरी का मनिदर किस तथ्य की ओर इंगित करता है? क्योंकि ऐसे षिव मनिदर तो हैंं जिनमेंं सती अथवा षिव परिवार के अन्य सदस्य नहींं है किन्तु केवल सती अथवा पार्वती का कोर्इ भी मनिदर नहींं है। कामरूप कामाख्या, हिंगलाज, ज्वाला, नैना और वैष्णोदेवी आदि षä पिीठाें को सती मनिदर कहा जावे तो बात और है। इसी प्रकार महाभारत मेंं यधपि बहुचर्चित किन्तु मात्र दो घटनाओं में Ñष्ण के साथ रूक्मणी और अजर्ुन के साथ सुभद्रा के भागने के समय दोनों ही नायिकाओं द्वारा देवी पूजा के लियेे वन मेंं सिथत गौरी माता (माता पार्वती) के मनिदर की चर्चा है।
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताबिद) मेंं मनिदरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृषिट मेंं आता है। पहले लकड़ी के मनिदर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और र्इंट से मनिदर बनने लगे। 7वीं शताबिद तक देष के आर्य संस्कृति वाले भागों मेंं पत्थरों से मनिदरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताबिद मेंं गुप्तकाल मेंं मनिदरों का निर्माण बहुत æ्रुत गति से हुआ। मूल रूप से हिन्दू मनिदरों की शैली बौद्ध मनिदरों से ली गयी होगी जैसा कि उस समय के पुराने मनिदरो मेंं मूर्तियों को मनिदर के मध्य मेंं रखा होना पाया गया है और जिनमेंं बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था। गुप्तकालीन बचे हुए लगभग सभी मनिदर अपेक्षाकृत छोटे हैं जिनमें काफी मोटा और मजबूत कारीगरी किया हुआ एक छोटा केन्द्रीय कक्ष है, जो या तो मुख्य द्वार पर या भवन के चाराें ओर बरामदे से युä है। गुप्तकालीन आरमिभक मनिदर, उदाहरणार्थ सांची के बौद्ध मनिदरों की छत सपाट है; तथापि मनिदरों की उत्तर भारतीय षिखर शैली भी इस काल मेंं ही विकसित हुयी और शनै: शनै: इस षिखर की ऊंचार्इ बढती रही। 7वीं शताबिद मेंं बौद्ध गया मेंं निर्मित बौद्ध मनिदर की बनावट और ऊंचा षिखर गुप्तकालीन भवन निर्माण शैली के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करता है।
बौद्ध और जैन पंथियों द्वारा धार्मिक उíेष्यों के निमित्त Ñत्रिम गुफाओं का प्रयोग किया जाता था और हिन्दू धर्मावलंबियों द्वारा भी इसे आत्मसात कर लिया गया था। फिर भी हिन्दुओं द्वारा गुफाओं मेंं निर्मित मनिदर तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं और गुप्तकाल से पूर्व का तो कोर्इ भी साक्ष्य इस संबन्ध मेंं नहींं पाया जाता है। गुफा मनिदरों और षिलाओं को काटकर बनाये गये मनिदरों के संबंध में अधिकतम जानकारी जुटाने का प्रयास करते हुए हम जितने स्थानों का पता लगा सके वो पृथक सूची में सलंग्न की है। मæास वर्तमान ‘चेन्नर्इ के दक्षिण मेंं पल्लवों के स्थान महाबलिपुरम मेंं, 7वीं शताबिद मेंं निर्मित अनेक छोटे मनिदर हैं जो चटटानों को काटकर बनाये गये हैंंं और जो तमिल क्षेत्र मेंं तत्कालीन धार्मिक भवनों का प्रतिनिधित्व करते हैंंं।
मनिदरों का असितत्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंष के समय से देखने को मिलती है। यह कहना अतिषयोä निहींं होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मनिदरों का महत्त्व और उनके आकार मेंं उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विषेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत मेंंं हिन्दू मनिदरों की उत्Ñष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेष के खजुराहो में देखने को मिलती है। उड़ीसा के भुवनेष्वर मेंं सिथत लगभग 1000 वर्ष पुराना लिंगराजा का मनिदर वास्तुकला का सर्वोत्Ñष्ट उदाहरण है। हालांकि, 13वीं षताबिद मेंं निर्मित सूर्य मनिदर कोणार्क इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और विष्व विख्यात मनिदर है। इसका षिखर इसके आरंमिभक दिनों मेंं ही टूट गया था और आज केवल प्रार्थना स्थल ही षेष बचा है। काल और वास्तु के दृषिटकोण से खजुराहो के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मनिदर 11वीं षताबिद मेंं बनाये गये थे। गुजरात और राजस्थान मेंं भी वास्तु के स्वतन्त्रष्षैली वाले अच्छे मनिदरों का निर्माण हुआ किन्तु उनके अवशेष उड़ीसा और खजुराहो की अपेक्षा कम आकर्षक हैं। प्रथम दषाब्द के अन्त मेंं वास्तु की दक्षिण भारतीय षैली तन्जौर (प्राचीन नाम तन्जावुर) के राजराजेष्वर मनिदर के निर्माण के समय अपने चरम पर पहुंच गयी थी। अध्ययन की सुविधा के दृषिटकोण से भगवान व राजा और मनिदर व महलों में समानता का अध्ययन हम अगले पृष्ठों में करेंगें।
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भगवान व राजा और मनिदर व महलों मेंं समानता
अध्ययन और आंकलन से एक अदभुत तथ्य यह प्रकट होता है कि मनिदरों मेंं धार्मिक रीति से भगवान की पूजा इस प्रकार की जाती थी जैसे कि पूजा करने वाले किसी महान राजा की सेवा कर रहे हों। प्रमुख मनिदरों मेंं आम लोगों सहित प्रषिक्षित पुजारियों की एक बड़ी संख्या पूजा के समय उपसिथत हुआ करती थी। भगवान को प्रात:काल उनकी भार्या के साथ जगाया जाकर नहलाने और कपडे़ पहनाने के पष्चात भोग लगाया जाता और इसके बाद गर्भगृह मेंं आम जनता के दर्षनार्थ लाया जाकर दिनभर पूजा अर्चना की जाती और धार्मिक अनुष्ठानपूर्वक भोग लगाकर और परिधान बदलकर रात्रि मेंं सुलाया जाता। उपासक दीपक जलाकर आरती उतारते, भजन गाते तथा अन्य प्रकार से श्रद्धा अर्पित करते। भगवान की देवदासियां निरन्तर उसके सम्मुख नृत्य प्रस्तुत करतीं जिसे उसके पुजारियों तथा मनिदर मेंं उपसिथत होने वाले सर्व साधारण उपासकों द्वारा देखा जाता। र्इस्वी संवत के प्रारम्भ होने से पूर्व कुछ हिन्दू मठों मेंं इन देवदासियों को वेष्याओं के रूप मेंं भी प्रयोग किया जाता रहा जो गुप्त काल के पष्चात विषेषत: दक्षिण भारत मेंं अधिक फैला और जो 19वीं षताबिद मेंं योरोपियन अत्याचार का जनक भी रहा। हिन्दू सुधारवादी नेता और सन्तों के प्रयासों के परिणामस्वरूप देवदासी प्रथा मेंं किसी नवीन कड़ी का जुड़ना यधपि 20वीं षताबिद मेंं स्पष्टत: सामने नहींं आया किन्तु इसके अवशेष वर्ष 2000 के अन्त तक विधमान रहे। इतिहास, कला, विज्ञान और संस्Ñति आधारित कार्यक्रम और वृत्तचित्र प्रदर्षित करने वाले प्रसिद्ध व लोकप्रिय दूरदर्षन चैनल ‘डिस्कवरी पर माह नवम्बर-दिसम्बर 2000 में देवदासियों पर तैयार वृत्तचित्र में सर्वाधिक वृद्ध देवदासी व उसकी सन्तानों की जानकारी दिया जाना इसका प्रमाण है।
मनिदरों और राजमहलों की समानता के परिप्रेक्ष्य मेंं देवदासियों की भूमिका को भलीभांति समझा जा सकता है। भारत मेंं राजा को भगवान का अंष माना जाता था। यह धारणा कमोबेष 20वीं षताबिद के अन्त तक पोषित होती रही है और अब भी विष्व मेंं जहां-जहां राजतन्त्र है वहां राजा को भगवान का दर्जा दिया जाता है। (सितम्बर 2001 में संयुक्त राष्ट्रसंघ मिषन, बोस्नीया और हरजे़गोविना में पदस्थापन के दौरान इग्लैण्ड के दो सहयोगियों पीटर व एरिक से राजतन्त्र बनाम लोकतन्त्र विषय पर वाद विवाद के दौरान इंग्लैण्ड की महारानी के विरुद्ध बोलने पर वे दोनों मुझपर बहुत अधिक कुपित हो गये थे। स्टेषन कमाण्डर गियर्सन एण्डी के हस्तक्षेप से सिथति नियनित्रत हुर्इ और तीखे वाद विवाद की सूचना पर मिषन ंके मुख्यालय अधिकारियों द्वारा एक आदेष निकाला जाकर धर्म और राजनीति पर चर्चा को प्रतिबनिधत किया गया।) मनिदरों मेंं स्थापित भगवान ही की भांति हिन्दू राजा भी नृत्यांगनाएंं रखते थे जो उनके दरबार मेंं देवदासियों की तर्ज पर ही अपनी सेवाएं अर्पित करती थीं। रथयात्रा के रूप मेंं राजमहलों और मनिदरों के मध्य भी समानता द्रष्टव्य है कि, उत्सव, पर्व एवं त्यौहारों के दिन, राजा अपने सभासदों, सेेना की टुकडि़यों व संगीतज्ञों से घिरे हुए महलों से बाहर आकर नगर परिक्रमा करते थे। इसी भांति किसी प्रतिषिठत और बड़े मनिदर के भगवान को एक विषाल और सुसजिजत चलते-फिरते मनिदर और रथ मेंं बैठाकर आस-पास के छोटे मनिदरों के भगवानों सहित एक भव्य जुलूस के रूप मेंं नगर परिक्रमा करवायी जाती थी। उस रथ को जनसमुदाय द्वारा श्रद्धापूर्वक खींचा जाता था। इसका सुविख्यात उदाहरण उड़ीसा के पुरी सिथत भगवान जगन्नाथ की वार्षिक रथयात्रा है। कालान्तर मेंं राजा महाराजाओं के जनता दर्षन तो समाप्त होे गये और वर्ष 1950 मेंं भारत के गणतानित्रक होने के पष्चात उन राजाओं का स्थान नवनिर्वाचित नेताओं ने ले लिया और उनकी नगर परिक्रमा का स्वरूप भी लोकतानित्रक हो गया।
भगवान व राजाओं की शोभायात्रा तथा उनका वर्तमान स्वरूप
मनिदरों मेंं स्थापित भगवान की षोभायात्राओं पर भी समय का प्रभाव तो पड़ा किन्तु एक बड़ा अन्तर यह हुआ कि वे बड़े मनिदर जिनके लियेे राज्य द्वारा उनके बन्दोबस्त के लियेे गांवों मेंं जागीरें दी हुयी थी और पुण्यार्थ किये जाने वाले दान तथा श्रद्धालुओं द्वारा चढार्इ जाने वाली भेंट से जिनका आर्थिक स्तर चरम पर था, ऐसे मनिदरों के भगवान की षोभायात्राएंंं तो दिनाेंदिन और अधिक भव्य होती गयी, साथ ही ऐसे छोटे मनिदर जो कालान्तर मेंं समृद्ध हो गये, उनकी भी पृथक षोभायात्राएं प्रारम्भ हो गयीं और इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। (यह और बात है कि, आज निकाली जाने वाली धार्मिक षोभारथयात्राओं का आधार धार्मिक कम और जातिगत गणषä प्रिदर्षन होकर अन्ततोगत्वा राजनैतिक षäयिें का ध्यानाकर्षण अधिक है)। उन बड़े और आर्थिक रूप से समृद्ध मनिदरों की अतुल सम्पत्ति 11वीं षताबिद मेंं मुहम्मद गौरी और महमूद गजनवी के आक्रमणों के कारणों मेंं एक महत्त्वपूर्ण कारण था। इन मनिदरों की सम्पत्ति जनकल्याण मेंं खर्च की गयी हो ऐसा एक भी दृष्टान्त इतिहास मेंं देखने मेंं नहींं आता। किन्तु इन मनिदरों मेंं आने वाले चढ़ावे को लेकर पुजारियों मेंं होने वाले झगड़़ों ने वंष परम्परा से प्राप्त होने वाले पूजा के अधिकार का एक नया अध्याय अवष्य खोल दिया। अब इन मनिदरों की पूजा एक स्वषासित कमेटी द्वारा की जाती है, जिसकी सदस्यता सामान्यत: एक वंषानुगत विषेषाधिकार है और उनका मुखिया असाधारण अधिकारोंं से युä प्रभुत्व सम्पन्न व्यä हिेता है। दक्षिण भारत मेंं ऊंची-ऊंचीं प्राचीरों वाले विषालकाय मनिदर अब भी अपने आप मेंं एक नगर की भांति हैं, जिनमेंं केन्æ्रीयÑत गर्भगृह के अतिरिä अनेक छोटे गर्भगृह, बडे-बड़े स्नानघर, प्रषासनिक कार्यालय, मनिदर मेंं काम करने वाले अनुचरों के घर, बाजार, कार्यषालाएं तथा अनेक प्रकार के जनोपयोगी भवन हैं। क्योंकि ये मनिदर आम जनता की एक बड़ी संख्या के नियोäा थे और काफी बड़े बड़े भू भागों पर इनका स्वामित्व था, अत: तत्कालीन अर्थव्यवस्था मेंं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। विधालय, चिकित्सालय, धर्मषाला, गरीबों के लियेे आश्रय स्थल, बैंक और सामुदायिक स्थानों के रूप मेंं इन मनिदरों का सामाजिक क्षेत्र मेंं भी मूल्यवान योगदान रहा। 000
मुसिलम धर्म का प्रभाव
मुसिलम आक्रान्ताओं के आक्रमण से पूर्व, द्रविड़ों की सीमा के परे दक्षिण भारतीय भकित षैली का प्रसार होना प्रारम्भ हो गया था। 11वीं शताबिद मेंं तिरुचनापल्ली के निकट श्रीरंगम के वैष्णव मनिदर के प्रमुख पुजारी तमिल ब्राह्राण रामानुज सहित पंचरात्र और भागवत सम्प्रदाय के केन्द्रीय वैष्णव पंथियों ने वैष्णव सम्प्रदाय और दर्षन के प्रचार प्रसार को गति दी और इससे शैव सम्प्रदाय पर भी आंषिक प्रभाव पड़ा। दो अन्य वैष्णव आचार्य भी उल्लेखनीय है। प्रथमत: निम्बार्काचार्य जो कि 12वींं 13वींं शताबिद के तेलगू ब्राह्राण थे, ने राधा-Ñष्ण की भकित का पंथ चलाया। इस पंथ को मथुरा मेंं अधिकाधिक लोगों ने अपनाया, किन्तु अन्य स्थानों पर इसका प्रभाव आंषिक ही रहा।
दूसरा उल्लेखनीय नाम वर्ष 1479-1531 के मध्य वल्लभ सम्प्रदाय के जनक वल्लभाचार्य का है, जिन्होंने र्इष्वरीय उपकार के वैष्णव सिद्धान्त को अपनाया। यह सम्प्रदाय अधिक प्रख्यात नहींं हुआ क्योंकि इसमेंं गुरू की आज्ञापालन पर आत्यनितक रूप से जोर दिया जाता है। प्रारमिभक काल मेंं यह वरिष्ठ संन्यासियों (जिन्हेंं गोस्वामी कहा जाता था) के द्वारा संचालित किया जाता था, जिनमेंं से अधिकांष बहुत अधिक धनवान हो गये। यह वल्लभ सम्प्रदाय एक समय उत्तर पषिचमी भारत मेंं बहुत अधिक प्रभावषाली हो गया था, किन्तु 19वीं शताबिद मेंं वल्लभाचार्य के उत्तराधिकारी के विरुद्ध बहुत अधिक कानूनी विवादों के कारण इसका प्रभाव कम हो गया।
वैदिक और पौराणिक रूद्र और षिव के उपासकों की एक शकितषाली श्रंृखला पर दृषिट न डालें और ऐतिहासिक गवेषणा करें तो शैव सम्प्रदाय का वास्तविक विकास भी 10वीं शताबिद के पष्चात प्रकट होता है। दक्षिण भारत मेंं शैव सिद्धान्त नामक सम्प्रदाय का उदभव हुआ, जोे अब तक उस क्षेत्र मेंं प्रचलित सम्प्रदायों मेंं विषेष स्थान रखता है और शंकराचार्य के सिद्धान्त के विपरीत र्इष्वर और आत्मा के असितत्त्व को पूर्णतया स्वीकार नहींं करता। 9वीें शताबिद के आरम्भ मेंं शैव सम्प्रदाय के पूर्णरूपेण अद्वैतवादी पंथ का उदभव कष्मीर मेंं हुआ। इस पंथ का सिद्धान्त तथा शंकराचार्य के सिद्धान्त मेंं प्रमुख अन्तर यह था कि यह पंथ आत्मा के आत्यनितक स्वरूप के असितत्त्व को मानता है, जो कि भगवान शंकर है न कि ब्रहमा।
12वीं शताबिद मेंं दक्षिण के कन्नड़भाषी क्षेत्र मेंं लिंगायतों का एक महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प सम्प्रदाय भी पाया जाता ह,ै जिसे वीर शैव सम्प्रदाय भी कहते हैंं। इसके प्रवर्तक बासवा ने आष्चर्यजनक गैररुढि़वादी सिद्धान्तों और व्यवहारों की षिक्षा दी। उन्होंने सभी प्रकार की मूर्तिपूजा का विरोध किया और केवल षिवलिंग को पवित्र प्रतीक माना। वीर शैव पंथ ने वेदों, ब्राह्राणों के पूजावाद और समस्त जातिभेदों को अस्वीकृत किया। अनेक लिंगायत पद्धतियांं अब त्याग दी गयी हैं और विधवा विवाह तथा मृतकों को दफनाने जैसी प्रथा अब नहींं है।
मुसिलम आधिपत्य ने भारत को एक अलग प्रकार के और उग्र धर्म के साथ खड़ा कर दिया। इन परिसिथतियों मेंं एक केन्द्रीयÑत धार्मिक अधिकारिता के अभाव मेंं हिन्दुत्व षकित का एक स्रोत बन गया। पुरोहित या पारिवारिक पुजारी जो आम आदमी के घरेलू धार्मिक अनुष्ठान और व्यकितगत पवित्र संस्कार पूर्ण करवाते थे वे अपना कार्य करते रहे। मुसिलम आधिपत्य वाले क्षेत्रों मेंं मनिदराें का काफी नुकसान हुआ। वाराणसी और मथुरा के पवित्र नगरों मेंं 17वीं षताबिद के पूर्व तक कोर्इ बड़ा मनिदर हम इतिहास मेंं नहींं पाते। यही बात उत्तरी भारत के अन्य धार्मिक केन्द्रों के बारे मेंं भी सत्य हैं, किन्तु उत्तरी भारत मेंं जहां मुसिलम प्रभाव कम था वहां ऐसा नहींं था जैसे उडि़सा, राजस्थान (उस समय जो भी संज्ञा रही हो) और दक्षिणी भारत में।
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उत्तरन्यायसिद्ध काल (11वीं षताबिद)
11वीं शताबिद तक भारत मेंं मुसिलम साम्राज्य अपने पांव पसार चुका था। तब तक बौद्ध धर्म व्यावहारिक रूप से भारत से लुप्त हो गया था तथापि 11वीं शताबिद के हिन्दू साहित्य मेंं यह प्रकट होता है कि, बौद्ध विचारधारा हिन्दुत्व मेंं आत्मसात हो चुकी थी और बुद्ध को विष्णु का एक अवतार बताया जाकर उसे दृढतापूर्वक हिन्दुत्व की पहचान दी गयी। मुसिलम विजेताओं के आगमन ने सनातन पंथी विचारधारा को नयी सिथति के अनुरूप स्वयं मेंं सामंजस्य की आवष्यकता को उत्पन्न किया। किन्तु जैसा कि 11वीं शताबिद मेंं प्रभाचन्द्र द्वारा रचित ”प्रमेयकमलमार्तण्ड (सत्य ज्ञान के वस्तु कमल का सूर्य) तथा 12वीं शताबिद मेंं देवासुर द्वारा रचित ”प्रमाणान्यतत्त्वलोकालंकार (सत्य ज्ञान के साधनों के संबन्ध मेंं विभिन्न दृषिटकोण तथा सत्य के प्रकाष का आभूषण) से प्रकट होता है कि, गैर सनातन पंथी शाखा जैन सम्प्रदाय पुन: अपने शुद्ध रूप मेें रहा। 850 से 1279 र्इस्वी संवत मेंं तथा बाद मेंं विजयनगर राज्य मेंं (जो 16वीं शताबिद के मध्य मेंं उत्तरी भारत के मिथिला के साथ-साथ हिन्दुत्व का मजबूत गढ़ रहा) वैष्णव मत का बोलबाला रहा। 1050 र्इस्वी संवत मेंं यामुनाचार्य ने ”प्रपत्ति अर्थात र्इष्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की षिक्षा दी। 11वीं शताबिद मेंं दार्षनिक रामानुज और 12वीं शताबिद मेंं निम्बार्काचार्य ने वेदान्त के आसितकवाद को विकसित किया और शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त की बारम्बार कटु आलोचना की। 12वीं शताबिद के अन्त मेंं बंगाल और मिथिला मेंं धार्मिकषास्त्रों की तार्किक रचनाओं के संबन्ध मेंं उच्चस्तरीय रचनात्मक कायोर्ं की शुरूआत हुर्इ। विचारधाराओं की नवीन शाखाओंं मेंं 12वीं 13वीं शताबिद के दार्षनिक गांगेसा द्वारा रचित ”तत्त्वचिन्तामणि ने नव्यन्याय शाखा की आधारषिला रखी, जिसके चार महान विचारक मिथिला के पक्षधर मिश्रा और उनके बाद 16वीं शताबिद मेंं वासुदेव सार्वभौम तथा उनके दो बंगाली षिष्य रधुनाथ षिरोमणि व गदाधर भटटाचार्य हुए।
साहित्यकारों के अनुसार शैव सम्प्रदाय मेंं एक बहुत महत्त्वपूर्ण व्यäत्तिव गोरक्षनाथ की उपसिथति 11वींंं से 13वींं शताबिद (यह अब तक विवादित है इस विषय पर हमने ‘गोरक्षनाथ नामक अध्याय मेंं पृथक से विवेचना की है) मेंं पायी जाती है, जो अपने अदभुत व्यäत्तिव और आष्चर्यजनक अविष्वसनीय चमत्कारी शäयिें के कारण समस्त शैव संन्यासियों के शीर्षस्थ गुरु बन जाते हैंं। वस्तुत: यह अविवादित रूप से सर्वमान्य है कि आदिनाथ महादेष शंकर द्वारा प्रवर्तितसंस्थापित सिद्धयोग के अनुयायी तथा वाहक हैं। सिद्धयोग के दो सोपान क्रमष: हठयोग तथा राजयोग हैं। हठयोग शरीर की जड़ता को समाप्त कर काया को रोगरहित करने वाला तथा द्वितीय राजयोग मन व बुद्धि को सिथर कर आत्मा, जीवात्मा व परमात्मा की एकात्मता के योग्य बनाने वाला है। उल्लेखनीय है कि राजयोग की सिथति प्राप्त करने से पूर्व योगी को हठयोग की कठिन व दीर्घ प्रकि्रया से गुजरना होता है। राजयोग की सिथति तक पहुुंचने वाले योगी विरले होते हैं और इस दीर्घकाल तक चलने वाला हठयोग ही वर्तमान में गोरक्षनाथी सम्प्रदाय के रूप मेंं प्रसिद्ध हो गया है जो भ्रानितपूर्ण है। सिद्धयोग का यह प्रथम सोपान हठयोग, जिसमेंं विकट शारीरिक व्यायाम निहित है, पाष्चात्य देषों मेंं सर्वाधिक और अन्य स्थानों पर भी काफी लोकप्रिय हुआ है। कतिपय योगी तो केवल हठयोग के मात्र कुछ आसनों के अल्पज्ञान और अभ्यास से ही योग का व्यवसाय चला रहे हैं।
इस प्रकार यह काल जीवन में धार्मिक व्यवहार के सरल तथा अधिक स्पष्ट असितत्व तथा महान चमत्कारिक सूफी सन्तों के उपदेषों से ओत-प्रोत है। इन योगियों ने जो अब भी संख्या मेंं बहुत अधिक हैं, अनेक भä रिचनाओं की षिक्षाओं को प्रभावित किया है। इन चमत्कारी सन्तों में अपने योग आधारित चमत्कारों के लिये एक तरफ अकेले गोरक्षनाथ और दूसरी तरफ मुख्य रूप से रामानन्द, कबीर, चैतन्य महाप्रभु और गुरु नानक का नाम विषेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने भä किे लियेे समर्पण भाव पर जोर दिया और जिनके उपदेषों मेंं मानवता, विचारों की स्वतन्त्रता तथा सभी धमोर्ं की एकता को प्रमुखता दी गयी। इससे कुछ ही समय पूर्व ख्वाजा मुइनुíीन हसन चिष्ती सहित मुसिलम सूफ़ी सन्तों ने संन्यास पर जोर दिया और र्इष्वर तथा मानवता से प्रेम की षिक्षा दी।
बि्रटिष काल मेंं हिन्दुत्व
बि्रटिष कालीन भारत का दार्षनिक इतिहास प्राथमिक रूप से प्राचीन परम्पराओं की खोज, भारतीय दर्षन के संबन्ध मेंं पाष्चातय विचारधारा से तुलना व संष्लेषण का समय रहा। उदाहरणार्थ शोधकर्ता एवं भारत के प्रथम राष्ट्राध्यक्ष डा0 सर्वपल्ली राधाÑष्णन मेनन, डा0 एस.एन. दासगुप्ता तथा पष्चातय विद्वान डब्ल्यू.जे. बि्रग्स की रचनाओं का अवलोकन किया जा सकता है। आधुनिक और रचनात्मक चिन्तकों मेंं महात्मा गांधी जिन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक दर्षन के क्षेत्र मेंं नवीन विचारों का अपनाया, अद्वैत वेदान्त की नयी शाखा के प्रतिपादक श्रीअरविन्द और के.सी. भटटाचार्य हैं, जिन्होने दर्षन के वस्तुवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
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नाथ अर्थात दर्षनी योगी
सर्वप्रथम यह जानना आवष्यक है कि, ‘नाथ क्या है? सामान्यत: नाथ षब्द का अर्थ स्वामी, मालिक, पति, राजा आदि होता है। नाथ षब्द ‘नाथृ धातु से बना है, जिसका सामान्यत: याचना, उपताप, ऐष्वर्य तथा आषीर्वाद आदि अर्थ हैं।
विषय के सन्दर्भ मेंं पाश्चात्य विद्वान विल्सन द्वारा दी गयी संक्षिप्त परिभाषा अनुसार योग मार्ग की पातंजल शाखा के अनुयायी नाथ अथवा योगी कहलाते हैं। ‘नाथ पद पर विचार करते हैंंं तो सामान्य तौर पर यह प्रकट होता है कि, नाथ भारतीय दर्षन की दो प्रमुख शाखाओंं मेंं वह उपासक है, जो योगमार्ग के प्रवर्तक महायोगी आदिनाथ भगवान षंकर के स्वरूप को अंगीकार करने और योग साधना करने वाले तपसिवयों की Üांृखला मेंं ‘नाद अर्थात षिष्य परम्परा से अथवा ‘बिन्दु अर्थात योगी कुल मेंं जन्म के द्वारा समिमलित हुआ है। कानों के मध्य भाग मेंं धार्मिक रीति से क्षुरिका द्वारा छेदन और विषेष प्रकार के कुण्डल (दर्षन) धारण करने के कारण इन्हें दर्षनी योगी कहा जाता है। कनफटा नाथ कोर्इ उपमा नहीं वरन नाथयोगियों से वैमनस्यता रखने वाले कतिपय समूहों द्वारा उन्हें अपमानजनक संज्ञा से संबोधित करने का कुटिल षड़यन्त्र था, जिसमें वे सामान्य नागरिकों के सम्पर्क में अधिक रहने, निरन्तर इस शब्द के उच्चारण करने और धार्मिक पदों पद बैठे ऐसे लोगों का नागरिकों द्वारा विरोध नहीं करने के कारण कालान्तर में यह शब्द प्रचलन में आ गया।
सिद्ध मतानुसार आध्यातिमक रूप मेंं नाथ षब्द नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक आदिनाथ भगवान षिव के लियेे प्रयुä हुआ है। नाथ पद का अर्थ ब्रह्रा पद होता है। उल्लेखनीय है कि, यही सर्वोच्च पद है। सनातन धर्म और इसकी उपषाखाओं के सभी धार्मिक ग्रन्थो में जब भी किसी देवी-देवता द्वारा अपने से श्रेष्ठ से याचना, स्तुति अथवा सम्बोधन किया जाता है तो ‘हे नाथ! कहा जाता है। ब्रह्रा तेजयुä त्रिकालिक विभूतियों को भी नाथ नाम से जाना जाता है, जैसे- आदिनाथ, पषुपतिनाथ, गोरक्षनाथ, मत्स्येन्æनाथ, गणनाथ, सोमनाथ, नागनाथ, वैधनाथ, विष्वनाथ, जगन्नाथ, रामनाथ, द्वारिकानाथ, केदारनाथ, बæीनाथ, अमरनाथ, एकलिंगनाथ, जलन्धरनाथ आदि असंख्य नाम है।
राजगुहî मेंं ”नाकारो•नादिरूप: थकार: स्थापित: सदा। भुवनत्रयमेवैक: श्री गोरक्ष नमो•स्तुते।। अर्थात ‘ना का अर्थ अनादि रूप ‘थ का अर्थ भुवनत्रय का स्थापित होना। इस प्रकार ‘नाथ का षाबिदक अर्थ है, वह अनादि धर्म जो भुवनत्रय की सिथति का कारण है। श्री गोरक्ष, नाथ स्वरूप मेंं सिथत हैं अर्थात स्वयं नाथ हैं अत: उन्हें गोरक्षनाथ कहा जाता हैं। नाथ षब्द का विच्छेद करने पर षाबिदक अर्थ है ना¾ षून्य एवं थ¾ सिथत। अर्थात जो षून्य मेंं सिथत है वह नाथ है। क्योंकि आदि नाथ षिव ही षून्य मेंं तत्त्व रूप से व्याप्त हैं अत: इस परिभाषा के अनुसार भुवनत्रय मेंं सिथत प्रत्येक तत्त्व मात्र नाथ है।
योगवेत्ताओं ने समस्त चराचर जगत को नाद-बिन्दु स्वरूप बताया है। बिन्दु षä हिै और नाद षिव। नाद अर्थात षिव और बिन्दु अर्थात षä सिे युä सबकुछ षिव स्वरूप है। षिव में इकार षä हिै। इकार के बिना षिव षäहिीन होकर षव मात्र रह जाता है। आधार मेंं ही आधेय का समावेष होता है। यही सकलीकरण है। इस सकलीकरण की सिथति से ही सृषिटकाल मेंं जगत का प्रादुर्भाव होता है। षिवलिंग ‘नाद तथा ‘बिन्दु का ही स्वरूप है। इसी कारण सभी पंथों के समान रूप से नादजनेऊ नामक विषेष जनेऊ धारण करते हैंंं। इसी नाद को वेदों, उपनिषदों और अन्य ग्रन्थों मेंं ‘सो•हं और ‘षब्दब्रह्रा कहा गया है।
नाथ षब्द का एक अन्य अर्थ है षण्मुखी योग मुæाओं से षरीरस्थ दस द्वारों मेंं से नौ द्वारों को नाथने वाला नाथ कहलाता है। श्रीमदभगवदगीता के अध्याय 5 के श्लोक 13 के अनुसार ”सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वषी, नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्व™ा कारयन।। अर्थात जिसकी इनिæ्रयां वष मेंं हैं ऐसा देहधारी आत्म संयमी पुरुष (अर्थात शरीर रूपी नगर के नौ द्वारों को नियनित्रत करने वाला) सम्पूर्ण कमोर्ं का सम्यकरूपेण त्याग करके सुखपूर्वक रहता है। विस्तृत रूप से देखा जावे तो यह परिभाषा भी पहली परिभाषा का ही दूसरा रूप है। यहां इस भ्रम को दूर किया जा सकता है कि, इनिæयों को जीतना और उन्हें वष मेंं करना दो बिल्कुल अलग क्रियाएं हैं। ‘नियन्त्रण पद से किसी क्रिया का संचालन अभिप्रेत होता है, जबकि ‘जीत लेना पदों से दमनात्मक कार्यवाही प्रतिबिमिबत होती है। इसी कारण इनिæ्रयों को दमनपूर्वक जीतने वाला जितेन्æ अथवा जिनेन्æ्र तो हो सकता है किन्तु वह उनका संचालक नहींं हो सकता और समय पाकर इनिæयां फिर से सक्रिय हो सकती हैं। श्रीमदभग्वदगीता में वर्णित और योगियों का आषयित आत्म संयम द्वारा इनिæयों का संचालक नाथ ही है।
भä अिैर चिन्तन के रुढि़वादी तरीकों के विपरीत आत्मज्ञान के द्वारा पराषäयिें की प्रापित पर जोर देने के कारण कहीं-कहीं इन्हें तानित्रक की संज्ञा दी जाती है। ये दर्षनी योगी योग के सन्दर्भ मेंं भारतीय इतिहास, दर्षन और संस्कृति मेंं विषिष्ट स्थान रखने वाले योगाचार्य गोरक्षनाथ, (जिनके काल के संबन्ध मेंं अब तक निषिचत रूप से कुछ नहींं कहा जा सका है), के अनुयायी हैं और नाथपंथी अथवा गोरक्षनाथी भी कहे जाते हैंं। हिन्दू धर्म के षैव मतावलमिबयों और बौद्धों की संन्यास व्यवस्था और साधना पद्धति इन दर्षनी योगियों की विचारधारा और साधना पद्धति ‘हठयोग से मिलती है।
‘नाथ सम्प्रदाय एक ऐसा सम्प्रदाय है जिसके सदस्य मानव षरीर को अविनाषी और दिव्य षरीर मेंं रूपान्तरित करके अमरता प्रापित का प्रयत्न करते हैंंं। इसमेंं हिन्दू मतावलमिबयों के षैव और बौद्धों की संन्यासी परम्पराएं और हठयोग सहित रहस्यपूर्ण विधियां समाहित हैं। ‘नाथ पदावली नाथ सम्प्रदाय के पारम्परिक नौ योगाचायोर्ं के नाम से भी उद्धृत की गयी प्रतीत होती है, जिनके सभी के नाम नाथ पद के साथ समाप्त होते हैं। ग्रन्थों मेंं नवनाथों के नाम पर मतभेद हैं तथापि इस तथ्य पर सभी एक मत हैं कि, उä सभी नवनाथों ने यौगिक अनुषासन द्वारा अपने षरीरों को सफलतापूर्वक अविनाषी आतिमक स्वरूप मेंं परिवर्तित कर लिया है और हिमालय मेंं अपने सूक्ष्म रूप मेंं रहकर समय-समय पर स्थूल रूप मेंं प्रकट होते हैं। ये नवनाथ हिन्दू संन्यासियों के 84 महासिद्ध योगियों की सूची मेंं हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सहित कतिपय विद्वानों ने बौद्धों की सूचि में भी इन नवनाथों की उपसिथति बतायी है। प्रत्यक्षत: बौद्धों का नाथों से कोर्इ संबंध नहीं रहा किन्तु फिर भी यह विष्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि बौद्धों ने नाथयोगियों के सिद्धयोग के प्रथम सोपान हठयोग के सन्दर्भ में विकट शारिरिक व्यायाम को अंगीकार किया है। अत: संभव है कि बौद्धों के 84 सिद्धों की सूचि में नवनाथों के नाम उनके प्रति आदर और कृतज्ञ भाव से आये हों।
नाथपंथ नि:षेष रूप से योगियों द्वारा प्रवर्तित है, जिनका उíेष्य सहजता प्राप्त करना है। यह सहजता वीर्य, ष्वास तथा विचारों के नियन्त्रण द्वारा काया साधना की पूर्णता से प्राप्त होती है। काया साधना के लियेे एक पूर्ण गुरु के मार्गदर्षन को आवष्यक माना गया है। अपने समान संन्यासियों से बातचीत मेंं विरोधाभासी पदों और गूढ़ अर्थयुä पदोंकविताओं का आदान-प्रदान करते हैंं। इन गूढ़ अर्थ वाले पदों का आरम्भ इनमेंं अभिवादन के समय से ही प्रारम्भ हो जाता है। अभिवादन हेतु सामान्य पदों की अपेक्षा नाथयोगी ‘आदेष! आदेष!! पद का प्रयोग करते हैंंं, जो आत्मा, जीवात्मा तथा परमात्मा की अभेदता का प्रतीक है।
योगी गोरक्षनाथ विरचित ग्रन्थ ‘सिद्ध सिद्धान्त पद्धति मेंं नाथयोगियों द्वारा अभिवादन के लियेे प्रयोग किये जाने वाले ‘आदेष-आदेष पद के संबन्ध मेंं उल्लेख करते हुए बताया गया है। ”आत्मेति परमात्मेति जीवात्मेति विचारणे। त्रयाणामेक्य संभूतिरादेष इति कीर्तित:।। आदेष इति सदवाणीं सर्वं द्वन्द्वक्षयापहाम। यो योगिनं प्रति वदेत स यात्यात्मानमीष्वरम।। (सिद्ध सिद्धान्त पद्धति 694-95) तदनुसार आत्मा, परमात्मा और जीवात्मा की अभेदता ही सत्य है। इस सत्य का अनुुभव या दर्षन हमारे सिद्धामृत मार्ग मेंं ”आदेष कहलाता है। व्यावहारिक चेतना की आध्यातिमक प्रबुद्धता जीवात्मा, आत्मा तथा परमात्मा के साक्षात्कार मेंं निहित है। आष्चर्य की सीमा तक एक सत्य यह भी है कि, नयी पीढी के गृहस्थ नाथयोगियों को विरासत मेंं मिलने वाले इन गूढ़ अर्थ वाले पद और कविताओं पर गर्व तो है किन्तु अर्थ मालूम नहींं है। ।
1. योग की पातंजल शाखा का प्रवर्तन किसके द्वारा किया गया इसका संक्षिप्त परिचय इसी पुस्तक में ‘गोरक्षनाथ शीर्षक अध्याय के अन्तर्गत किया है।
नाथ महिमा
1. षä सिंगम तंत्र मेंं उलिलखित है ”श्री मोक्षदान दक्षत्वात नाथ ब्रह्राानुबोधनात। स्थगित ज्ञान विभवात श्री नाथ इतिगीयते।। अर्थात नाथ की षरण मेंं जाने पर ही ब्रह्रा का साक्षात्कार संभव है और तब ही अज्ञान का अंधकार नष्ट होता है। जो मोक्षदान मेंं दक्ष है और अज्ञान के सामथ्र्य को स्थगित करने वाला है, उसे नाथ कहते हैंं।
2. गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह मेंं ”देदीप्यमानस्तत्त्वस्यकर्ता साक्षात स्वयं षिव:। संरक्षन्तो विष्वमेव धीरा: सिद्धमताश्रया:।। अर्थात सब मेंं स्वप्रकाषित साक्षात षिव ही तत्त्व के कर्ता हैं तथा सिद्ध मत का आश्रय करने वाले धैर्यषाली योगियों को विष्व का संरक्षक बताया है।
3. षिव रहस्य मेंं वर्णित है ”सर्वं देवानां सर्वं संसारिणामपि च गुरुर्नाथ एव सर्वषास्त्र प्रसिद्धो•तएव तन्त्रोक्ते•पि गुरु कवचे गुरुमण्डल निरूपणे मुख्यतया नाथस्यैव गुरुत्वमुäं श्री नाथादि गुरुत्रयमित्यादिना। परम पुरुषार्थस्तमुäरित्युäम। सा च नाथ स्वरूपेणावस्थानम।। अर्थात ये सभी षास्त्रों मेंं प्रसिद्ध है कि, सभी देवताओं तथा समस्त संसारियों के गुरु नाथ ही हैं, इसीलियेे तन्त्रवर्णित गुरुवचन मेंं गुरुमण्डल का मुख्य निरूपण करते समय ”श्री नाथादि गुरुत्रयम आदि ष्लोकों द्वारा नाथ के ही गुरुत्व का मुख्य रूप से वर्णन किया गया है।
4. गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह के अनुसार मंगल ष्लोकों मेंं नाथ के लक्षणों पर प्रकाष डालते हुए नाथ महिमा के संबंध मेंं कहा गया है- ”निगर्ुण वामभागे च सव्यभागे•दभूता निजा। मध्यभागे स्वयं पूर्णं तस्मै नाथाय ते नम:। अर्थात नाथ के वाम अंग मेंं निर्गुण रहता है और दक्षिण अंग मेंं अदभुत विषिष्ट निजा षä रिहती है। मध्य मेंं स्वयं नाथ अपनी पूर्णता से आलोकित है। मैंं इस नाथ के समक्ष मस्तक झुकाता हंूं और स्वयं नाथ बनने की अभीप्सा रखता हूं। दूसरे ष्लोक मेंं कहा है ”मुäा: लुठनित पादाग्रे नखाग्रे जीवजातय:। मुäा मुä गतेमर्ुä: सर्वत्र रमते सिथर:। अर्थात समस्त स्तर के जीवित प्राणी नाथ के चरणनखों पर अपने âदयों की आराधना अर्पित कर रहे है। जिन्होंने स्वयं को इस ऐनिæ्रक जगत के दु:खों व बन्धनों से मुä कर स्वच्छन्दता व सुख के उच्चतर लोकों तक उठा लिया है, वे भी नाथ के चरणों मेंं भä भिव से निवास कर रहे हैं। नाथ जिस चेतना स्तर पर निवास करते हैंंं, वह बद्ध और मुä दोनों की चेतनाओं के स्तर से ऊपर हैं। वह व्यावहारिक अनुभव के समस्त स्तरों व क्षेत्रों मेंं तत्त्वज्ञानालोकित दृषिटकोण व षान्त गम्भीर सिथरता मेंं स्वयं का आनन्द भोगता है।
5. गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह के ही अनुसार गुरु मात्र नाथ ही हो सकता है। क्योंकि नाथ भोग और त्याग दोनो से निर्लिप्त है, वह सबके लियेे और सब उनके लियेे समान है नाथ के पद-पद मेंं तीर्थ है, उनका वाक्य वेद के समान और नाथ स्वरूप का परम पुरुषार्थ मुä हिै। इसीलियेे नाथ स्वरूप प्राप्त करने की कामना की जाती है। ”भवेयं मनुष्योयदैकस्तु राजा, यदा जन्तुरेको भवेयं मृगेन्æ:। यदा षास्त्रमेकं तदा योगमेव, यदा देव एकस्तदा नाथ एव।। अर्थात अगर मनुष्य होऊं तो चक्रवर्ती सम्राट बनूं, पषु होऊं तो सिंह बनूं। षास्त्र होऊं तो एक मात्र योग षास्त्र मेरा रूप हो और देवता होऊं तो मात्र नाथ स्वरूप हो जाउं। क्योंकि ”षäर्जिगत्कतर्ृ षिव: पालक:। काल: संहारक:। नाथो मुकितदायक:ं। अर्थात षä जिगत की सृषिट करती है। षिव पालन करते हैंंं, काल संहार करता है और नाथ मुä दिेते हैंंं। ”परम पुरुषार्थस्तमुäरित्युäम। सा च नाथस्वरूपेणावस्थानम। अर्थात मुä किे लियेे किया गया कर्म ही परम पुरुषार्थ है, जो नाथ स्वरूप से ही चरितार्थ हो सकता है।
6. महासिद्धयोगी भर्तृहरि का कथन है ”सिद्धनामिष्टोनाथ: सो•पि सित्रयं ना³गीचकार। सर्वे ब्रह्राविष्णु रुæादयोदेवा: षेषादयो नागा मन्वादि नरा अन्ये च पषु पक्षिणो यावज्जीवं सर्वे स्त्रीजिता: एको नाथ एव मायाजेता तदुäं महासिद्ध श्री विचारनाथेन भर्तृहरिणा। अर्थात सिद्धों के इष्ट देव नाथ है, उन्होंने स्त्री को अंगीकार नहींं किया। जबकि ब्रह्राा, विष्णु और रुæ आदि ने सम्पूर्ण देव समुदाय, षेष आदि नागगण, मनु आदि मनुष्य तथा अन्य पषु पक्षी आदि सभी जीव स्त्री के वषीभूत हैं। माया (स्त्रीप्रÑति) को जीतने वाले तो एक मात्र नाथ ही हैं। इसी कारण केवल नाथ ही र्इष्वर है।
7. गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह के अनुसार ”षट पदार्था यत्र भवनित स भगवान। के ते षट पदार्था:? 1. समगै्रष्वर्य, 2. धर्म:, 3. यष:, 4. श्री, 5. ज्ञान, 6. वैराग्य। एतेषांमध्ये एको•पि रुæविष्णवादिनां भगवत्पदवाच्येषुन। अर्थात जिसमेंं छ: योग्यताएं क्रमष: समग्र ऐष्वर्य, धर्म, यष, श्री, ज्ञान और वैराग्य हैं वह भगवान है। इनमें से एक भी योग्यता भगवत्पदवाची रुæ एवं विष्णु आदि देवताओं मेंं नहींं है। ये छ: योग्यताएं नाथ मेंं ही सिथत है। देखिये ”समग्र ऐष्वर्य तु योग:, स तु सहजसिद्ध एव। पुन: धर्मो•पि स एव यो मुä रूिप: पुनर्यषो•पि तस्यैव यो मुिä रूपो बन्धरूपस्य कथं यष:। पुन: श्री षोभापि तस्यैव यो मुäो बन्धरूपस्याथ्वा कथं भवेधो लौकिक सुख:दु:खे मग्न। ज्ञानं तस्यैव ज्ञानं पुनर्वेराग्यंं तस्यैव वैराग्यमेवं च सर्वेषामधारो नाथ एवात: कारणान्महामिदधानां। तात्पर्यं नाथ परमेवेति।। अर्थात समग्र ऐष्वर्य योग है, वह तो नाथ के लियेे सहज सिद्ध ही है। पुन: धर्म भी वही है, जो मुä रूिप हो। यष भी उसी को प्राप्त है, जो मुä है। बन्धन रूप वाले को यष किस प्रकार मिल सकता है। श्री भी उसी को प्राप्त है, जो मुä है। जो सांसारिक बन्धनों मेंं आबद्ध है उसे श्री किस प्रकार मिल सकती है। ज्ञान और वैराग्य भी उसी को मिल सकते हैं जो मुä हैं। इस प्रकार र्इष्वरत्व के सभी छ: पदाथोर्ं के आधार नाथ ही हैं और इसी कारण सृषिट के रचयिता नाथ ही हैं।
8. कथा प्रसिद्ध है कि,-
अद्वैतोपरिवर्ति निराकारसाकारातीतनाथात्रिराकार ज्योतिर्नाथो जातस्तत: साकारनाथो जातस्तदिच्छया सदा षिवो भैरवो जातस्ततष्च षäभिर्ैरवी च जाता, तस्माद विष्णुर्जात: तस्माद ब्रह्राा जास्तने सवार्ं सृषिटरुत्पन्ना। नाथाद द्विप्रकारा सृषिटर्जाता नाद रूपा बिन्दुरूपा च। नाद रूपा षिष्यक्रमेण बिन्दुरूपा च पुत्रक्रमेण। नादान्नव नाथा जाता: बिन्दुत: सदा षिवोच भैरवोजात: पुनर्नवनाथानां पष्चात ब्रह्राा सूर्यष्चन्æ्र इन्æ्रादि देवता जाता:। अर्थात जो अद्वैत से ऊपर वर्तमान हैं तथा साकार और निराकार से परे है, उन नाथ से निराकार ज्योतिस्वरूप नाथ उत्पन्न हुए। उनसे साकार नाथ की उत्पत्ति हुर्इ। उन साकार नाथ की इच्छा से सदाषिव भैरव प्रकट हुए और उन्हींं से भैरवी षä कि प्रादुर्भाव हुआ। उन (भैरवी षä)ि से विष्णु उत्पन्न हुए और विष्णु से ब्रह्राा का जन्म हुआ जिनसे सारी सृषिट उत्पन्न हुर्इ। नाथ से दो प्रकार की सृषिट उत्पन्न हुर्इ प्रथम नादरूपा और दूसरी बिन्दुरूपा। षिष्य क्रम से नादरूपा और पुत्र क्रम से बिन्दुरूपा सृषिट का प्रसार हुआ। नाद से नौ नाथ प्रकट हुए तो बिन्दु से सदाषिव भैरव का जन्म हुआ। नौ नाथों के बाद बारह तथा चौरासी सिद्ध तत्पष्चात बारह पंथ और प्रत्येक पंथ मेंं अनेकों सिद्ध उत्पन्न हुए। सदाषिव भैरव से विष्णु, बह्राा, सूर्य, चन्æमा, इन्æादि देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ।
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योग पद का विवेचन
प्रसंगवष योग षब्द का अर्थ जानना भी आवष्यक हो जाता है। योग संस्Ñत की युज धातु से बनता है। चित्तवृतियों का निरोध योग है। योग का अर्थ समाधि होता है। यज्ञ, युä अिैर योजना भी योग कहलाती है। षिव और षä कि योग ‘योग कहलाता है। षिव मेंं षä हिै और षä मिेंं षिव है। षिव और षä एिकात्मा है। षिव और जीव का संयोग ‘योग है। विष्व के समस्त कर्मों मेंं कौषल प्राप्त करना ‘योग है। पंच महाभूतोें और उनकी पच्चीस प्रÑतियों का योग भी ‘योग है। साम, दाम, दण्ड और भेद नीतियों का उपाय भी ‘योग है। ध्यान को ‘योग कहा जाता है। समस्त षäयिें को ‘योग कहा जाता है। जीवात्मा और परमात्मा के योग को भी ‘योग कहा जाता है। इड़ा-पिंगला का योग, प्राण-अपान का योग, सूर्य-चन्द्रमा का योग, मन-पवन का योग इत्यादि सभी संयोग ‘योग कहलाते हैं। ग्रह तथा लग्न का योग, औषधियों का ‘योग भी योग कहलाता है। सन्धी को ‘योग कहते हैं। जोड का नाम ‘योग है। दो पदाथोर्ं और अनेक वस्तुओं का योग भी ‘योग कहलाता है। दो अक्षरों से मिलकर बना षब्द, षब्दों से मिलकर बना वाक्य, स्वरों के योग से बनी रागिनी, लय और ताल आदि ‘योग है। नाडि़यों और नदियों के संगम, नदियों का समुद्र मेंं विलय तथा तीर्थ को ‘योग कहा जाता है। दर्षनों का समन्वय, द्रव्यों का विलय तथा ब्रह्रााण्ड के अणु-परमाणु से लेकर कोर्इ भी वस्तु ‘योग से रहित नहींं है। यज्ञ भी ‘योग है और योग से योग्यता प्राप्त होती है। श्रीमöगवदगीता मेंं योगेष्वर श्री Ñष्ण ने समता को ‘योग कहा है। योगस्थ: कुरु कर्माणि स³गं त्यक्त्वा धनंजय:। सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। अर्थात हे धनंजय! तू आसä कि त्याग करके सिद्धि-असिद्धि मेंं सम होकर योग मेंं सिथत होकर कर्म कर क्योंकि समत्व को ‘योग कहा जाता है। समता अर्थात योग मेंं समर्थ होने वाला व्यä अिमर हो जाता है। गीता के ही छठे अध्याय मेंं ध्यान योग का उपदेष देते हुए तेइसवें ष्लोक मेंं दुखों के संयोग के वियोग को भी ‘योग की संज्ञा दी है। योगमार्ग के विचारक एवं प्रचारक पतंजलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को ‘योग कहा है। द्रष्टा की स्वरूप मेंं सिथति ‘योग है। योग वेद रूपी कल्पवृक्ष का अमृतफल है। योग के अनेक प्रकार हैं यथा ज्ञान योग, भä यिेग, सांख्य योग, लय योग, हठ योग, कर्म योग आदि। योग न केवल मनुष्य अपितु समस्त प्रकार के जलन्द, परन्द, चरन्द तथा वनस्पति का अधिकार है। अर्थात समस्त जीव योगमय हैं और षरीर मेंं जीव की सिथति अनुसार योग कर रहे हैं। किन्तु योग की जिस सिथति से मोक्ष प्राप्त होता है वह सिथति केवल मनुष्य को प्राप्त होती है। मनुष्य को उस सिथति मेंं लाने के उíेष्य से आदिनाथ भगवान षिव ने महायोगी गोरक्षनाथ के रूप में अवतार लेकर योग मार्ग को प्रषस्त किया।
यह षरीर ही मोक्ष का आध साधन है क्योंकि बन्धन का कारण और स्थान ही मोक्ष का कारण और स्थान हो सकता है। मोक्ष क्या है? जीवन मुä ही मुä है, मरने से मुä निहींं होती। मुä सिदेह भी है और विदेह भी। जिस काल मेंं ऋतम्भरा प्रज्ञामयी भूमिका मेंं सहज समाधि क्रम से मन का अवलोकन मन से ही करने मेंं सक्षम होती है तो सदेह मुä हिेती है। यह सदेह मुä यिेग से मिलती है। मुä विस्तुत: नाथ स्वरूप मेंं अवस्थान है। नाथ मत के अनुसार षä सिृषिट करती है, षिव पालन करते हैंंं, काल संहार करता है और नाथ मुä दिेते हैं। नाथ ही एक मात्र षुद्ध आत्मा है, षेष ब्रह्राा, विष्णु तथा महेष सहित सभी बद्ध जीव हैंं यह मत न तो द्वैतवाद के क्रिया ब्रह्रा को मानता है और न अद्वैतवाद के निषिक्रय ब्रह्रा को। द्वैतवादियों का परमधाम कैलाष या बैकुंठ है अद्वैतवादियों का परम स्थान ब्रह्रा स्थान है। योगियों का स्थान निर्गुण और सगुण से परे उभयातीत स्थान है।
योग, योगी और नाथ षब्दों की उपयर्ुä विवेचना से स्पष्ट है कि, योग के अनेक प्रकार हैं, सृषिट में कोर्इ भी रचना योग से इतर नहीं है और योग की साधना करने वाला योगी है। दर्षनी योगी वह उपासक है, जो योगमार्ग के प्रवर्तक महायोगी आदिनाथ भगवान षंकर के स्वरूप को अंगीकार करने और योग साधना करने वाले तपसिवयों की Üांृखला मेंं षिष्य परम्परा से समिमलित हुआ है। कानों के मध्य भाग मेंं धार्मिक रीति से क्षुरिका द्वारा छेदन और विषेष प्रकार के कुण्डल धारण करने के कारण इन्हें दर्षनी योगी कहा जाता है। भä अिैर चिन्तन के रुढिवादी तरीकों के विपरीत आत्मज्ञान के द्वारा पराषäयिें की प्रापित पर जोर देने के कारण कहींं-कहींं इन्हें तानित्रक की संज्ञा दी जाती है। ये दर्षनी योगी योग के सन्दर्भ मेंं भारतीय इतिहास, दर्षन और संस्कृति मेंं विषिष्ट स्थान रखने वाले योगाचार्य गोरक्षनाथ, जिनके काल के संबन्ध मेंं अब तक निषिचत रूप से कुछ नहींं कहा जा सका है, के अनुयायी हैं और नाथपंथी अथवा गोरक्षनाथी भी कहे जाते हैं। दर्षनी योगियों की विचारधारा हठयोग का किंचित स्पर्ष हिन्दू धर्म के षैव मतावलमिबयों और बौद्धों की संन्यास व्यवस्था में भी मिलता है।
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योग और योगी का महत्त्व
नाथ एक सिथति है जहां कोर्इ भी रहस्य, रहस्य नहींं रह जाता। इन पदों के संक्षिप्त विचार पष्चात प्रसंगवष यह जानना आवष्यक हो जाता है कि, योग और योगी का महत्त्व क्या है?
यदि विचार करें तो सम्पूर्ण वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण और समस्त शास्त्रादि योग का ही गुणगान कर रहे हैं। बडे़-बडे़ विद्वान अपने सम्पूर्ण प्रयत्न के बाद वेदों के दोहन से योगपरक जिन मन्त्राें को प्रकाश में ला पाये हैं, हम उनके पुरुषार्थ को साधुवाद देने की भी क्षमता नहीं रखते। फिर वेद और उपनिषदों रूपी कामधेनु को दुहने वाले योगेश्वर भगवान श्रीÑष्ण के मुख से नि:सृत ‘गीता के लिये तो कोर्इ शब्द ही नहीं हो सकते। हम भूमिका में ही यह स्वीकार कर चुके हैं कि, वेद अध्ययन तो दूर हमने उनके दर्शन भी नहीं किये हैं। गुरुदेव योगी प्रवर नरहरिनाथ जी महाराज के कृपा वचनामृत और अन्य सिद्ध पीरों के सान्निध्य, विद्वानों व जिज्ञासुओं से चर्चा से जिन मन्त्रों की जानकारी हो सकी उनका उल्लेख अध्याय के अन्त में किया है। सुस्थापित व स्वीकृत तथ्यों के संबंध में कोर्इ वाद-विवाद नहीं होता, अत: ग्रन्थ विस्तार के भय से इन मन्त्राें का अर्थ प्रकट नहीं किया। इसी प्रकार गीता के प्रत्येक अध्याय में योग से सुसंगत श्लोकों का भी केवल उल्लेख अध्याय के अन्त में किया है। यहां गीता के चौथे और छठे अध्याय के चन्द ष्लोकों का अध्ययन योग और योगी की महिमा के लिये प्रस्तुत करते हैं।
अध्याय छ: के ष्लोक 37 से 39 तक अजर्ुन द्वारा जिज्ञासापूर्वक पूछे गये प्रष्नोें के उत्तर मेंं योगेष्वर श्रीÑष्ण ष्लोक 40 से 45 तक योग के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए 46वें ष्लोक मेंं तो अजर्ुन को योगी हो जाने का स्पष्ट आदेष दे डालते हैं। देखिये-
अजर्ुन उवाच:- अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं Ñष्ण गच्छति।। 37।।
कचिचन्नोभयविभ्रष्टषिछन्नाभ्रमिव नष्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढ़ो ब्रह्मण: पथि।।38।।
(हे Ñष्ण! जिसकी साधन मेंं श्रद्धा है किन्तु प्रयत्न षिथिल है, वह अन्त समय मेंं अगर योग से विचलितमना हो जाये, तो वह योगसिद्धि को प्राप्त न करके किस गति को चला जाता है?।।37।। संसार के आश्रय से रहित और परमात्मप्रापित के मार्ग से विचलित- दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ योग साधक क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहींं हो जाता?)।।38।।
श्रीÑष्ण उवाच:- पार्थ नैवेह नामुत्र विनाषस्तस्य विधते।
न हि कल्याणÑत्कÜचिदर्ुतिं तात गच्छति।।40।।
प्र्राप्य पुण्यÑतां लोकानुषित्वा षाष्वति: समा:।।
षुचिनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टो•भिजायते।।41।।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृषम।।42
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन।।43।।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव âयिते áावषो•पि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य षब्दब्रह्राातिवर्तते।।44।।
प्रयत्नात यतमानस्तु योगी संषुद्धकिलिबष:।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम।।45।।
तपसिवभ्यो•धिको योगी ज्ञानिभ्यो•पि मतो•धिक:।
कर्मिभ्यÜचाधिको योगी तस्माधोगी भवाजर्ुन।।46।।
(हे पृथानन्दन! उसका, जिसका योग पूरा न हो सका। न तो इस लोक मेंं न परलोक मेंं ही विनाष होता है। क्योंकि कल्याणकारी काम करनेवाला कोर्इ भी मनुष्य दुर्गति को नहींं जाता।।40।। वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करने वालों के लोकों को प्राप्त होकर और वहां बहुत वषोर्ं तक रहकर फिर यहां षुद्ध श्रीमानों के घर मेंं जन्म लेता है।।41।। अथवा योगभ्रष्ट ज्ञानवान तथा वैरागयवान योगियों के कुल मेंं ही जन्म लेता है। इस प्रकार का जन्म संसार मेंं बहुत दुर्लभ है।।42।। हे कुरुनन्दन! वहां पर उसको पूर्वजन्मÑत साधन-सम्पत्ति अनायास ही प्राप्त हो जाती है। उससे वह साधन की सिद्धि के विषय मेंं पुन: विषेषता से यत्न करता है।।43।। ऐसा योगभ्रष्ट मनुष्य भोगों के परवष होता हुआ भी पूर्वजन्म मेंं किये हुए अभ्यास के कारण ही परमात्मा की तरफ खिंच जाता है। क्योंकि योग का जिज्ञासु भी वेदों मेंं कहे हुए सकाम कमोर्ं का अतिक्रमण कर जाता है।।44।। जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैंं तथा जो अनेक जन्मों से सिद्ध हुआ है वह योगी परमगति को प्राप्त हो जाता है।।45।। तपसिवयों से भी योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ है। अत: हे अजर्ुन तू योगी हो जा।। 46।। )
इससे पूर्व चौथे अध्याय के 33वें तथा 34वें ष्लोक मेंं वे अजर्ुन को बताते हैं, कि:-
श्रीकृष्ण उवाच:-
श्रेयान्æ्रव्यमयाधज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। 33।।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यनित ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:।। 34।।
”सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले योग से ज्ञानयोग सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों और कमोर्ं की पराकाष्ठा ज्ञान योग है। इसलियेे तत्त्वज्ञानी योगियों को भली प्रकार दण्ड़वत प्रणाम कर, सेवा और निष्काम भाव से किये हुए प्रष्नों द्वारा उस तत्त्वज्ञान को जान।
इसके पष्चात अजर्ुन द्वारा प्रार्थना करने पर स्वयं योगेष्वर श्रीÑष्ण ने जिस तत्त्वज्ञान व उसकी प्रापित के लियेे किये जाने वाले योगाभ्यास का उपदेष अध्याय छ: मेंं दिया है- यही उपदेष आदिनाथ महायोगी महादेव भगवान षिवषंकर ने षäरूिपा माता पार्वती को दिया है, जो पुराणों मेंं अमर कथा नाम से विख्यात है। यही योगविधा भगवान षंकर द्वारा आदिगुरु षंभुयति महायोगी गोरक्षनाथ के रूप में अवतार लेकर सम्पूर्ण मानव जाति में प्रचारित की गयी। तत्त्वज्ञान का यह उपदेष अत्यन्त विस्तार के साथ उपनिषदों मेंं, तत्त्वपरक और साररूप से गीता मेंं तथा सरलीÑत रूप मेंं आदि गुरु गोरक्षनाथ द्वारा विरचित गोरक्ष षतक मेंं वर्णित है। ‘गोरक्ष षतक योग मार्ग के अनुयायी और साधकाें के लियेे सर्वकालिक प्रकाषस्तम्भ है। इसके अतिरिä स्थानीय भाषा मेंं ध्यान योग का कितना संक्षिप्त एवं सटीक वर्णन महागुरु गोरक्षनाथ ने अलख निरंजन की केवल दस पदों की आरती में किया है, दृष्टव्य है।
आओ सिद्धों षोज बताऊं। आदिनाथ का पूत कहाऊं।। 1 ।।
जोगारम्भ की याही वाणी। सब घटिनाथ एकै कर जाणी।। 2।।
नाथ निरंजन आरती साजे। गुरु के सबद झालरी बाजै।। 3।।
अनहद नाद गगन मेंं गाजे। परम ज्योति तहां आप विराजै।। 4 ।।
दीपक ज्योति अखण्डत बाती। ऊपरम ज्योति जगै दिन-राती।। 5 ।।
सकल भवन उजियारा होर्इ। देव निरंजन और न कोर्इ।। 6 ।।
अनंत कला जोके पार न पावै। संख, मृदंग धुनि बेनी बजावै।। 7।।
स्वामि बून्द कलस बंदाऊं। निरति सरति ले पहुप चढाऊं।। 8 ।।
निज तत नांव अमूरति मूरति। सब देवां सिर उदबुदि धूरति।। 9।।
आदिनाथ नाती मत्सेन्æनाथ पूतां। आरती करै गोरक्ष अवधूता।। 10।।
……………..
अर्थात हे सिद्धो!, आओ! मेंं अनुभव कहता हूं। मेंं आदिनाथ परम षिव का पूत अर्थात आत्मस्वरूप हूं। (यहां पूत का अर्थ गुरुषिष्य परंपरा में पौत्र-षिष्य होने का संकेत है।) यही योग साधना का प्रारंभ है कि, घट-घट मेंं प्रत्येक जीवात्मा मेंं एक ही नाथ परमात्मा को विधमान जानना चाहिये। आदिनाथ, अलख निरंजन, परबह्रा परम प्रकाषस्वरूप षाष्वत जयोतिर्मय की आरती हो रही है। अलख निरंजन की आरती मेैं गोरक्षनाथ कर रहा हूं। आरती की सुसज्जा मेंं गुरु के षब्द ही झांझ हैं, अनहद नाद बज रहा है, वहां निरंजन ज्योतिस्वरूप परब्र्रह्रा विराजमान हैं। ज्ञान नेत्र ही दीपक है, आज्ञाचक्र मेंं सिथत ज्योति अखंड रूप से प्रकाषित है। इसी ज्योति से अखिल ब्रह्रााण्ड तथा समस्त चराचर प्रकाषित हैं। एक मात्र अलख निरंजन ही अपनी पूर्ण ज्योति से सर्वत्र अभिव्यä है। यह ज्योति रात-दिन प्रकाषित है, परबह्रा की अनन्त कलाओं और अनन्त षäयिें का पार नहींं पाया जा सकता है। इस अखण्ड आरती मेंं अनवरत शंख, मृदंग और बांसुरी की अमृत ध्वनि प्रवाहित हो रही है। अलख निरंजन को अघ्र्य प्रदान करने के लियेे निज षरीर ही पवित्र कलष है, जिसमेंं सहóार से æवित परम निर्मल स्वाति नक्षत्र का अमृत जल भरा है। मैं इस अमृत कलष से वन्दना करता हूं अर्थात आत्मज्ञानामृत से वन्दना करता हूं। मैंं उसे वैराग्य और सुरति रूपी पुष्पांजली अर्पित करता हूं। वह निराकार है, समस्त जगत मेंं व्याप्त है, समस्त देवों मेंं श्रेष्ठ स्वरूप से भाषित है। आदिनाथ का पौत्र षिष्य और मत्स्येन्æ्रनाथ के गुरुज्ञान मेंं अनुगृहीत मैं अवधूत गोरक्षनाथ अलख निरंजन की आरती कर रहा हूं।
संक्षेप मेंं तात्पर्य यह कि नाथ के संबंध मेंं जितना कहा गया है वह सब सर्वोच्च सत्ता के संबंध मेंं ही कहा गया है। उस परम सत्ता के संबन्ध मेंं कुछ भी कहने, सुनने अथवा लिखने की सामथ्र्य किसी मेंं भी नहींं है। यह एक अनुभूति का विषय है और अनुभवगम्य यथार्थ है। जो कोर्इ महापुरुष आदिनाथ षिव, योगी मत्स्येन्द्रनाथ तथा आदिगुरु गोरक्षनाथ की भांति ‘नाथ योग साधना के माध्यम से ‘नाथ स्वरूप मेंं अवसिथत हो गया है वही उस सर्वोच्च परम सत्ता अलख निरंजन के संबन्ध मेंं सब कुछ जानता है। वही उस नाथ वैभव का वर्णन करने मेंं समर्थ है। जिन नाथसिद्धों ने नाथ स्वरूप सिथति प्राप्त कर ली है वे नाथ ब्रह्रा से अलग नहींं है। उनमेंं उस सर्वोच्च सत्ता की सम्पूर्ण षäयिं निहित हो गर्इ हैं। ऐसे नाथ स्वरूप की इच्छानुसार सृषिट संचालन होता रहता है।
इस सम्प्रदाय की सबसे बड़ी विषेषता यही है कि, इसके अनुयायी मात्र अध्यात्म अर्थात आत्म-अध्ययन की विधि योग का अभ्यास करते हैंंं। षास्त्रों का अध्ययन इनके लियेे गौण होता है। साधनों मेंं केेवल षरीर ही साधन है इसीलियेे समस्त प्रकार के संग्रह-परिग्रहों से विरä होते हैं। पद और प्रतिष्ठा की कोर्इ आकांक्षा इन्हें छू भी नहींं पाती। मानापमान की अनुभूति से परे, अपने-पराये, राजा-रंक तथा सोने और मिटटी मेंं समान दृषिट रखते हैं। सुख-दुख, यहां तक कि ठण्डे और गर्म मेंं भी भेद बुद्धि नहींं करते। अत: जो केवल स्वयं मात्र का अध्ययन करने के लियेे समस्त बाहरी आडम्बरों से विरä और मुä हों, उन्हे किसी से षास्त्रार्थ मेंं हार या जीत कर क्या खोना या पाना षेष रह जाता है। इस संबंध मेंं आदिगुरु गोरक्षनाथ ने सत्य ही कहा है- ”मैंं कहता हूं कि यदि वे मेरा उपदेष मानें तो सभी ग्रन्थों को कुएं मेंं फेंक देें क्योंकि आधुनिक समय मेंं जो स्वयं ही मुä नहींं हैं, वे दूसरों को मोक्ष का उपदेष देने मेंं किस तरह समर्थ हो सकते हैं? ये निपुणता प्रदर्षन, अभिमान, जीविकोपार्जन, व्यसन अथवा किसी भी अभिलाषा की पूर्ति के लियेे षास्त्र रचना करते हैंंं, वह रचनायें पारमार्थिक पुरुषों के समक्ष क्या महत्त्व रखती है?
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1. वेदों में योगपरक मन्त्र
ऋग्वेद
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो किंचितकिंचन।
स धीनां योगमिन्वति।।1187।।
यूयं तत्सत्यशवस आविष्कर्त महित्वना।
विध्यता विधुता रक्ष:।।1869।।
गूहतांगुहयतमोे वि यात विष्वमत्रिणम।
ज्योतिष्कर्ता यदुशिमसि।।18610।।
यदग्ने स्यामहं त्वं वा घा स्या अहम।
स्युष्टे सत्या इहाशिष:।।84423।।
यजुर्वेद
युंजान: प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धिय:।।
अग्नेज्र्योतिर्निचाय पृथिव्या अध्या•भरत।।
युäेन मनसा वर्य देवस्य सवितु: सवे।
स्वग्र्याय शäया।।
युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वर्यतो धिया दिवम।
बृहज्ज्योति: करिष्यत: सविता प्रसुवाति तान।।
अथर्ववेद
पृष्ठात पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाíविमारुहम।
दिवो नाकस्य पृष्ठात स्वज्र्योतिरगामहम।।4143।।
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्यमय कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृत:।।10231।।
2. बहुप्रचारित व चर्चित श्लोक ”कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन को गीता का सार बताने वाले महानुभावों को ज्ञात हो कि गीता केवल कर्मफल में आसä सिे संन्यास की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ का नाम नहीं है। वरन सम्पूर्ण गीता आत्यनितक रूप से योगशास्त्र है, यह तथ्य गीता के प्रत्येक अध्याय के शीर्षक और अध्याय के अन्त में ”¬तत्सदिति श्रीमदभगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रह्राविधायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णाजर्ुन………….योगो नाम …….. •ध्याय:।। कहा जाकर अध्याय का समापन होने से सिद्ध है। प्रथम रिä स्थान पर अध्याय में बताये गये योग की संज्ञा और द्वितीय रिä स्थान पर अध्याय का क्रम उल्लेखित है। इस प्रकार गीता के अटठारह अध्यायों में क्रमश: विषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यासयोग, कर्मसंन्यासयोग, ध्यानयोग, ज्ञानविज्ञानयोग, अक्षरब्रह्रायोग, राजविधाराजगुáयोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शनयोग, भäयिेग, प्रकृतिपुरुषविवेकयोग, गुणत्रयविभागयोग, पुरुषोत्तमयोग, द्वैवासुरसम्पद्विभागयोग, श्रद्धात्रयविभागयोग ओर मोक्षसंन्यासयोग की शिक्षा दी गयी है। विद्वदजन ध्यान दें कि योग का सर्वोपरि लक्ष्य मोक्ष की प्रापित है किन्तु योग में मोक्ष के प्रति भी आसä सिे संन्यास (वियोग) का संयोग ‘योग की विलक्षणता है।
विक्रम संवत 2021 में नवलनाथ योगेश्वर मठ, बीकानेर द्वारा प्रकाशित ‘श्री सिद्धनाथ संहिता विवेक सागर 26 फरवरी, 2006 को राजकार्यवष बीकानेर प्रवास के समय बीकानेर निवासी योगी देवीनाथ से अनायास मुझे प्राप्त हुयी। इस ग्रन्थ में योग की चर्चा से संबद्ध गीता के सार श्लोकों का संकलन और प्रक्षालन का विशद कार्य नवलनाथ योगेश्वर मठ, बीकानेर के महन्त योगी विवेकनाथजी महाराज ने बहुत ही कुशलतापूर्वक किया है। योगेश्वर श्रीकृष्ण उवाचित गीता सर्वसुलभ है अत: ग्रन्थ विस्तार से बचने हेतु हम इन श्लोकों का पुन: प्रतिपादन नहीं कर रहे है। पचास वर्ष पुराना यह ग्रन्थ बहुत अच्छी सिथति में मेरे पास है।
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नाथ सम्प्रदाय का सामाजिक क्षेत्र मेंं योगदान
सर्वप्रथम अत्यन्त विनम्रतायुä गर्व के साथ यह उल्लेख किया जा सकता है कि, नाथ सम्प्रदाय के प्रति समर्थन और श्रद्धा के इस अनन्त अन्तरिक्ष मेंं पौराणिक काल से अब तक ढूंढने पर भी लजिजत, निन्दा और आलोचना का कोर्इ एक शूæ नक्षत्र भी दृषिट मेंं नहींं आता। योगी गोरक्षनाथ द्वारा …
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