Saturday, 11 February 2017

शंकराचार्य का प्रताप

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कैसे आदि शंकराचार्य ने एक बड़े भू-भाग को सिर्फ अपने दर्शन और तीर्थ भ्रमण से एकजुट कर दिया था

हालांकि आज आदि शंकराचार्य के बारे में हमारी समझ उनके ही कुछ नासमझ समर्थकों की वजह से एक हद तक संकीर्ण हुई है

देवदत्त पटनायक

प्रकाशित - 09 अक्टूबर 2016 · 12:38.   संशोधित - 11 अक्टूबर 2016 · 12:09.

फोटो क्रेडिट:  राजा रवि वर्मा

वे लोग जो इस पर ज्यादा जोर देते हैं कि इतिहास सच और धर्मग्रंथ झूठ हैं, वे वास्तव में आदि शंकाराचार्य के अद्वैतवाद की मूल भावना के खिलाफ ही जाते दिखते हैं. शंकराचार्य का दर्शन कहता है, ‘जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्यम.’ मतलब कि तमाम वैज्ञानिक निष्कर्षों सहित सभी दुनियावी चीजें या तो भ्रम हैं या हमारे बौद्धिक ज्ञान पर आधारित सच. जबकि दिमाग के दायरे से बाहर जो शाश्वत-सात्विक सत्य है, वह है ब्रह्म. इस सच को और भी तमाम नाम दिए गए हैं. जैसे, ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘चेतना’ आदि.

दुनिया को महज भ्रम के दायरे में समेट देने वाले इस सिद्धांत को ‘मायावाद’ कहा जाता है. और यही वह चीज थी, जिसने शंकराचार्य को कुछ उल्लेखनीय करने के लिए प्रोत्साहित किया. जिसने उन्हें उस भू-खंड को एक सूत्र में जोड़ने के लिए प्रेरित किया, जो तमाम विविधताओं से भरा था. जहां बौद्ध थे और मीमांसक (प्राचीन वैदिक पद्धति को मानने वाले गृहस्थ) भी. शैव, वैष्णव, शाक्त थे और वेदांती (उत्तर वैदिक पद्धति वाले संन्यासी) भी. शंकराचार्य के विपुल साहित्यिक योगदान में इन सभी चीजों के प्रमाण मौजूद हैं.

सिर्फ दार्शनिक-धार्मिक ही नहीं वे राजनैतिक संत भी थे

शंकराचार्य का दर्शन स्पष्ट रूप से वैदिक है. बौद्ध और जैन विद्वानों से इतर वे वेदों से ज्ञान हासिल करते हैं और उसे उस अनाम सत्ता को सौंप देते हैं, जिसने उन्हें आस्तिक बना दिया था. उन्होंने अपने भाष्य और प्रकरणों में बार-बार निराकार ब्रह्म का उल्लेख किया है. एक उसे ही सच माना है. ब्रह्मसूत्र भाष्य में उन्होंने जो टिप्पणियां की हैं उनमें और विवेकचूड़ामणि व निर्वाण शतकम् जैसे काव्य और आत्म-बोध नाम की पुस्तक में इसके प्रमाण मिलते हैं. बौद्ध धर्म में क्षणों को एक दूसरे से नितांत असंबद्ध मानने की एक दार्शनिक धारा है जिसके फलस्वरूप ‘शून्यवाद’ भी सामने आता है. कई लोग शंकराचार्य के लेखन को इसी बौद्ध विचार के वैदिक संस्करण के रूप में भी देखते हैं. संभवत: इसीलिए शंकराचार्य पर प्रच्छन्न (दबे-छिपे रूप में) बौद्ध होने के आरोप भी लगते हैं. लेकिन शंकराचार्य का ही काव्य (स्तोत्र) इस धारणा को तोड़ता भी नजर आता है. इसमें तमाम जगहों पर ‘सगुण-साकार ब्रह्म’ का उसी तरह उल्लेख किया है, जैसा पुराणों में मिलता है.

वेदव्यास के बाद शंकराचार्य ऐसे पहले रचनाकार माने जा सकते हैं जिन्होंने पौराणिक और वैदिक हिन्दूवाद को आपस में जोड़ा था


उनकी तीन रचनाएं हैं- दक्षिणमूर्ति स्तोत्र, गोविंदाष्टक और सौंदर्य लहरी, जिनमें क्रमश: शिव, विष्णु और शक्ति की आराधना की गई है, उनकी लीलाओं का गान किया गया है. इस तरह ये रचनाएं उन्हें वेदव्यास के बाद पहला ऐसा रचनाकार भी बनाती हैं, जो खुले तौर पर पौराणिक और वैदिक हिन्दूवाद को जोड़ता है. उनके इसी विचार की विस्तृत व्याख्या आगे चलकर वेदांत के पंडित रामानुज, माधव और वल्लभ भी करते हैं. यही नहीं, शंकराचार्य ने तंत्र पर भी लिखा है और उनके उस साहित्य ने भी समय-समय पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है. लेकिन शून्यवाद और निराकार ब्रह्म की बात करते हुए भी शंकराचार्य 12 ज्योतिर्लिंग, 18 शक्तिपीठ और चार विष्णुधाम की तीर्थयात्रा पर भारत को जोड़ने के लिए निकल जाते हैं.

शंकराचार्य केरल से कश्मीर, पुरी (ओडिशा) से द्वारका (गुजरात), श्रृंगेरी (कर्नाटक) से बद्रीनाथ (उत्तराखंड) और कांची (तमिलनाडु) से काशी (उत्तरप्रदेश) तक घूमे. हिमालय की तराई से नर्मदा-गंगा के तटों तक और पूर्व से लेकिर पश्चिम के घाटों तक उन्होंने यात्राएं कीं. इस तरह वे सिर्फ विशाल व्यक्तित्व वाले दार्शनिक के रूप में ही नहीं, बल्कि एक ऐसे राजनैतिक संत के तौर पर भी स्थापित होते हैं, जिसने पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने में मदद की. वह भारतीय उपमहाद्वीप, जिसका वर्णन हिन्दू, बौद्ध और जैन साहित्य में कहीं जम्बू द्वीप (जम्बुल के पेड़ के आधार पर रखा गया नाम) तो कहीं भारत वर्ष (राजा भरत के नाम पर रखा गया) के रूप में मिलता है. कहना गलत न होगा कि शंकराचार्य ने अपने दर्शन, काव्य और तीर्थयात्राओं से उसे एक करने का प्रयास किया.

शंकराचार्य का दौर और उसका ऐतिहासिक संदर्भ

शंकराचार्य अपनी रचना ब्रह्मसूत्र में एक जगह (1.3.33) टिप्पणी करते हैं, ‘कोई कह सकता है कि यहां कभी कोई चक्रवर्ती सम्राट था ही नहीं, क्योंकि अभी इस तरह का कोई राजा नहीं है.’ उनकी इस टिप्पणी से यह बात पुख्ता होती है कि उनके समय में समाज बंटा हुआ था और उस वक्त तक चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को नकारा जाने लगा था. जबकि हिन्दू, बौद्ध और जैन पौराणिक कथाओं में यह अवधारणा असरदार तरीके से मिलती है. शायद यही वजह है कि ज्यादातर इतिहासकर मानते हैं कि शंकराचार्य आठवीं शताब्दी यानी बुद्ध के 1300 साल बाद के दौर में रहे होंगे. यह भारतीय इतिहास में एक तरह के संक्रमण का दौर था.

उस दौर में शंकराचार्य ने पूरे भारत वर्ष का भ्रमण करते हुए हर जगह सिर्फ एक ही भाषा ‘संस्कृत’ में संवाद किया, जो इस भूभाग के उच्च बौद्धिक वर्ग को जोड़ती थी


गुप्त साम्राज्य का इस दौर में पतन हो रहा था और मुस्लिम साम्राज्य की दक्षिण एशिया में जीत पर जीत हो रही थी. कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी. नर्मदा के दोनों किनारों पर राष्ट्रकूट साम्राज्य का बोलबाला था जिनके उत्तर के प्रतिहारों, पूर्व के पाल और दक्षिण के चालुक्यों से लगातार संघर्ष हो रहे थे. उस वक्त तक क्षेत्रीय भाषाएं और लिपि जो आज के दौर में चल रही हैं, उभरी नहीं थीं. दक्षिण भारतीय मंदिरों में ‘गोपुरम’ (मुख्य प्रवेश द्वार) का जो गुणशिल्प आज मिलता है, उस दौर में नहीं था. रामायण का तमिल में अनुवाद नहीं हुआ था. और जयदेव ने उस ‘गीत गोविन्द’ की रचना नहीं की थी, जिसने पहली बार दुनिया को कृष्ण की राधा से परिचित कराया. इस दौर में शंकराचार्य ने पूरे भारत वर्ष का भ्रमण करते हुए हर जगह सिर्फ एक ही भाषा ‘संस्कृत’ में संवाद किया, जो इस भूभाग के उच्च बौद्धिक वर्ग को जोड़ती थी.

केरल से निकले इस संत ने काशी में एक चांडाल को भी अपना गुरु बनाया था

शंकराचार्य का जन्म केरल के एक गरीब ब्राह्मण (नंबूदरी) परिवार में हुआ. उनके पिता का नाम शिवगुरू था. यह नाम इस बात का संकेत देता है कि वे शायद शैव सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते होंगे. शंकराचार्य छोटे ही थे, जब उनके पिता का निधन हो गया. ऐसे में उनका पालन-पोषण उनकी मां ने किया. उन्हें आर्यम्बा के नाम से जाना जाता है. वे कृष्ण भक्त थीं, जो वैष्णव सम्प्रदाय के आराध्य देव हैं. मां के काफी विरोध के बावजूद शंकराचार्य ने संन्यास का रास्ता चुना क्योंकि वे वेदान्तिक दृष्टिकोण के समर्थक थे. यहां बताते चलें कि उनके समय में वैदिक दृष्टिकोण दो हिस्सों में बंट गया था. पहला- वेदान्तिक, जो कि संन्यास मार्ग या ज्ञान मार्ग का समर्थक था. दूसरा- मीमांसक, जो ग्रहस्थ मार्ग या कर्म मार्ग का समर्थक था. बहरहाल, शंकराचार्य के गुरु का नाम था, गोविन्द भगवत्पाद, जिनके नाम से ही लगता है कि वे वैष्णव थे. वे नर्मदा के किनारे कुटिया बनाकर रहते थे और बौद्धवाद से काफी प्रभावित थे.

मध्य भारत में अपने गुरु के पास काफी समय तक रहने के बाद शंकराचार्य काशी चले गए. वहां उनकी मुलाकात एक चांडाल (श्मशान घाट में काम करने वाला) से हो गई. तब हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था में चांडाल का काम सबसे निम्न स्तर का माना जाता था. जब शंकराचार्य का सामना उस चांडाल से हुआ, तो उन्होंने उससे रास्ते से परे हटने को कहा. जवाब में वह उनसे हाथ जोड़कर बोला, ‘क्या हटाऊं? अपना शरीर या आत्मा? आकार या निराकार? सीम या असीम?’ इन सवालों ने शंकराचार्य भीतर तक झकझोर दिया. उन्होंने उस चांडाल को अपना गुरु बना लिया. चूंकि उस वक्त वे पारम्परिक वर्ण व्यवस्था में ही पूरी तरह रचे-पगे हुए थे, जिसमें जातिगत शुद्धता और प्रदूषण आदि मायने रखते हैं, इसलिए उनका यह कदम विशेष अहमियत रखता था. इस घटना ने उन्हें ‘मनीष-पंचकम’ की रचना के लिए प्रेरित किया, जिसमें उन्होंने द्वैत का निर्माण करने वाले विभाजनों से आगे देखने की कोशिश की और अद्वैत की पुष्टि की. जाति से ऊपर उठने के लिए यहां बौद्धिकता एक उपकरण की तरह नजर आई.

कहा जाता है कि शंकराचार्य अपनी योगशक्ति के बल पर कश्मीर के राजा आमरू की मृत देह में समा गए थे. इस तरह उस देह को चेतन्य कर उन्होंने उसमें रहते हुए लम्बे समय तक सभी तरह के दैहिक सुखों का भोग किया


इसके बाद बिहार में शंकराचार्य का सामना महान मीमांसक विद्वान मंडन मिश्र से हुआ. शंकराचार्य ने उन्हें इस बात पर सहमत कर लिया कि कर्म मार्ग की तुलना में ज्ञान मार्ग श्रेष्ठ है. लेकिन इसी दौरान, मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती ने बड़ी चतुराई से शंकराचार्य के सामने कामशास्त्र के ज्ञान के बारे में सवाल दाग दिया. इसके जवाब में जब शंकराचार्य ने अनभिज्ञता जताई तो वह बोली, ‘आपने (शंकराचार्य) ऐन्द्रिक आनंद और भावनात्मक निकटता को महसूस नहीं किया. उसके बारे में आपको जानकारी नहीं है, तो आप कैसे दुनिया को जानने-समझने का दावा कर सकते हैं.’ इस घटना के बाद क्या हुआ, यह रहस्य है. बल्कि बाद में शुद्धतावादियों ने इस जानकारी को भी संपादित कर दिया.

वैसे कहा जाता है कि शंकराचार्य अपनी योगशक्ति के बल पर कश्मीर के राजा आमरू की मृत देह में समा गए थे. इस तरह उस देह को चेतन्य कर उन्होंने उसमें रहते हुए लम्बे समय तक सभी तरह के दैहिक सुखों का भोग किया. उन्होंने अपने कामोत्तेजक प्रेमकाव्य ‘आमरू-शतक’ में इन अनुभवों का वर्णन भी किया. उसके बाद उन्होंने पहले कश्मीर और फिर श्रृंगेरी (इन दिनों कर्नाटक में) में शारदा के मन्दिर बनवाए. इन मन्दिरों में स्थापित देवी प्रतिमा के एक हाथ किताब है, इससे पहली नजर में यह सरस्वती की मूर्ति ही मान ली जाती है. लेकिन इसके साथ दूसरे हाथ में बर्तन और एक तोता भी है, जो कि गृहस्थ और ऐन्द्रिक जीवन के प्रतीक हैं. इससे शंकराचार्य द्वारा भौतिक सुखों की पुष्टि करने का संकेत भी मिलता है. दूसरे शब्दों में तंत्र की पुष्टि. श्रीयंत्र, जो देवी का ज्यामितीय चिन्ह है, से उनका संबंध भी इसकी पुष्टि करता है. शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह देवी उभय भारती से प्रेरित है या लगातार बुद्धिमत्ता की बातें करती रहने वाली उनकी मां से यह अनुमान ही लगाया जा सकता है.

एक और खास बात है कि शंकराचार्य अपनी मां का अंतिम संस्कार करने के लिए केरल लौटे थे. उन्होंने अपनी मां से उन्हें सन्यासी बनने की अनुमति देते वक्त ऐसा करने का वादा किया था. वैदिक परम्परा के मुताबिक, एक बार गृहस्थी छोड़ने के बाद संन्यासियों को गृहस्थ जीवन के कोई भी संस्कार करने की इजाजत नहीं होती. लेकिन शंकराचार्य साधारण संन्यासी नहीं थे बल्कि स्थापित मान्यताओं को नकारने वाले क्रांतिकारी थे. जब उन्हें श्मशान घाट में अपनी मां का अंतिम संस्कार करने की इजाजत नहीं दी गई तो उन्होंने अपने घर के पीछे वाले हिस्से में उनका अंतिम संस्कार कर दिया और अपना वादा निभाया.

कई लोग मानते हैं कि शंकराचार्य का दर्शन आम जन के लिए नहीं है. वह अभिजात्य बौद्धिक वर्ग के लिए है. और ऐसा मानने वाले लोग भी ज्यादा खुद को इसी वर्ग का प्रतिनिधि मानते हैं


इसके बाद वे पूरे देश में घूमे. चारों दिशाओं में अपने मठ स्थापित किए. संन्यासियों के लिए अखाड़े स्थापित किए, जिनमें शामिल होने वाले साधुओं को उनकी बौद्धिक, शारीरिक और यौगिक शक्ति से हिन्दू धर्म की रक्षा का भार सौंपा गया. माना जाता है कि उन्होंने ही तीर्थ क्षेत्रों और कुंभ मेलों में इन अखाड़ों के जुटने का चलन शुरू किया. इन सारे कामों को करने के बाद महज 32 साल की उम्र में हिमालय क्षेत्र में शंकराचार्य का देहांत हो गया.

ऐसा कहा जाता है कि उनके पिता की पुत्र की कामना पूरी करते हुए भगवान ने उन्हें दो विकल्प दिए थे. एक - कम जीवनकाल वाला लेकिन विलक्षण प्रतिभा से संपन्न पुत्र, दूसरा - अधिक जीवनकाल वाला साधारण पुत्र. पिता ने पहला विकल्प चुना. उनका जन्मजात प्रतिभा से संपन्न पुत्र एक बार आठ साल की उम्र में ही देह छोड़ने चला था, लेकिन ईश्वर ने प्रसन्न होकर उसे आठ साल की उम्र और दे दी. ताकि वह वेदों के सत्य की खोज कर सके. फिर उसकी प्रतिभा और कौशल को देखकर खुद वेदव्यास ने उसे 16 साल की उम्र और वरदान में दी थी. ताकि वह युवक अपने अर्जित ज्ञान को पूरे भारत वर्ष में फैला सके. जो शंकराचार्य ने बखूबी किया.

आदि शंकराचार्य के बारे में विवाद

कई लोग मानते हैं कि शंकराचार्य का दर्शन आम जन के लिए नहीं है. वह अभिजात्य बौद्धिक वर्ग के लिए है. और ऐसा मानने वाले लोग भी ज्यादातर खुद को इसी वर्ग का प्रतिनिधि मानते हैं. लेकिन वास्तव में उन्होंने शंकराचार्य के विविधतापूर्ण योगदान को समग्रता में ठीक तरह से समझा ही नहीं. भारतीय इतिहास के कई अन्य व्यक्तित्वों की तरह ही शंकराचार्य के जीवन को भी कल्पना और वास्तविकता के घालमेल से बचा पाना बेहद मुश्किल है. जानकार भी इस बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हैं कि कौन सा काम प्रामाणिक रूप से उनका अपना है और कौन सा ऐसा है, जिसे बाद के समय में वैधानिकता और लोकप्रियता हासिल करने के लिए उनसे जोड़ दिया गया. उनके बारे में अपने हिसाब से कौन क्या चुनता है, यह उसी पर निर्भर करता है. उदाहरण के लिए, उन्हें भगवान शंकर का अवतार कहा सकता है. हिन्दुत्व का प्रणेता भी, जिन्होंने बौद्ध सम्प्रदाय को बाहर का रास्ता दिखाया. सवर्ण जाति के हिन्दू, तर्कवेत्ता और कवि के अलावा विरोधाभासी विचारों में तालमेल बिठाने वाले के तौर पर भी उन्हें देखा-समझा-स्वीकार किया जा सकता है.

शंकराचार्य को समझने के मामले में यही गडबड़ी हो रही है कि उनके कम-बौद्धिक और महत्वाकांक्षी समर्थकों ने उनकी शिक्षाओं का, दर्शन का स्वरूप बिगाड़ दिया है


दिलचस्प बात है कि उनका अतिशयोक्तिपूर्ण जीवन चरित्र उनके जन्म के कई साल बाद लिखा गया. उसमें उनके योगदान को ‘दिग्विजय’ की तरह पेश किया गया है. यहां तक कि इसमें मंडन मिश्र जैसे दार्शनिकों के साथ उनके शास्त्रार्थ को भी संघर्ष की तरह पेश किया गया है, जिसमें शंकराचार्य को विजेता बताया गया है. लेकिन इस तरह के निष्कर्ष का क्या अर्थ है? इसकी संभावना बहुत कम है कि कोई वैदिक दार्शनिक इस तरह के किसी काम में शामिल रहा होगा. क्योंकि वेदों में तो ‘अहं’ को ऐसा ग्रहण बताया गया है, जो ब्रह्म से साक्षात्कार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. ऐसे में सोचने वाली बात है कि जो विद्वान देश भर में वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए निकला हो, वह क्या ऐसे किसी अहं का शिकार हो सकता है? अहं तो व्यक्ति को हिंसा-प्रतिहिंसा की तरफ ले जाता है. और उसके बाद व्यक्ति संवाद के बजाय विवाद का रास्ता चुनता है. जिसमें किसी की बात सुनी या समझी नहीं जाती, बस काटी जाती है.

संभवत: शंकराचार्य को समझने के मामले में यही गडबड़ी हो रही है. उनके कम-बौद्धिक और महत्वाकांक्षी समर्थकों ने उनकी शिक्षाओं का, दर्शन का स्वरूप बिगाड़ दिया है. क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ प्रभुत्व स्थापित करने के विचार का समर्थन करते हैं. लिहाजा, ऐसे विचार और विचारकों को अनसुना-अनदेखा कर बेहतर वैकल्पिक रास्ता अपनाना बेहतर होगा.

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