Sunday, 12 February 2017
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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-1
सम्पादक - राघव शरण शर्मा
ब्रह्मर्षि वंश विस्तार
उत्तर परिशिष्ट
1. वाटधन
इस ग्रन्थ के 53 आदि पृष्ठों में प्रसंगवश जिन वाटधन ब्राह्मणों का उल्लेख हुआ हैं उसके सम्बन्ध में लोगों के दिलों में जो एकाध शंकाएँ हुआ करती हैं उन्हें दूर कर देना जरूरी हैं। यद्यपि उन ब्राह्मणों से हमें कोई विशेष तात्पर्य नहीं हैं और न हमारे या किसी और के ही पास कोई ऐसा सबूत हैं कि उन्हीं के वंशज महियाल, तगे या भूमिहार आदि हैं और न हमने ऐसा स्पष्ट रूप से कहीं लिखा ही हैं। तथापि न्याय के नाते ही हमें ऐसा करना पड़ता हैं। न जाने क्यों कुछ दिनों से साधारणत: लोगों की यह धारणा हो चली थी कि राज्य, युद्ध या कृषि आदि ब्राह्मणों के धर्म नहीं हैं। फलत: इसी भ्रान्त धारणा के आधार पर कितने अनर्थ हो गये हैं जिनका दिग्दर्शन और इस धारणा का निराकरण ग्रन्थ में किया जा चुका हैं, अस्तु। इसी धारणा से लोगों का यह कहना हैं कि यदि वाटधन ब्राह्मण शुद्ध ब्राह्मण होते तो एक तो पाण्डव उनके साथ युद्ध कर उन्हें परास्त न करते। दूसरे वे लोग नजर देने के समय दरवाजे पर ही रोक न दिये जाते। भीतर यज्ञशाला में अवश्य जाने पाते। मगर वे रोके गये यह तो द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:, प्रवेशं लेभिरे न च-वे दरवाजे पर ही रोक दिये गये, भीतर न जाने पाये, से स्पष्ट ही हैं। इसलिए मानना होगा कि वे शुद्ध नहीं, किन्तु व्रात्य या पतित ब्राह्मण थे, जैसा कि उन्हीं श्लोकों की टीका में नीलकण्ठ ने भी अपने 'भारतभावप्रदीप' में लिख दिया हैं कि 'वारिता इत्येन तेषामत्यन्तहीनता दर्शिता-''द्वार पर रोके जाने से उनकी अत्यन्त नीचता सूचित होती हैं।'' इसलिए वे ही ब्राह्मण थे जिनके बारे में मनु ने 10वें अध्याय में लिखा हैं कि:
व्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्मा भूर्जकण्टक:।
आवन्त्यवाटधानौ च पुष्पधा: शैख एव च॥ 21॥
''यथा समय उपनयनादि संस्कार रहित जो पतित व व्रात्य ब्राह्मण हो उसके ही वंशज भूर्जकण्टक, आवन्त्य, वाटधन, पुष्पधा और शैख कहाते हैं।''
यद्यपि इस शंका का विचार करके ही ग्रन्थ के उसी प्रसंग के 54वें पृष्ठ में टिप्पणी दे दी गयी हैं कि विचारवान उनके रोके जाने का असली कारण समझकर शान्त हो जायेगे। मगर जिन्हें उतनी भी बुद्धि नहीं हैं और जिन्होंने महाभारतादि ग्रन्थ पढ़े भी नहीं हैं, उनके लिए उस विचार का स्पष्टीकरण किया जाता हैं। पहली शंका जो युद्ध के बारे में हैं उसका उत्तर तो यही हैं कि वे आततायी थे और आततायी के साथ युद्ध करने या उसे मारने में कोई दोष नहीं हैं, चाहे वह कोई भी हो। अतएव मनु ने (8-350, 351) लिखा हैं कि-
गुरुं वा बालवृध्दौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन॥ 350॥
नाततायिवधो दोषो हन्तुर्भवति कश्चन॥ 351॥
''गुरु, बालक, वृद्ध अथवा सर्व वेदशास्त्रज्ञ ब्राह्मण आततायी के चढ़ आने पर बिना विचारे ही उसे मार डाले। इससे मारने वाले को कोई दोष नहीं होता।'' अब रही आततायी की बात। उसका स्वरूप वसिष्ठस्मृति (3-16) ये यों हैं-
अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रापाणिर्धानापह:।
क्षेत्रदारापहत्तरा च पडेते ह्याततायिन:॥
''घर जलाने वाला, विष देने वाला, हाथ में हथियार लेकर चढ़ आने वाला, धन हरने वाला और जमीन और स्त्री को लूटने वाला, ये छह आततायी कहाते हैं।'' इस प्रकार वाटधन ब्राह्मण और द्रोण, कृपाचार्य और अश्वत्थामा वगैरह भी आततायी श्रेणी में आ गये। इसी से धर्मप्राण युधिष्ठिर ने उन सभी के साथ युद्ध किया। यहाँ तक कि उन्हें मार भी डाला। इसीलिए अपने विद्यागुरु परशुरामजी के साथ 21 दिनों तक भीष्म ने युद्ध कर उनके दाँत खट्टे कर दिये और बड़े परिश्रम से किसी प्रकार युद्ध से हटाये जा सके। उन्होंने उद्योगपर्व (179-24) में स्पष्ट कह दिया हैं कि:
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथंप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।
''यदि गुरु भी घमण्ड में चूर हो, विपरीत मार्ग पर चले और कार्य-अकार्य का विचार न करे तो उसको दण्डित करना चाहिए और उसे छोड़ देना चाहिए।''
अब रही द्वार पर रोके जाने की बात। असल में यज्ञ का पूरा ब्योरा न जानने और वहाँ के पूर्वापर ग्रन्थ के न देखने से ही अथवा उसकी विस्मृति से ही लोगों को भ्रम हो गया हैं। युधिष्ठिर के यज्ञ के नजरों का वर्णन सभापर्व में ही हैं और वहाँ कहीं-कहीं लिखा हैं कि 'व्यापागच्छन्युधिष्ठिरम्'-'लोग नजर लेकर युधिष्ठिर के पास गये।' मगर इसका आशय यह कदापि नहीं हैं कि नजरें युधिष्ठिर के हाथ दी जाती थीं। वह तो यजमान की दीक्षा ग्रहण कर यज्ञक्रिया में प्रवृत्त थे। उसका आशय सिर्फ यही हैं कि सभी नजरें युधिष्ठिर के ही लिए थीं। उस समय काम बाँट दिया गया था, जिसमें दुर्योधन के जिम्मे सिर्फ नजर (भेंट) लेने का काम था। जैसा कि 35वें अध्याय में लिखा हैं-
एवमुक्त्वा स तान्सर्वान्दीक्षित: पाण्डवाग्रज:।
युयोज स यथायोगमधिकारेष्वनन्तरम्॥ 4॥
भक्ष्यभोज्याधिकारेषु दु:शासनमयोजयत्।
परिग्रहे ब्राह्मणनामश्वत्थामानमुक्तवान्॥ 5॥
दुर्योधनस्त्वर्हणानि प्रतिजग्राह सर्वश:॥ 9॥
''दीक्षा के बाद युधिष्ठिर ने लोगों को यथा योग्य कामों में पृथक्-पृथक् नियुक्त कर दिया। इसके अनुसार दु:शासन भोजन के अधिकार पर नियुक्त हुआ, अश्वत्थामा ब्राह्मणों के उठाने-बिठाने में और दुर्योधन सभी प्रकार की सर्वश:-नजरों के लेने में।'' इसी से दुर्योधन को पीछे ताप भी हुआ था; कारण, वह धन उसे असह्य हो गया। इसी दु:ख को उसने 49-50 अध्यायों में कुछ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नजरों का वर्णन करते हुए बताया हैं, जिसमें उल्लेख योग्य काम्बोज देश के राजा, वाटधन देशीय ब्राह्मणों और समुद्र तथा सोम की अत्यन्त प्रसिद्ध और अभिषेकोपयोगी घृत, मधु, दही आदि वस्तुएँ 49वें अध्याय के 18-26 श्लोकों में लिखी हैं। अनन्तर विशेषत: लोगों की भीड़ और शंखादि के शब्दों का वर्णन करते हुए सामान्यत: धन की बहुलता कही गयी हैं और दुर्योधन ने कहा हैं कि मुझे चैन नहीं हैं, मेरे हृदय में आग लगी हैं-शान्ति न परिगच्छामि दह्यमानेन चेतसा।' फिर बदला लेने के लिए शकुनी के द्यूतवाली युक्ति बतलाने पर यह बात धृतराष्ट्र से कही गयी हैं। धृतराष्ट्र और विदुर दोनों ने रोका हैं कि ऐसा न करो। मगर अन्त में धृतराष्ट्र के भी ढल जाने पर विदुर रंज होकर भीष्म के पास चले गये हैं। इसके बाद 50वें अध्याय में विदुर की बात को विचार कर फिर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को रोका और दु:ख का वास्तविक कारण पूछा हैं। पर, दुर्योधन ने हठ कर अपना दुखड़ा सुनाना शुरू किया हैं। और साधारणतया अनाधिक्य दिखला कर कहा हैं कि मेरे जीने को धिक्कार हैं। क्योंकि धन का
असह्य दु:ख तो था ही, सभा में मेरी हँसी भी की गयी। यदि उस पर कुछ
बोलता तो मारा जाता। ''वहाँ तो इतना धन नजर के रूप में आया था कि उन
अमूल्य रत्नों का आर-पार ही न था। मुझे ज्येष्ठ भ्राता समझ मेरे सत्कारार्थ युधिष्ठिर ने मुझे ही उन नजरों के लेने को नियत किया था। पर वह धन इतना अधिक
था और उसे देख मुझे इतनी खिन्नता हो गयी थी कि मेरा हाथ चलता ही न
था। इससे दूर-दूर से आये हुए नजर देने वालों को द्वार पर ही खड़े रह कर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी'' :
ज्येष्ठोऽयमिति मां मत्वा श्रेष्ठश्चेतिविशांपते।
युधिष्ठिरेण सत्कृत्य युक्तो रत्नपरिग्रहे॥ 22॥
उपस्थित:नां रत्नानां प्रेष्ठानामर्वंहारिणाम।
नादृश्यत पर: पारो नापास्तत्रा भारत॥ 24॥
नमे हस्त: समभवद्वसुतत्प्रतिमृह्णत:।
अतिष्ठन्त मयि श्रान्ते गृह्य दूराहृतं वसु॥ 25॥
फिर 51वें अध्याय में अपने देखे मुख्य-मुख्य धनों के नाम सुनाने लगा हैं :
यन्मया पण्डवेयानां दृष्टं तच्छृणु भारत।
आहृतं भूमिपालैर्हि वसुमुख्यं ततस्तत:॥ 1॥
नाविदं मूढमात्मानं द्ष्ट्वाहं तदरेर्धानम्।
फलतो भूमितो वापि प्रतिपद्यस्व भारत॥ 2॥
यह वर्णन पूरे 51वें और 52वें के 40 के श्लोकों में पूरा हुआ हैं। इसी वर्णन प्रसंग में नजर दाताओं के द्वार पर ही रोके जाने के कारण की बात भी आ गयी हैं। बात यह हैं कि जब दुर्योधन बड़ी-बड़ी कीमती नजरें लेते-लेते कुछ तो परिश्रम और
कुछ भीतरी जलन से थक गया और फलत: उसका हाथ रुक गया तो नजर
वाले गृह के द्वार पर बड़ी भीड़ हो गयी और लोगों ने द्वारपालों को दिक करना और पूछना शुरू कर दिया कि हम लोग कब तक यहीं बाहर ही खड़े रहेंगे, भीतर जाने क्यों नहीं देते हो? तो उन्होंने सबको सुना दिया कि अपनी-अपनी पारी आने पर बाहर ही नजरें देकर आप लोग भीतर जाने पायेंगे, यह महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा हैं :
तत्रास्था द्वारपालैस्ते प्रोच्यन्ते राजशासनात्।
कृतकाला: सुवलयस्ततो द्वारमवाप्स्यथ॥ 19॥
इस श्लोक के 'कृतकाला:' पद का अर्थ नीलकण्ठ ने भी 'पारी आने पर' ही किया हैं-'कृतकाला: कृतप्रस्तावा:।' बस, इसी 51-52 अध्याय के बलिके लगातार वर्णन प्रसंग के वाटधन देशीय ब्राह्मणों के भी नजरों का वर्णन आया हैं, जो 51वें के 5-7 श्लोकों के हैं। इससे स्पष्ट हैं कि द्वारपालों ने जो पारी-पारी से देकर भीतर जाने को कहा हैं वह सभी के लिए हैं, न कि केवल किरात, दरद, काश्मीर आदि के निवासियों के ही लिए हैं। कारण प्रसंग और सिलसिला एक ही हैं और उसी सिलसिले में सभी आये हैं। हाँ 49वें अध्याय के प्रासंगिक वर्णन का यदि इस सिलसिले से कोई सम्बन्ध न हो तो कोई बात भी नहीं हैं। मगर वही बात फिर 51, 52 में कही गयी हैं। जबकि 50वें अध्याय के 24वें श्लोक में दुर्योधन ने साफ-साफ कह दिया हैं कि मेरे हाथ रुक जाने से लोगों को ठहरकर इन्तजार करना पड़ता था और वहाँ पर नीलकण्ठ ने भी इसे स्वीकार किया हैं कि : ''समभवत् समर्थो नाभवत् अतिष्ठन्त प्रतीक्षा कृतवन्तो वसुन आहत्तरारो वसु दातुम्''। तो फिर समझ में नहीं आता कि उन वाटधन ब्राह्मणों के ही द्वार पर रोके जाने का नीलकण्ठ ने भी दूसरा अभिप्राय क्यों निकाला, न कि औरों के रोके जाने का भी? द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:, प्रवेशं लेभिरे नच, ''ये अथवा एतदर्थक दूसरे शब्द पूर्वोक्त दो अध्यायों के लगभग 6, 7, 13, 15, 18, 24, 29, 31 तथा 6, 12, 35, 37 श्लोकों में 12 बार आये हैं और कई बार 'वलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:'' यह आधा श्लोक ही आया हैं। शल्य भगदत्ता और पूर्वदेशीय सभी राजाओं के लिए भी यही शब्द आये हैं। चोल और पाण्डय देशीय राजाओं के लिए भी लिखा गया हैं कि उन्हें प्रवेश न मिला-'चोलपांडयावपिद्वारं न लेभाते ह्युपस्थितौ।' फिर रोके ही जाने से और लोग हीन न होकर केवल वाटधन देशीय ब्राह्मण ही क्यों हीन समझे जाये? और नीलकण्ठ की इस अकाण्ड ताण्डव कल्पना में प्रमाण ही क्या? किसी-किसी का यह भ्रम कि उनकी नजरें भी कबूल न हुईं, निर्मूल हैं। क्योंकि वे लोग सोने के कमण्डलु वगैरह लाये थे और वे घृतपूर्ण भी थे, जैसा कि 'कमण्डलूमुपादायजातरूपमयान्शुभान्' श्लोक और उसकी नीलकण्ठी टीका 'कमण्डलूनिति घृत पूर्णानिति द्रष्टव्यम्' से स्पष्ट हैं कि वह हैं अभिषेक सामग्री जिसके लाने वाले सिर्फ वाटधन ब्राह्मण ही थे, जैसा कि नीलकण्ठ ने स्वयं माना हैं। फिर उसका इनकार कैसे किया जा सकता था? यह कहना तो निरी मूर्खता हैं।
उक्त श्लोक के 'दासनीया:' शब्द को देखकर किसी-किसी का यह अनुमान हैं कि वे ब्राह्मण ही दास योग्य थे। इसीलिए नीच माने गये। मगर यह भी भ्रम ही हैं। 'दासनीयाश्च' में जो उस शब्द के साथ 'च' हैं जिसका अर्थ 'और' हैं, उससे स्पष्ट हैं कि उन ब्राह्मणों के सिवाय दास योग्य शूद्रादि भी उनके साथ थे, जो नजरों को साथ में ढोकर लाये थे। इसे नीलकण्ठ भी मानते हैं। एक बात और हैं। वहाँ पाठ-भेद हैं। वह शब्द तीन ढंग का मिलता हैं, दासनीया, दाशनीया: और दर्शनीया:। इसमें 'दर्शनीय' पाठ में तो दर्शन योग्य यह अर्थ सुगम ही हैं, मगर दासनीय या दाशनीय का अर्थ दास योग्य न होकर 'बड़े-बड़े दाता' यही अधिक उचित हैं। जैसे प्रवचनीय, मोहनीय, कोपनीय आदि शब्दों के अर्थ 'प्रवचनकर्ता या पढ़ाने वाला' इत्यादि होते हैं जैसा कि न्याय दर्शन के वात्स्यायन भाष्य के चतुर्थाध्याय के प्रथमाद्दिक के 6ठे सूत्रा के भाष्य की तात्पर्यटीका में श्री वाचस्पति मिश्र ने लिखा हैं। उसी प्रकार 'दाशृ या दाष्ट' दाने धातु से 'अनीयर्' प्रत्यय कर्ता में करके 'बड़े-बड़े दाता' यही अर्थ ठीक होगा।
एक शंका लोगों को और भी होती हैं। लोगों का कहना हैं कि वाटधन, वाधीक, गन्धार आदि देशों में ब्राह्मण रहते ही नहीं। इसका कुछ उत्तर तो ग्रन्थ में ही दिया जा चुका हैं। भरत को ननिहाल से लाने के लिए दूतों के जाने के प्रसंग में अयोध्या काण्ड में वाल्मीकिजी लिखते हैं-''दूत लोग वाधीक देश के वेद पारंगत और अंजली से जल पीने वाले ब्राह्मणों को देखते हुए उस देश के बीच मार्ग से सुदामा पर्वत को गये'' :
अवेक्ष्यांजलिपानांश्चब्राह्मणान्वेदपारगान्।
ययुर्मध्येनबाल्हीकान्सुदामानंच पर्वतम्॥ 18। 68॥
कर्णपर्व के 42-43 प्रभृति अध्यायों में कर्ण और शल्य का परस्पर वाद-विवाद और हँसी-मजाक आया हैं और परस्पर एक-दूसरे को और उसके देशवासियों को भी नीच बनाने का यत्न किया गया हैं। वहाँ गन्धार आदि अनेक देशों का नाम आया हैं। अन्त में शल्य ने डपट कर कहा हैं कि :
सर्वत्रा ब्राह्मणा: सन्ति सन्ति सर्वत्रा क्षत्रिया:।
वैश्या: शूद्रास्तथा कर्ण स्त्रिय: साधव्यश्च सुव्रया:॥ 42॥
रमन्ते चावहासेन पुरुषा: पुरुषै: सह।
अन्योन्यमवरक्षन्तो देशे देशे समैथुना:॥ 43॥
परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।
आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्यति॥ 44॥
सर्वत्रा सन्ति राजान: स्वं स्वं धर्ममनुव्रता:।
दुर्मनुष्यान्निगृह्णन्ति सन्ति सर्वत्रा धार्मिका:॥ 45॥
न कर्ण देशसामान्यात्सर्व: पापं निषेवते।
यादृशा: स्वस्वभावेन देवा अपि न तादृशा:॥ 46। 45॥
''हे कर्ण सभी देशों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा सती स्त्रियाँ रहा करती हैं। सर्वत्रा ही पुरुष लोग मैथुन करने वाले और पुरुषों के साथ हँसी करने वाले होते हैं। सभी दूसरों के दोष देखने में निपुण होते हैं। पर अपना दोष नहीं देखते अथवा देखकर भी भूल जाते हैं। सभी देशों में धर्मात्मा पुरुष एवं स्वधर्म पालक राजे रहा करते हैं जो दुष्टों का निग्रह करते हैं। ऐसा कोई भी देश नहीं जहाँ सबके-सब पापी ही हों। सभी जगह ऐसे बहुत से पुरुष होते हैं जैसे देवता भी नहीं होते।'' इसी प्रसंग में यह भी लिखा हैं, कि ''उत्तर दिशा के देशों की रक्षा ब्राह्मणों के सहित भगवान् चन्द्रमा करते हैं- उदीचीं भगवान्सोमो ब्राह्मण: सहरक्षति।' 'उदीची' का अर्थ 'उत्तर के देश' ही हैं न कि उत्तर दिशा। क्योंकि देशों और वहाँ के निवासियों का ही प्रसंग हैं।
एक बात और भी हैं। यदि गन्धार, मद्र, केकय आदि देशों में जो पश्चिम पंजाब में हैं और ये ब्राह्मण न रहते तो पाण्डु, धृतराष्ट्र और दशरथ के विवाह कैसे होते? क्या ये सब संस्कार बिना आचार्य, पुरोहित आदि के ही वहाँ के क्षत्रियादि के घर हो जाते थे? केकय देश से भरत के मामा युधाजित् ने अपने गुरु ब्रह्मर्षि अंगिरा के पुत्र को रामचन्द्र के पास कैसे भेजा था? जैसा कि वाल्मीकि रामायण (उ. कां. अ. 10) में लिखा हैं :
कस्यचित्त्वथ कालस्य युधाजित्केकयोनृप:।
स्वगुरुं प्रेषयामास राघवायमहात्मने॥ 1॥
गार्ग्यमंगिरस: पुत्रां ब्रह्मर्षिममितौजसम्॥ 2॥
''कुछ दिनों बाद केकय देश के राजा युधाजित् ने अंगिरा के पुत्र, गर्गहोत्री ब्रह्मर्षि और परम प्रतापी अपने गुरु को अयोध्या भेजा।'' सबसे बड़ी बात यह हैं कि उन देशों में सारस्वत और काश्मीरी आदि ब्राह्मण आज भी पाये ही जाते हैं।
एक बात यह भी देखने की हैं कि यदि वे वाटधन ब्राह्मण व्रात्य वा व्रात्यों के वंशज होते तो फिर उन्हें तो किसी भी श्रौतस्र्मात्ता कर्म का अधिकार न होता, जैसा कि पूर्व परिशिष्ट में दिखलाया जा चुका हैं। मगर वे लोग नीलकण्ठ के अनुसार ही त्रिकर्मा थे। यह बात तो ग्रन्थ में ही सिद्ध की गयी हैं। इसीलिए वाटधन का अर्थ नीलकण्ठ स्वयमेव कहते हैं कि ''वाटधन शब्द में व्यधिकरण बहुव्रीहि समास हैं और वाट शब्द का अर्थ क्षेत्र रक्षा के लिए बनी खाई या वृत्ति और 'धाना' का अर्थ हैं नयी बनी हुई। यह बात विश्वकोष में लिखी हैं। तदनुसार जिन देशों या देशवासी ब्राह्मणों के पास अन्न वाले खेतों के रक्षार्थ नयी-नयी खाईयाँ बनी थीं वही वाटधन कहलाए-वाटा: क्षेत्रादि वृत्तायस्तासां धाना अभिनवोद्भेदो येषामितिव्यधिकरणोबहुव्रीहि:, सस्यादिसम्पन्नेक्षेत्रादि वृत्तिमन्त इत्यर्थ:। वाटो वृत्तौ च मागरें चेति, धाना भृष्टयवे प्रोक्ता धान्याऽकेभिनवोदि्भदीतिविश्व:।'' इससे सिद्ध हैं कि वाटधन देश के रहने के कारण ही ब्राह्मण वाटधन कहे गये और वे पवित्र एवं कुलीन ब्राह्मण थे, न कि पतितों के वंशज। वे तो कोई दूसरे ही होंगे जिनका पता लगाना वैसा ही कठिन हैं जैसा भूर्जकण्टक, पुष्पधा आदि का।
2. धर्मारण्य और वाडव
जिस धर्मारण्य का विशेष जिक्र ग्रन्थ में आया हैं और जो सीतापुर के कानपुर तक बताया गया हैं उसके विषय में भी लोगों में बहुत सी भ्रान्त धारणाएँ हैं, जिनका निराकरण आवश्यक हैं। यह भ्रम भी लोगों को प्राय: इसी से हो जाता हैं कि प्राचीन ग्रन्थों में कई धर्मारण्यों का वर्णन हैं। परन्तु 'अन्धों के हाथी' की तरह जिसने जहाँ जो देख लिया उसी को मानकर शंका करने लगा कि आपने गलत लिखा हैं। यदि सभी ग्रन्थों के परिशीलन का सौभाग्य लोगों को मिले तो यह शंका ही न हो। जैसे भृगु, गौतमादि ऋषियों के नाम से बहुत से स्थान प्रसिद्ध हैं और वह सिर्फ इसलिए कि विभिन्न काल में विभिन्न स्थानों पर वे लोग रहे या वहाँ तप आदि किया। ठीक इसी तरह धर्म ने विभिन्न समय में जिन-जिन स्थानों में तप या निवास किया अथवा जो स्थान धर्म प्रधान थे वही धर्मारण्य कहलाये। इस प्रकार अभी तक हमारे जानते तीन स्थान धर्मारण्य के नाम से प्राचीन ग्रन्थों में विख्यात हैं, जिनमें से दो में तो धर्म के यज्ञ और तप करने का भी वर्णन मिला हैं। एक गया क्षेत्र, दूसरा बरेली, सीतापुर वगैरह का प्रदेश जिसे नैमिषारण्य भी कहते हैं और तीसरा पुष्कर क्षेत्र से दक्षिण-पश्चिम सिद्धपुर के निकट मोढ़ेरा के इर्द-गिर्द। इन तीनों का पता महाभारत के वनपर्व के तीर्थयात्रा प्रकरण, पर्पिुंराण के स्वर्ग खण्ड के तीर्थ निरूपण प्रकरण, स्कन्दपुराण के धर्मारण्य प्रकरण और वायुपुराण के गया महात्म्य से चलता हैं। वनपर्व में अजमेर (पुष्कर) से पृथ्वी की दक्षिणरावत्ता परिक्रमा करने में उसके बाद ही 82वें अध्याय में लिखा हैं कि-
कण्वाश्रमं ततो गच्छ्रेच्छीजुष्टं लोकपूजितम्।
धर्मारण्यं हि तत्पुण्यमाद्यं च भरतर्षभ॥ 45॥
''हे युधिष्ठिर पुष्कर के बाद कण्वाश्रम में जाना चाहिए जहाँ लक्ष्मी रहती हैं और लोकपूजित हैं। वह सबसे प्रथम का और पवित्र धर्मारण्य हैं।'' फिर 84वें अध्याय में लिखा हैं कि :
ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित:।
अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्॥ 82॥
ततो ब्रह्मसरो गत्वा धर्मारण्योपशोभितम्॥ 85॥
''उसके बाद ब्रह्मचर्यपूर्वक मन को एकाग्र करके गया जाने से अश्वमेधा का फल और कुल का उध्दार होता हैं। फिर (गया में ही) ब्रह्मसर में जाना चाहिए जो धर्मारण्य से शोभित हैं।'' यही बात पर्पिुंराण के स्वर्गखण्ड में भी हैं। स्कन्दपुराण में तो ब्रह्मखण्ड का एक भाग ही धर्मारण्य हैं जिसमें धर्म के तप आदि का सविस्तार वर्णन हैं। जिसे बरेली, सीतापुर वगैरह का प्रदेश या वर्तमान नैमिषारण्य ही कुछ विस्तृत रूप में धर्मारण्य सिद्ध होता हैं। जैसा कि उसके 25वें अध्याय में लिखा हैं :
मू. उ.- अथान्यत्संप्रवक्ष्यामि तीर्थमहात्म्यमुत्तामम्।
धर्मारण्ये यथानीता सत्यलोकात्सरस्वती॥ 1॥
भगवन्नैमिषारण्ये सत्रो द्वादशवार्षिके।
त्वयावतररिता ब्रह्मन्नदी या ब्राह्मण: सुता॥ 6॥
मा.- धर्मारण्ये मया विप्रा: सत्यलोकात्सरस्वती।
समानीता सुरेखाद्रौ शरण्या शरणर्थिनाम्॥ 10॥
''सूत ने कहा कि हम धर्मारण्य का दूसरा महात्म्य सुनाते हैं कि जैसे ब्रह्मलोक से वहाँ सरस्वती लायी गयी। मुनियों ने मार्कण्डेय से प्रश्न किया कि आप ने नैमिषारण्य में सरस्वती कैसे लायी। उन्होंने उत्तर दिया कि शरणोच्छुओं को शरण देने वाली सरस्वती पहले मैंने सुरेख पर्वत पर लाकर फिर धर्मारण्य में लायी।'' इससे धर्मारण्य में सरस्वती का लाया जाना सिद्ध हैं और शल्यपर्व से पता लगता हैं कि सरस्वती की सात धाराओं में एक नैमिषारण्य में थी। इससे नैमिषारण्य और धर्मारण्य एक ही सिद्ध होते हैं और पूर्व के श्लोकों से भी। आगे चलकर धर्मारण्य में यज्ञ करने के लिए श्री रामचन्द्रजी की यात्रा का वर्णन करते हुए 31वें अध्याय में लिखा हैं कि अयोध्या से प्रथम थोड़ा उत्तर और फिर पश्चिम जाकर 10वें दिन धर्मारण्य में पहुँचे। जैसा कि आगे हैं:
वसिष्ठं चाग्रत: कृत्वा महामाण्डलिकैनृपै:।
पुनश्चविधिं कृत्वां प्रस्थितश्चोत्तारां दिशम्॥ 82॥
वसिष्ठं चाग्रत: कृत्वा प्रतस्थे पश्चिमां दिशम्।
ग्रामाद्ग्रामतिक्रम्य देशाद्देशं वनाद्वनम्॥ 83॥
दशमेऽहनि सम्प्राप्तं धर्मारण्यमनुत्तामम्॥84॥
पहले जमाने में अयोध्या से 8-10 दिनों का पैदल रास्ता, सो भी नौकर-चाकर और दल-बादल के साथ और उत्तर-पश्चिम दिशा में वही बरेली, सीतापुर का प्रदेश ही हो सकता हैं। वहाँ यह भी लिखा हैं कि यज्ञ के बाद श्री रामजी ने सीताजी के नाम से सीतापुर बसाया हैं। अब भी सीतापुर में सीताजी की मूर्ति मौजूद हैं। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के 91-92वें सर्गों में श्री रामजी का नैमिषारण्य में ही अश्वमेधा करना यों लिखा हैं :
यज्ञवाटश्च सुमहान्गोमत्या नैमिषे वने॥ 15॥
अनुभूय महायज्ञ नैमिषे रघुनन्दन:॥ 17॥
ऋत्विग्भिलक्ष्मणं सार्ध्दमश्वेच विनियुज्य च।
ततोऽभ्यगच्छत्काकुत्स्थ: सहसैन्येन नैमिषम्॥ 2॥
''श्री रघुनन्दन ने इस बात की आवश्यकता अनुभव की कि अश्वमेधा महायज्ञ गोमती वाले नैमिषारण्य में ही होना चाहिए और वहीं महती यज्ञशाला बननी चाहिए। ऋत्विजों के साथ लक्ष्मण को यज्ञ के अश्व की रक्षा में नियुक्त कर सेना के साथ श्रीरामजी नैमिषारण्य को गये।'' इससे निर्विवाद सिद्ध हैं कि नैमिषारण्य का ही कुछ विस्तृत रूप धर्मारण्य हैं। सिद्धपुर के निकट और गया और धर्मारण्य न तो अयोध्या के 8-10 दिन के पैदल रास्ते पर हैं, न उत्तर-पश्चिम में हैं, न वहाँ गोमती ही हैं और न उन्हें नैमिषारण्य कहते ही हैं। पर, यहाँ एक बात ध्यान रखने की हैं कि सीतापुर से कानपुर तक विस्तृत रहने पर भी धर्मारण्यतीर्थ, जिसका विशेष महत्व हैं, उतना विस्तृत न था। किन्तु वह तो संकुचित ही रहा होगा। जैसा कि काशी बृहत् और लघु पंचकोशी 84 और 25 की होने पर भी उसका विशेष महात्म्य वरुणा और अस्सी के बीच में ही हैं। इसीलिए वहाँ के ब्राह्मणों के बालकों का धर्मारण्य तीर्थ या क्षेत्र के निकट गायें चराने का वर्णन आया हैं, न कि समूचे धर्मारण्य से बाहर। उसी धर्मारण्य में प्रथम ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा जिन 18000 ब्राह्मणों की स्थापना हुई थी, उन्हीं को अश्वमेधा यज्ञ के अनन्तर रामचन्द्रजी ने उस धर्मारण्य का राज्य ताम्रपत्र लिखकर दिया। वे ब्राह्मण चुन-चुनकर त्रिदेवों द्वारा अनेक देशों से लाये गये थे और साक्षात् ऋषि थे। हमने ग्रन्थ में यह दिखलाया हैं कि इन्हीं पवित्रात्मा ब्रह्मर्षियों के वंश में वर्तमान जमींदार, भूमिहार आदि ब्राह्मण हैं, जिनका विस्तार (विस्तार) बहुत दूर तक हुआ हैं। इसी से ग्रन्थ का नाम भी ब्रह्मर्षि वंश विस्तार हैं। मगर इसका यह अभिप्राय नहीं हैं कि सिर्फ धर्मारण्य के ब्राह्मण ऋषियों (ब्रह्मर्षियों) के ही वंशज आजकल के अयाचक और याचक, त्यागी, महियाल, जमींदार, भूमिहार, पश्चिम, चितपावन, नागर, जगद्वंशी धानंजयी, जाजपुरी, मैथिल, कनौजिया, गौड़, सारस्वत आदि ब्राह्मण हैं। उनके वंशधार तो कुछ ही लोग हो सकते हैं। शेष ब्राह्मण तो अन्य ब्रह्मर्षियों के ही वंशज हैं, जिन्हें गोत्रकार ऋषि भी कहते हैं। अस्तु।
उन धर्मारण्य के ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति का मनोहर और विशद् वर्णन ग्रन्थ के 51वें पृष्ठ में आया हैं। उन्हें त्रिदेवों ने स्थापित किया था इसी से त्रौविद्य कहे जाते थे। मगर पीछे से राजा कुमारपाल द्वारा राज्य हरण कर लेने पर उनमें से 3000 तो रामेश्वर की ओर हनुमान की सहायता के लिए गये। क्योंकि उन्हें श्री रामजी का आदेश था कि संकट आने पर मेरा और हनुमान का स्मरण करने से वह दूर हो जायेगा। शेष 15000 वहीं राजा के बहकाव से और जप, होम, पूजा आदि के लिए भी रहे, जिन्हें राजा ने सुखवास स्थान में रखा था। यही लोग पीछे चातुर्विद्य कहे गये। क्योंकि तीन देवों के सिवाय चतुर्थ (राजा) की सहायता इन्होंने अपने रहने में ली। मगर उन 3000 ने दूसरे की सहायता न ली और रामेश्वर की ओर से हनुमानजी की कृपा से दो पुड़िया लेकर आये और जैसाकि ग्रन्थ में लिखा जा चुका हैं, एक पुड़िया से राजा कुमारपाल का राजभवन जलाकर उसके शरणागत होने पर दूसरी से अग्नि को शान्त कर दिया और इस प्रकार अपनी तपो महिमा और शक्ति से फिर धर्मारण्य का राज्य प्राप्त कर लिया। क्योंकि राजा ने अपराध क्षमा कराके उनका राज्य उन्हें सौंप दिया। इसी से वे त्रौविद्य ही कहाते रह गये। यह सभी बातें नीचे के श्लोकों से स्पष्ट हैं :
यस्मिन्स्थाने च ये विप्रा: सदाचारशुभव्रता:
अशेषधर्मकुशला: सर्वशास्त्रविशारदा:॥ 19॥
तपोज्ञाने महाख्याता ब्रह्मयज्ञपरायणा:।
स्थापिता ऋषय: सर्वे सहस्राण्यष्टादशैवतु॥ 20॥
नानादेशात्समानीय स्थापितास्तत्रा वै सुरै:॥ 219॥
त्रायीविद्यास्तु विख्याता: सर्वे वाडवपुंगवा:।
सहस्राणि च त्रीण्येव त्रौविद्याअभवन्धु्रवम्॥ 120॥
पंचदश सहस्राणि ततस्तु द्विजपुंगवा:।
यथागतं गता: सर्वे चातुर्विद्या द्विजोत्तामा:॥ 124॥
ते पंचदशसाहस्रा: पुनस्तानूचुरादरात्।
अस्माभिरत्रास्थातव्यमग्निसेवार्थतत्परै:॥ 138॥
त्रिसाहस्रास्तदातस्मात्प्रस्थिताद्विजसत्तामा:॥ 147। 36।
त्रायीविद्यास्तु ते ज्ञेया स्थापिता ये त्रिमूर्त्तिभि:।
चतुर्थेनैव भूपेन स्थापिता: सुखवासने॥ 80॥
ते बभूबुर्द्धिजश्रेष्ठाश्चातुर्विद्या: कलौयुगे।
चातुर्विद्याश्चतेसर्वे धर्मारण्ये प्रतिष्ठिता:॥ 81॥ 39॥
इन सभी का निचोड़ यह हैं कि ''नाना देशों से ढूँढ़कर 18000 वेदशास्त्र पारंगत, सदाचारी, तपस्वी, धर्मात्मा ब्राह्मण महर्षि (ब्रह्मर्षि) ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा धर्मारण्य में स्थापित किये गये। यद्यपि सभी त्रौविद्य कहलाते थे। पर, पीछे से 3000 ही कहलाते रह गये। 15000 उत्तम ब्राह्मण जैसे आये थे वैसे ही चले गये और वे चातुर्विद्य कहलाये। उन्होंने 3000 विप्रों को कहा कि हम लोग यहीं अग्निहोत्रादि करने के लिए रह जाते हैं। इसलिए उस समय वे 3000 ही रामेश्वर को रवाना हुए। जिन्हें त्रिदेवों ने प्रथम स्थापित किया था वे सभी त्रौविद्य कहाते थे। मगर पीछे जिनको चतुर्थ राजा ने रामेश्वर जाने से रोककर सुखवास नामक स्थान में रख लिया वे लोग कलि में चातुर्विद्य कहलाये। वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण धर्मारण्य में प्रतिष्ठित हो गये।'' उन्हें वाडव भी कहा हैं और वाडव का अर्थ ब्राह्मण हैं, जैसा कि अमरकोष आदि में लिखा हैं। बडवा ब्राह्मणी को कहते हैं और उसके ब्राह्मण द्वारा जो पुत्र हो उसी का नाम वाडव हैं। यह बात अमरकोष के द्वितीय काण्ड के ब्राह्मण वर्ग और उसकी टीका रामाश्रमी ने स्पष्टतया लिखी हैं। ग्रन्थ के 129-132 पृष्ठों को देखकर इस इतिहास का मिलान कर लेना चाहिए।
3. याचक और अयाचक
ग्रन्थ में बहुत जगह जो प्रवृत्त और निवृत्त शब्द आये हैं उनके सम्बन्ध में लोगों का कहना हैं कि ये शब्द सकाम और निष्काम कर्म अथवा सांसारिक और विरक्त के वाचक हैं, न कि याचक और अयाचक या पुरोहित और उससे भिन्न के। हमें इसमें विवाद नहीं हैं कि इन शब्दों के उक्त अर्थ भी हो सकते हैं। पर, याचक और अयाचक आदि अर्थ नहीं हो सकते इसे हम न तो मान ही सकते और न यह सम्भव ही हैं। ग्रन्थ के 85-86 आदि पृष्ठों से आईने की तरह झलकता हैं कि वहाँ प्रवृत्त और निवृत्त शब्दों के याचक, अयाचक के सिवाय और अर्थ हो ही नहीं सकते। इसमें तो वाद-विवाद के लिए स्थान हैं ही नहीं। लेकिन जिन मूर्खों ने इन शब्दों का द्वैत और अद्वैत अर्थ किया हैं उन्होंने तो कमाल ही कर डाला हैं! मगर उनके बारे में कुछ न कहना ही उचित हैं। क्योंकि यह उनकी अनोखी सूझ हैं जो कथमपि सम्भव नहीं और न जिसे आज तक किसी ने माना ही हैं।
बहुत लोगों का कहना हैं कि पुरोहित याचक नहीं हो सकता, पुरोहित और याचकता एक चीज नहीं हैं। निस्सन्देह पुरोहिती और याचकता कभी भी एक चीज नहीं हैं और न हमने ऐसा लिखा ही हैं। पर, पुरोहित समाज को हमने याचक अवश्य लिखा हैं और वह अनुचित नहीं, ठीक ही हैं। याचक नाम हैं माँगने वाले का, दो-देही कहने वाले का। फिर भी, माँगने वाला हाथ फैलाता हैं और पुरोहित भी दान लेने के समय या दक्षिणा के समय अवश्य हाथ फैलाता हैं। इसी समानता से पुरोहित को भी याचक कहा हैं। जैसे श्येन नाम बाज पक्षी का हैं। मगर अभिचार कर्म का नाम श्येन इसी कारण रखा गया हैं कि जैसे श्येन दूसरे पक्षियों को अपने चंगुल में फँसा लेता हैं उसी तरह वह अभिचार कर्म भी शत्रु को फँसाकर मार डालता हैं। यह वैदिक कर्म के ज्ञाता मीमांसकों को विदित हैं। इसी प्रकार 'सिंहो देवदत्ता:'-देवदत्ता तो सिंह हैं, इत्यादि व्यवहारों में भी जान लेना चाहिए। सिंह कहने से देवदत्ता जंगल का जानवर नहीं हो जाता अथवा आजकल के सिंह नामधारी पशु नहीं हैं।
रह गयी एक बात। कभी-कभी लोग यह कह बैठते हैं कि जो अयाचक हैं, या उस दल के हैं वे पुरोहिती नहीं कर सकते। नहीं तो फिर अयाचक कैसे रहेंगे, या उनका दल अयाचक क्यों कर कहलाएगा? मगर विचारना तो यह हैं कि पुरोहितों में भी बहुतों के अयाचक रहने पर भी जैसे उसका दल याचक कहलाता हैं। कारण, उनमें प्रधानता या मनोवृत्ति अधिकांश लोगों की उसी तरफ पाई जाती हैं। मालूम होता हैं, कि उन पर गोया पुरोहिती की छाप लगी हुई हैं। ठीक उसी प्रकार अयाचक दल में भी कुछ पुरोहितों के होने से भी वह दल अयाचक ही कहलाएगा। क्योंकि प्रधानता या छाप तो उसी की हैं और मनोवृत्ति भी वैसी ही हैं। नियम भी हैं कि जिसकी प्रधानता होती हैं उसी से व्यवहार किया जाता हैं। जैसे जिस गाँव में ब्राह्मणों की प्रधानता हो वह ब्राह्मणों का गाँव कहाता हैं। मगर इसका यह अर्थ नहीं हैं कि उस गाँव में दो-चार घर भी शूद्रादि न होंगे। यह बात ग्रन्थ में लिखी जा चुकी हैं। एक बात यह भी कही जा चुकी हैं कि पुरोहिती का ग्रहण या त्याग तो व्यक्तिगत धर्म हैं न कि ब्राह्मणों में कोई ऐसा समाज हो सकता हैं जो पुरोहिती से एकबारगी ही अलग हो। फिर क्षत्रियों में और उस समाज में बाहरी व्यवहार में फर्क क्या रह जायेगा? दुनियाँ तो व्यवहार ही देखती हैं। शास्त्र कौन देखने जाता हैं? इसलिए इच्छा हुई तो हमने आज पुरोहिती की और कल छोड़ दी। फिर परसों कर ली। इसका कोई नियम न तो हो सकता हैं और न होना उचित हैं। शास्त्रकारों ने इसके लिए कोई बन्धन नहीं रखा हैं। और शास्त्र दृष्टि से ब्राह्मणों में याचक या अयाचक नाम का कोई दल हो नहीं सकता। हाँ, व्यक्तिगत रूप से प्रवृत्त, निवृत्त या याचक, अयाचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण हो सकते हैं। एक भाई याचक हैं तो दूसरा अयाचक। अभी तक यह होता भी आया हैं। मगर यह दलबन्दी तो बहुत ही हाल की हैं, जैसे गौड़, मैथिल आदि दलबन्दी। मगर यह वहीं तक ठीक हैं जहाँ तक व्यवहार और शास्त्र का विरोध न हो। मगर यदि पुरोहिती के न करने और करने का किसी दल विशेष का अधिकार दे दिया जाये तो फिर शास्त्र और व्यवहार दोनों का विरोध होगा फलत: अत्याचार होना अनिवार्य हैं, जैसा कि हम देख भी रहे हैं। मनुस्मृति के चौथे अध्याय के प्रारम्भ में श्लोकों से स्पष्ट हैं कि याचित और अयाचित वृत्तियों से ब्राह्मण जीविका करते हैं और यह उनकी मर्जी पर हैं कि चाहे जिसे करें। मगर वहाँ की याचिक वृत्ति पुरोहिती नहीं हैं किन्तु भिक्षा।
इसी सम्बन्ध में एक बात दक्षिणा और प्रतिग्रह की हैं। इन दोनों शब्दों का अर्थ और इनका भेद ग्रन्थ में प्रतिपादित हैं। जिसका निचोड़ यह हैं कि दक्षिणा तो कर्म कराने की मजदूरी हैं और प्रतिग्रह किसी के पापों को हटाने के लिए अपना ब्रह्मतेज या तपोबल देकर उसके बदले में अन्न, धनादि के स्वीकार को कहते हैं। और पुरोहिती के अन्तर्गत प्रतिग्रह खामख्वाह आ भी नहीं जाता। हाँ, दक्षिणा तो पुरोहित को लेनी ही पड़ती हैं और वह ठीक भी हैं, जिसे वह अपने काम में ला सकता हैं। मगर प्रतिग्रह के लिए तो वह मजबूर नहीं हैं और चाहे तो लेकर किसी परोपकार कार्य में लगा सकता हैं। इसलिए दक्षिणा और प्रतिग्रह या दान लेने को एक समझकर जो पुरोहिती करने में हो-हल्ला मचाया जाता हैं वह नितान्त अनुचित और हेय हैं।
4. अशौच और उसका संकर
पूर्व परिशिष्ट में ब्राह्मण के जन्म और मरण के आशौच का साधारण विचार किया गया हैं। कभी-कभी ऐसा होता हैं कि दो-तीन आशौच एक साथ आगे-पीछे पड़ जाते हैं। उनके विषय में यद्यपि मनुजी का मोटा और साधारण सिद्धान्त यही बताया गया हैं कि पहले आशौच के दस दिन के भीतर यदि दूसरा आशौच हो जाये तो पहले ही से दूसरे की निवृत्ति हो जाती हैं। तथापि उसके विषय में थोड़ा सा सूक्ष्म विचार भी कर लेना आवश्यक हैं। साधारणतया यही नियम हैं कि ब्राह्मण के सपिण्ड को दस दिन का और सो (समानों) दक को तीन दिन का आशौच होता हैं। जैसा कि मनु ने 5वें अध्याय में लिखा हैं-''दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते। 59। त्रयहादुदकदायिन:। 64। जन्मन्येकोदकानांतु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते। 79।'' जन्मे या मरे से सातवीं पीढ़ी तक पिता के वंश में और माता के कुल में पाँचवीं पीढ़ी तक को सपिण्ड कहते हैं और उसके बाद तो जहाँ तक कुल के किसी भी पुरुष के जन्म और नाम का ज्ञान हो वहाँ तक पिता पक्ष में सोदक कहलाते हैं। जैसा कि याज्ञवल्क्य और मनु ने कहा हैं :
प×चमात्सप्तमादूधर्वं मातृत: पितृतस्तथा॥ या. 53॥
समानोदकभावस्तुजन्मनाम्नोरवेदने। म. 5। 60॥
परन्तु यदि पुत्र वा पुत्री नामकरण से प्रथम ही मर जाये तो स्नान मात्र से ही शुद्धि हो जाती हैं। उसके बाद और दाँत निकलने से पहले ही मरने पर यदि दाह करे तो एक दिन में और यदि न करे तो स्नान मात्र से ही शुद्धि होती हैं। दाँत निकलने पर प्रथम वर्ष में ही मुण्डन से प्रथम ही मरने पर एक दिन में और उसके बाद मुण्डन हो जाने पर तीन वर्ष पर्यन्त तीन दिन में पुत्र का और कन्या का तो वाग्दान से पहले मुण्डन न होने तक स्नान मात्र से ही और मुण्डन हो चुकने पर एक दिन में अशौच निवृत्त हो जाता हैं। पर, कन्या के विषय में सपिण्डता वाग्दान से प्रथम तीन ही पुरुष तक मानी जाती हैं। यदि पुत्र का मुण्डन तीन वर्ष तक भी न हुआ हो तो एक ही दिन का आशौच होता हैं। तीन वर्ष के बाद तो मुंडन न होने पर भी उपनयन पर्यन्त तीन दिन का आशौच होता हैं और उपनयन के बाद दस दिन का। वाग्दान (तिलक) के बाद और विवाह से पहले कन्या का आशौच पिता और पति दोनों कुल में तीन दिन का लगता हैं और विवाह हो जाने पर सिर्फ पति कुल को ही दस दिन का अशौच होता हैं। दाँत निकलने के बाद और तीन वर्ष पहले मरने पर दाह और पिण्डदानादि करना, न करना अपनी इच्छा पर हैं। पर, बाद को तो करना ही होगा। दो वर्ष से कम अवस्थावाले का दाह न कर शुद्ध भूमि में गाड़ देना चाहिए। पर गंगाजल में निक्षेप करने के लिए कोई रोक-टोक नहीं हैं। जिसे चाहें फेंक सकते हैं। सभी अशौच मालूम होने पर ही होते हैं। न मालूम होने पर नहीं। यही मनु, याज्ञवल्क्य और मिताक्षरा आदि का निचोड़ हैं। जैसा कि :
आदन्तजन्मन: सद्य आचूडान्नैशिकी स्मृता।
त्रिरात्रामाव्रतादेशाद्दशरात्रामत:परम्। या. प्रा. 23॥
ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं दिनधयुर्बान्धावा बहि:।
अलंकृत्य शुचौ भूमावस्थिसंचयवादृते॥ 68॥
नात्रिवर्षस्यर् कत्ताव्या बान्धावैरुदकक्रिया।
जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वापिकृतेसति॥ 70॥
स्त्रीणामसंस्कृतानां तु त्रयहाच्छुद्धय्न्तिबान्धावा:।
यथोक्तेनैव कल्पेन शुद्धयन्तितु सनाभय:। 72॥ म.॥
प्राङ्नामकरणात्सद्य: शौचन्तदूधर्वं दन्तजननादर्वागग्निसंस्कारक्रियायामेकाह:, इतर्था सद्य:शौचम्। जादन्तस्य च प्रथमवार्षिकाच्चौलादर्वागेकाह:। प्रथमवर्षादूधर्वं त्रिवर्ष पर्यन्तं कृत चूडस्यत्रयहम् इतरस्यत्वेकाह:। वर्षत्रायादूधर्वमकृतचूडस्यापित्रयहम्। उपनयनादूधर्वं सवरेंषां ब्राह्मणादीनां दशरात्रादिकम्। अप्रत्तानांतुस्त्रीणां त्रिपुरुषी (सपिण्डता) विज्ञायतइतिवसिंष्ठस्मरणादितिमिताक्षरा या.॥ प्रा.। 23-24॥
अशौच में एक बात का और भी विचार रहना चाहिए कि वह दो प्रकार का होता हैं, एक तो स्पर्श की अयोग्यता और दूसरे कर्म की अयोग्यता। इनमें मरणाशौच में तो दोनों ही प्रकार का आशौच साधारणतया माना जाता हैं। परन्तु जन्म में माता को तो दोनों प्रकार का होता हैं। परन्तु स्नान के बाद पिता स्पर्श योग्य हो जाता हैं और अन्य सपिण्ड तो सदा ही स्पर्श योग्य होते हैं। परन्तु कर्म की योग्यता नहीं रहती हैं जब तक कि पूरे दिन न बीत जाये। मनुजी का यही अभिप्राय नीचे के श्लोक से स्पष्ट हैं :
सर्वेषां शावमाशौचं माता पित्रोस्तु सूतकम्।
सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचि:॥ 5। 62॥
इसलिए जो कोई सपिण्ड विदेश में हो तो दशाह के बाद और एक वर्ष के भीतर जन्म या मरण की खबर मिलने पर तीन दिन तक कर्म अनधिकारी रहता हैं। मगर सवस्त्र स्नान के बाद छूने योग्य हो जाता हैं। मगर एक वर्ष के बाद
खबर मिलने पर तो सिर्फ स्नान कर लेने पर ही पवित्र हो जाता हैं। जैसा कि
मनु ने कहा हैं :
अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रामशुचिर्भवेत्।
सवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैववापो विशुद्धयति॥ 76॥
निदशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च।
सवासां जलमाप्लुत्य शुध्दो भवति मानव:॥ 5॥ 77॥
गर्भपात हो जाने पर जितने महीने का गर्भ हो उतने दिनों तक स्त्री अपवित्र रहती हैं। किसी का मत हैं कि तीन महीने के बाद के ही गर्भ का यह नियम हैं और छठे मास तक के ही लिए। इसके बाद तो पूरा आशौच लगता हैं। रजस्वला स्त्री तीन दिन तक अपवित्र रहती हैं और चौथे दिन स्नान कर शुद्ध होती हैं। जैसाकि मनु ने कहा हैं :
रात्रिभिर्मासतुल्याभि:गर्भस्रावे विशुद्धयति।
रजस्युपरते साधवी स्नानेन स्त्री रजस्वला॥ 5। 6॥
समान, असमान, सजातीय, विजातीय इस तरह आशौच चार प्रकार का होता हैं और इनमें से दो से अधिक यदि एक साथ या आगे-पीछे प्रथम की निवृत्ति के पहले ही पड़ जाये तो उसे आशौचसंकर कहते हैं। जिन अशौचों की दिन संख्या बराबर हो वे समान और जिनकी बराबर न हो वे असमान हैं। इसी तरह जन्म सम्बन्धी सभी अशौच परस्पर सजातीय हैं और मरण सम्बन्धी भी। परन्तु मरण और जन्म एक दूसरे के विजातीय हैं। सजातीय आशौच का यह नियम हैं यदि अधिक दिन वाले के भीतर उसका सजातीय कम दिन वाला या बराबर वाला आशौच हो जाये तो पहले से ही दूसरे की भी निवृत्ति हो जाती हैं। परन्तु यदि अधिक दिन वाला कम दिन वाले सजातीय के भीतर आ पड़े तो अधिक दिन वाले से ही कम दिन वाला निवृत्त होता हैं। जैसा कि याज्ञवल्क्य और उसकी मिताक्षरा में उशना का वचन हैं कि :
अन्तरा जन्ममरणे शेषाहोमिर्विशुध्यति। प्रा. 20।
स्वल्पाशौचस्य मध्येतु दीर्घाशौचं भवेद्यदि।
नपूर्वेणविशुद्धि:स्यात्स्वकालेनैव शुध्यति॥ उश.॥
विजातीय का यह नियम हैं कि चाहे मरण में जन्म हो या जन्म में मरण, पर, मरणाशौच की निवृत्ति से ही जनना शौच की भी निवृत्ति होती हैं। फिर चाहे मरण समान हो या असमान। जैसा कि अंगिरा का वचन हैं कि :
सूतके मृतकं चेत्स्यान्मृतकेत्वथ सूतकम्।
तत्राधिकृत्य मृतकं शौचं कुर्यान्न सूतकम्॥
परन्तु माता-पिता के मरण के संकर में मिताक्षराकार ने लिखा हैं कि यदि माता के मरने पर बीच में ही पिता मर जाये तो पिता के ही आशौच की निवृत्ति से माता के भी आशौच की शुद्धि होती हैं। और यदि पिता के बाद माता मरी हो तो पिता के आशौच के बाद दो दिन और उनके बीच की रात बिताकर शुद्ध होता हैं। जैसा कि :
मातर्यग्रे प्रमीतायाशुध्दौ म्रियते पिता।
पितु: शेषेण शुद्धि:स्यान्मातु:कुर्यात्तु पक्षिणीम्।
यद्यपि पूर्व प्रदर्शित याज्ञवल्क्य के वचनानुसार और मनु ने भी लिखा हैं कि दस दिन के भीतर यदि दूसरा जन्म या मरण हो जाये तो तभी तक आशौच रहता हैं जब तक कि दस दिन पूरा नहीं होता। जैसा कि :
अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी।
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तात्स्यात्तादनिर्दशम्॥ 5॥ 79॥
तथापि यही सिद्धान्त किया गया हैं कि दस दिन के भीतर का अर्थ हैं नौवें दिन और रात के तीन पहर तक। इसलिए यदि उस समय तक कोई दूसरा आशौच आ जाये तो पूर्व से ही वह भी निवृत्त हो जायेगा। जैसा कि बौधायन ने प्रथम प्रश्न के पाँचवें अध्याय में कहा हैं :
अथ यदि दशरात्रात्सन्निपतेयुराद्यंदशरात्रामाशौचमानवमाद्दिवसात्। 124।
परन्तु उसके बाद दसवें दिन की शाम तक दूसरे आशौच के हो जाने पर पहले के पूरा होने के दो दिन बाद शुद्धि होती हैं और शाम के बाद एक पहर रात रहे तक होने पर तीन दिन और बिताना पड़ता हैं। रात्रि का संस्कृत नाम त्रियामा हैं, जिससे तीन ही पहर की रात मानते हैं और शेष पहर प्रात:काल कहलाता हैं। यह बात गौतम, वसिष्ठ, शातातप स्मृतियों में लिखी हैं। जैसा कि :
रात्रिशेषे सतिद्वाभ्यांप्रभाते सति तिसृभि:। व. 4। 23।
रात्रिशेषे द्वयहाच्छुद्धिर्यामशेषेशुचिस्त्रयहात्। शाता.।
आशौच के अन्तिम या दसवें दिन गाँव से बाहर स्नान करना, कपड़ा बदलना, दाढ़ी- मूँछ आदि बनवाना और नख कटवाना चाहिए, न कि उसके बाद या पहले। जैसा कि :
दशमेऽहनि संपाप्तेस्नानं ग्रामाद्वहिर्भवेत्।
तत्रात्याज्यानिवासांसि केशश्मश्रुनखानिच। देवल.॥
प्रेत (मरे) के लिए सोलह श्राद्ध किये जाते हैं जिनका नाम षोडशी हैं। जिनके नाम ये हैं-ऊन मासिक, प्रथम मासिक, त्रिपाक्षिक, द्वितीय मा., तृ. मा., च., पं, ऊनषाण्मासिक, षाण्मासिक, स., अ., न., दश., एका. ऊनवार्षिक, वार्षिक! यदि बीच में अधिमास हो जाये तो 17 और न्यूनमास हो तो 15 ही होते हैं। इनमें पहला एकादशाह को करते हैं और शेष यथासमय। प्राचीन नियम यही था कि वार्षिक श्राद्ध जो 12वें मास में होता हैं उसी के बाद सपिण्डीकरण श्राद्ध किया जाये और बिना सपिण्डी के कोई मंगल कार्य घर में न हो। मगर अब ऐसा नियम हैं कि साधारणतया एकादशाह को पहला श्राद्ध करके शेष 15 को द्वादशाह के दिन करते हैं उसी दिन सपिण्डन भी किया जाता हैं। अथवा सोलहों श्राद्ध एकादशाह को ही कर डालते हैं। सिर्फ सपिण्डन द्वादशाह को करते हैं। दोनों प्रकार के वचन मिलते हैं। मगर फिर सपिण्डन के बाद भी मासिक आदि श्राद्ध किये जाते हैं और उन्हें अवश्य करना चाहिए और पूरा वर्ष बीतने पर वार्षिकहोना चाहिए, न कि बीच में ही, क्योंकि उसका नाम ही वार्षिक हैं। सब सपिण्डन हो गया तो फिर मंगल कार्य करने में कोई हर्ज नहीं हैं। ब्रह्मभोज भी श्राद्ध के दिन ही होना चाहिए यही निचोड़ हैं।
5. गोत्र, प्रवर और साधारण होम
विवाह आदि संस्कारों में और साधारणतया सभी धार्मिक कामों में गोत्र प्रवर और शाखा आदि की आवश्यकता हुआ करती हैं। इसीलिए उन सभी का संक्षिप्त विवरण आवश्यक हैं। समान गोत्र प्रवर की कन्या के साथ विवाह करने से जो सन्तान होती हैं वह चाण्डाल श्रेणी में गिनी जानी चाहिए। जैसा कि यमस्मृति का वचन हैं कि:
आरूढपतितापत्यं ब्राह्मण्यां यश्चशूद्रज:।
सगोंत्रोढासुतश्चैव चाण्डालास्त्रायईरिता:॥
''संन्यासी का पुत्र, ब्राह्मणी स्त्री से शूद्र का पुत्र और समान गोत्र वाली कन्या से विवाह करके जन्माया पुत्र, ये तीनों चाण्डाल कहाते हैं'' पर देखते हैं कि सभी देशों के ब्राह्मण आदि समाजों में ऐसा बहुधा होता हैं। यहाँ तक कि बहुतों को तो गोत्र का ज्ञान भी नहीं होता। प्रवर, शाखा आदि की बात ही दूर रहे। और विवाह गोत्र भिन्न रहने पर भी यदि प्रवरों की एकता हो जाये तो भी नहीं होना चाहिए। जैसा कि पूर्वपरिशिष्ट में लिखा गया।
गोत्र नाम हैं कुल, सन्तति, वंश, वर्ग का। यद्यपि पाणिनीय सूत्रों के अनुसार 'अपत्यं पौत्राप्रभृतिगोत्रम्' 4-1-162, पौत्रा आदि वंशजों को गोत्र कहते हैं। तथापि वह सिर्फ व्याकरण के लिए संकेत हैं। इसी प्रकार यद्यपि वंश या सन्तति को ही गोत्र कहते हैं तथापि विवाह आदि में जिस गोत्र का विचार हैं वह भी सांकेतिक ही हैं और सिर्फ विश्वामित्रा, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य, इन आठ ऋषियों या इनके वंशज ऋषियों की ही गोत्र संज्ञा हैं। जैसाकि बोधायन के महाप्रवराध्याय में लिखा हैं कि :
विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥ सप्तानामृषी-
णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥
इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गये वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत हैं। सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंश वाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता हैं। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में हैं। इस प्रकार देखा जाता हैं कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गये होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए। तथापि इस समय भारत में तो उतने गोत्रों का पता हैं नहीं। प्राय: 80 या 100 गोत्र मिलते हैं।
जो गोत्र के नाम से ऋषि आये हैं वही प्रवर भी कहाते हैं। ऋषि का अर्थ हैं वेदों के मन्त्रों को समाधि द्वारा जानने वाला। इस प्रकार प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो। प्रवर का एक और भी अर्थ हैं। यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम लेकर अग्नि की प्रार्थना की जाती हैं। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह हैं कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य हैं। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता हैं वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक। यही परम्परा चली आती हैं। पर, मालूम नहीं कि ऐसा नियम क्यों हैं? ऐसा ही आपस्तम्ब आदि का वचन लिखा हैं। हाँ, यह अवश्य हैं कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :
त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥
अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न
प×चातिवृणीते॥ 8॥
जो दस गोत्र कर्ता ऋषि मूल में बताये गये हैं, उनके वंश का विस्तार बहुत हुआ और आगे चलकर जहाँ-जहाँ से एक-एक वंश की शाखा अलग होती गयी वहाँ से उसी शाखा का नाम गण कहलाता हैं और उस शाखा के आदि ऋषि के नाम से ही वह गण बोला जाता हैं। इस प्रकार उन दस ऋषियों के सैकड़ों गण हो गये हैं और साधारणतया यह नियम हैं कि गणों के भीतर जितने गोत्र हैं न तो उनका अपने-अपने गण-भर में किसी दूसरे के साथ विवाह होता हैं और न एक मूल ऋषि के भीतर जितने गण हैं उनका भी परस्पर विवाह हो सकता हैं। क्योंकि सबका मूल ऋषि एक ही हैं। हाँ, भृगु और अंगिरा के जितने गण हैं उनमें हरेक का अपने गण के भीतर तो विवाह नहीं हो सकता पर, गण से बाहर दूसरे गण में तभी विवाह होगा जबकि दोनों के प्रवर एक न हो जाये। प्रवर एक होने का भी यह अर्थ नहीं कि दोनों के 3 या 5 जितने प्रवर हैं सब एक ही रहें। बल्कि यदि दोनों के तीन ही प्रवर हों और उनके दो ऋषि दोनों में हों तो यह प्रवर एक ही कहलायेगा। इसी प्रकार यदि पाँच प्रवर हों तो तीन के एक होने से ही एक होगा। सारांश, आधे से अधिक ऋषि यदि एक हों तो समान प्रवर हो जाने से विवाह नहीं होना चाहिए। जैसा कि बोधायन ने लिखा हैं :
द्वयार्षेयसन्निपातेऽविवाहस्त्रयार्षेयाणांत्रयार्षेयसन्निपातेऽविवाह:प×चार्षेयाणामसमानप्रवरैर्विवाह:॥
इसीलिए बोधायन आदि ने गोत्र का जो सांकेतिक अर्थ किया हैं उसमें भृगु और अंगिरा को न कहकर आठ ही को गिनाया हैं, नहीं तो जैसे अत्रि आदि के गणों में जहाँ तक एक गोत्र कर्ता ऋषि उनके किसी भी गोत्र के प्रवरों में विद्यमान रहे वह वास्तव में एक ही गोत्र कहलाते हैं, चाहे व्यवहार के लिए भिन्न ही क्यों न हों और चाहे उनके प्रवर तीन हों या पाँच। उसी प्रकार भृगु और अंगिरा के भी गणों के प्रवरों में सिर्फ एक ही ऋषि के समान होने से ही उनके तीन और पाँच प्रवर वाले गोत्रों का विवाह नहीं हो पाता। मगर अब हो सकता हैं। क्योंकि एक ऋषि की समानता का नियम सिर्फ आठ ही ऋषियों के लिए हैं, न कि भृगु और अंगिरा के लिए भी। जैसा कि-
एक एव ऋषिर्यावत्प्रवरेष्वनरुवत्ताते।
तावत्समानगोत्रत्वमन्यत्रांगिरसोभृगो:॥
भृगु और अंगिरा के वंशजों के जो गण हैं उसमें कुछ तो गोत्र के उन आठ ऋषियों के ही गण में आ गये हैं और कुछ अलग हैं। इस प्रकार भृगु और केवल भृगु एवं अंगिरा और केवल अंगिरा इस तरह के उनके दो-दो विभाग हो गये हैं। भृगु के 7 गणों में वत्स, विद और आर्ष्टिषेण ये तीन तो जमदग्नि के भीतर आ गये। शेष यस्क, मिवयुव, वैन्य और शुनक ये केवल भार्गव कहाते हैं। इसी प्रकार अंगिरा के गौतम, भारद्वाज और केवल आंगिरस ये तीन गण हैं। उनमें दो तो आठ के भीतर ही हैं। गौतम के 10 गण हैं, अयास्य, शरद्वन्त, कौमण्ड, दीर्घतमस, औशनस, करेणुपाल, रहूगण, सोमराजक, वामदेव, बृहदुक्थ। इसी प्रकार भारद्वाज के चार हैं, भारद्वाज, गर्ग, रौक्षायण, कपि। केवलांगिरस के पाँच हैं, हरित, कण्व, रथीतर, मुद्गल, विष्णुबृद्ध। इस तरह सिर्फ भृगु और अंगिरा के ही 23 गण हो गये। इससे स्पष्ट हैं कि भरद्वाज या भारद्वाज गोत्र का गर्ग या गार्ग्य के साथ विवाह नहीं हो सकता। क्योंकि उनका गण एक ही हैं।
अत्रि के चार गण हैं, पूर्वात्रोय, वाद्भुतक, गविष्ठिर, मुद्गल।
विश्वामित्रा के दस हैं-कुशिक, रोहित, रौक्ष, कामकायन, अज्ञ, अघमर्षण, पूरण, इन्द्रकौशिक, धानंजय, कत। धानंजय और कौशिक का परस्पर विवाह नहीं हो सकता।
कश्यप के पाँच हैं- कश्यप, निधा्रुव, रेभ, शाण्डिल्य, लौगाक्षि। शाण्डिल्य, कश्यप, लौगाक्षि का परस्पर विवाह असम्भव हैं।
वसिष्ठ के पाँच हैं- वसिष्ठ, कुण्डिन, उपमन्यु, पराशर और जातूकर्ण्य। वसिष्ठ और पराशर आदि का परस्पर विवाह ठीक नहीं हैं।
अगस्त्य का कोई अन्तर्गण नहीं हैं। इस प्रकार कुल 51 गण हैं। किसी-किसी के मत से कुछ कम या अधिक भी हैं।
कोई-कोई गौत्रा द्वयामुष्यायण कहलाते हैं, जैसे संस्कृति या साकृत्य और लौगाक्षि आदि। इसका अर्थ यह हैं कि इन ऋषियों का सम्बन्ध दो गोत्रों से हैं। ये ऋषि किसी कारण से दोनों गोत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, न कि एक छोड़कर दूसरे से मिल गये। इसीलिए संस्कृति का वसिष्ठ के साथ और लौगाक्षि का भी वसिष्ठ के साथ, एवं लौगाक्षि का और संस्कृति का भी परस्पर विवाह नहीं होगा। क्योंकि लौगाक्षि और संस्कृति दोनों वसिष्ठ गोत्र में गये और साथ ही, संस्कृति का केवलांगिरस के गण में और लौगाक्षि का कश्यप के गण में जन्म हैं।
भरद्वाज, भारद्वाज, कश्यप, काश्यप, गर्ग, गार्ग्य, भृगु, भार्गव ये अलग-अलग गोत्र हैं, न कि कश्यप और काश्यप आदि एक ही हैं। परन्तु विवाह तो फिर भी कश्यप काश्यप आदि का परस्पर नहीं हो सकता। कारण, मूल ऋषि एक ही हैं। इसी प्रकार यद्यपि भृगु के वंश में ही वत्स हुए, तथापि वत्सगोत्र अलग ही हैं। विश्वामित्रा के प्रकरण में इन्द्र कौशिक गोत्र हैं जो कौशिक से भिन्न ही हैं। इसी प्रकार धृत गोत्र भी उसी में हैं। मगर कहीं-कहीं सर्यूपारियों में धृत कौशिक को एक ही गोत्र मानकर व्यवहार करते हैं। यह भूल हैं। इसी प्रकार गर्दभीमुख नाम के एक ऋषि कश्यप के गण में हैं और शाण्डिल्य भी। पर इसका अर्थ न समझ लोगों ने गर्दभी मुख का कल्पित अर्थ कर डाला हैं और श्रीमुख नाम का एक दूसरा गोत्र भी मान रखा हैं। उनके विचार से शाण्डिल्य गोत्र के ही ये दो भेद हैं। मगर बात यह नहीं हैं। यह तो परस्पसर नीच-ऊँच के भावों का फल हैं। श्रीमुख कोई गोत्रकार ऋषि नहीं हैं। हाँ गर्दभीमुख हैं। पर शाण्डिल्य से भिन्न हैं। फिर भी, कश्यप के अन्तर्गत होने से दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। कोई-कोई इन्द्र और कौशिक ये दो गोत्र मानते हैं और धृत को घृत पढ़ते हैं। पाठ-भेद हो सकता हैं। पर, हरिवंश के सातवें अध्याय में धृत ही मिलता हैं और उनको धर्मभृत भी कहा हैं। इससे धृत पाठ ही अधिक माननीय हैं।
गोत्रों के प्रवर के सिवाय वेद, शाखा, सूत्रा पाद, सिखा और देवता का भी विचार हैं। ऐसा सम्प्रदाय अभी तक बराबर चला आता हैं। इनमें से वेद का अभिप्राय यह हैं कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गये कर्मों का अनुष्ठान करते आये। इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद हैं तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद हैं, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता हैं। अब आगे चलकर लोग सम्पूर्णतया एक वेद भी पढ़ न सके, किन्तु उसकी अनेक शाखाओं में से सिर्फ एक ही, तो फिर उन गोत्रों के लोगों ने शाखा का व्यवहार करना शुरू किया। सूत्रों का तो सिर्फ यही अर्थ हैं कि उन वेदों की उन-उन शाखाओं में कहे गये कर्मों की विधि और उनके अंगों के क्रम आदि के विचार के लिए ऋषियों ने जिन-जिन श्रौत या गृह्य सूत्रों का निर्माण किया हैं, उन्हीं के अनुसार विभिन्न गोत्रों की पद्धतियाँ तैयार की गयी हैं और उन्हीं के अनुसार कर्म-कलाप होते हैं। हरेक वेदों के ये सूत्र विभिन्न ऋषियों द्वारा बनाये गये हैं। जैसे यजुर्वेद का कात्यायन ने बनाया हैं, सामवेद का गोभिल ने, ऋग्वेद का आश्वलायन ने और अथर्ववेद का कौशिक ने। और भी ऋषि हैं जिनके सूत्र वेदों की शाखाओं पर हैं। हरेक ऋषि ने अपनी ही शाखा का सूत्रा ग्रन्थ बनाया हैं। हरेक वेद या उसकी शाखा के पढ़ने वाले किसी विशेष देवता की आराधाना करते थे। वही उनके देवता कहे गये। इसी तरह तुरन्त पहचान के लिए उनके बाहरी व्यवहार में भी कुछ अन्तर रखा जाता था। जैसे कोई शिखा में जो ग्रन्थि देता वह बायीं तरफ घुमाकर और कोई दाहिनी तरफ। इसी प्रकार पूजा के समय प्रथम कोई बायाँ पाँव धोता या धुलाता था और कोई दाहिना। बस वही व्यवहार अब तक कहने मात्र को रह गया हैं और वही पाद कहलाता हैं। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बायीं शिखा और बायाँ ही पाद और विष्णु देवता हों। इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा, दाहिना पाद और शिव देवता। कहीं-कहीं शिखा और पाद में शायद उलट-पलट हैं। परन्तु वह हमारे जानते काल पाकर भूल से बदल गया होगा। क्योंकि जब और बातों में नियम हैं तो यहाँ भी एक ही नियम लागू होना चाहिए। इसी तरह सामवेदियों की कौथुमी शाखा और गोभिल सूत्रा एवं यजुर्वेदियों की माध्यन्दिनीय शाखा और कात्यायन सूत्रा हैं। चारों वेदों के चार उपवेद भी हैं और उनका भी व्यवहार पाया जाता हैं। यजुर्वेद का धानुर्वेद, ऋग्वेद का आयुर्वेद, सामवेद का गान्धार्व वेद और अथर्ववेद का अर्थवेद वा अर्थशास्त्र हैं।
किस गोत्र का कौन वेद हैं, इसमें इस समय बड़ी गड़बड़ी हैं, कारण व्यवहार और सम्प्रदाय हर प्रदेश में कुछ न कुछ बदल गये हैं। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में पाँच गोत्रों का और कहीं-कहीं छह का सामवेद बताया हैं। वे पाँच कश्यप, काश्यप, वत्स, शाण्डिल्य और धानंजय हैं और छठां कौशिक हैं। परन्तु इसके विपरीत मैथिलों में सिर्फ एक शाण्डिल्य का ही सामवेद लिखा हैं शेष गोत्रों का यजुर्वेद ही। हालाँकि उनकी एक वंशावली में, जो पिलखबाड़ ग्राम के पंजीकार श्री जयनाथ शर्मा की लिखी हैं, लिखा हैं कि :
कश्यपौ वत्सशांडिल्यौ कौशिकश्च धानंजय:।
षडेते सामगा विप्रा: शेषा वाजसनेयनि:॥
इससे पूर्व के छह गोत्र सामवेदी सिद्ध होते हैं। कान्यकुब्ज वंशावली में लिखते हैं कि पाँच ही सामवेदी हैं, कौशिक नहीं :
कश्यप: काश्यपो वत्स: शांडिल्यश्च धानंजय:।
प×चैते साम गायन्ति यजुरधयायिनोऽपरे॥
यह बात असम्भव-सी भी मालूम होती हैं कि सिर्फ शाण्डिल्य ने ही सामवेद का प्रचार किया और दूसरे किसी भी ऋषि ने नहीं। इससे पाँच या छह गोत्रों का ही सामवेद मानना ठीक हैं। इसलिए त्यागी, पश्चिम, जमींदार या भूमिहार आदि अयाचक ब्राह्मणों में भी इसी के अनुसार संस्कार आदि और प्रचार होना चाहिए। गौड़, जिझौतिया वगैरह में भी इसी का प्रचार हैं।
आजकल एक गोत्र पाया जाता हैं जिसका उल्लेख पुराने ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलता। वह हैं कविस्त, काविस्त अथवा कावित्स। अत्रि के एक गण के ऋषि का नाम गविष्ठिर हैं। सम्भव हैं इसी का विपर्याय हो गया हो। लेकिन प्रवर में भेद हैं।
प्रवरों के विषय में बड़ा मतभेद और वाद-विवाद हैं। एक प्रवर तो सिर्फ चार प्रचलित गोत्रों में हैं। वसिष्ठ का वासिष्ठ शुनक का शौनक, मित्रायुव का बाधय्रश्व और अगस्त्य का आगस्त्य। कश्यप का ही सिर्फ दो प्रवर हैं, देवल और असित। मगर इनके भी तीन प्रवर लिखे हैं। इसी प्रकार पाँच प्रवर गर्ग, सावर्णि, वत्स, भार्गव, भरद्वाज, भारद्वाज, जमदग्नि और गौतम के हैं। मगर तीन प्रवर भी इनके लिखे हैं। हरेक गोत्रों के प्रवरों की जितनी संख्या हो उतनी ग्रन्थि जनेऊ में दी जाती हैं।
कुछ प्रसिद्ध गोत्रों के प्रवर आदि नीचे लिखे हैं :
(1) कश्यप,
(2) काश्यप के काश्यप, असित, देवल अथवा काश्यप, आवत्सार, नैधु्रव तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण ये हैं-जैथरिया, किनवार, बरुवार, दन्सवार, मनेरिया, कुढ़नियाँ, नोनहुलिया, तटिहा, कोलहा, करेमुवा, भदैनी चौधुरी, त्रिफला पाण्डे, परहापै, सहस्रामै, दीक्षित, जुझौतिया, बवनडीहा, मौवार, दघिअरे, मररें, सिरियार, धौलानी, डुमरैत, भूपाली आदि।
(3) पराशर के वसिष्ठ, शक्ति, पराशर तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण एकसरिया, सहदौलिया, सुरगणे हस्तगामे आदि हैं।
(4) वसिष्ठ के वसिष्ठ, शक्ति, पराशर अथवा वसिष्ठ, भरद्वसु, इन्द्र प्रमद ये तीन प्रवर हैं। ये ब्राह्मण कस्तुवार, डरवलिया, मार्जनी मिश्र आदि हैं। कोई वसिष्ठ, अत्रि, संस्कृति प्रवर मानते हैं।
(5) शाण्डिल्य के शाण्डिल्य, असित, देवल तीन प्रवर हैं। दिघवैत, कुसुमी-तिवारी, नैनजोरा, रमैयापाण्डे, कोदरिये, अनरिये, कोराँचे, चिकसौरिया, करमहे, ब्रह्मपुरिये, पहितीपुर पाण्डे, बटाने, सिहोगिया आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(6) भरद्वाज,
(7) भारद्वाज के आंगिरस, बार्हस्पत्य, भारद्वाज अथवा आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन प्रवर हैं। दुमटिकार, जठरवार, हीरापुरी पाण्डे, बेलौंचे, अमवरिया, चकवार, सोनपखरिया, मचैयांपाण्डे, मनछिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(8) गर्ग।
(9) गार्ग्य के आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन अथवा धृत, कौशिक माण्डव्य, अथर्व, वैशम्पायन पाँच प्रवर हैं। मामखोर के शुक्ल, बसमैत, नगवाशुक्ल, गर्ग आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(10) सावर्ण्य के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या सावर्ण्य, पुलस्त्य, पुलह तीन प्रवर हैं। पनचोभे, सवर्णियाँ, टिकरा पाण्डे, अरापै बेमुवार आदि इस गोत्र के हैं।
(11) वत्स के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या भार्गव, च्यवन, आप्नवान तीन प्रवर हैं। दोनवार, गानामिश्र, सोनभदरिया, बगौछिया, जलैवार, शमसेरिया, हथौरिया, गगटिकैत आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(12) गौतम के आंगिरस बार्हिस्पत्य, भारद्वाज या अंगिरा, वसिष्ठ, गार्हपत्य, तीन, या अंगिरा, उतथ्य, गौतम, उशिज, कक्षीवान पाँच प्रवर हैं। पिपरामिश्र, गौतमिया, करमाई, सुरौरे, बड़रमियाँ दात्यायन, वात्स्यायन आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(13) भार्गव के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, तीन या भार्गव, च्यवन आप्नवन, और्व, जायदग्न्य, पाँच प्रवर हैं, भृगुवंश, असरिया, कोठहा आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(14) संस्कृति के संस्कृति, सांख्यायन, किल, या शक्ति, गौरुवीत, संस्कृति या आंगिरस, गौरुवीत, संस्कृति तीन प्रवर हैं। सकरवार, मलैयांपाण्डे फतूहाबादी मिश्र आदि इन गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(15) कौशिक के कौशिक, अत्रि, जमदग्नि, या विश्वामित्रा, अघमर्षण, कौशिक तीन प्रवर हैं। कुसौझिया, टेकार के पाण्डे, नेकतीवार आदि इस गोत्र के ब्राह्मणहैं।
(16) कात्यायन के कात्यायन, विश्वामित्रा, किल या कात्यायन, विष्णु, अंगिरा तीन प्रवर हैं। वदर्का मिश्र, लमगोड़िया तिवारी, श्रीकान्तपुर के पाण्डे आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(17) विष्णुवृद्ध के अंगिरा, त्रासदस्यु, पुरुकुत्स तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के कुथवैत आदि ब्राह्मण हैं।
(18) आत्रोय।
(19) कृष्णात्रोय के आत्रोय, आर्चनानस, श्यावाश्व तीन प्रवर हैं। मैरियापाण्डे, पूले, इनरवार इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(20) कौण्डिन्य के आस्तीक, कौशिक, कौण्डिन्य या मैत्रावरुण वासिष्ठ, कौण्डिन्य तीन प्रवर हैं। इनका अथर्व वेद भी हैं। अथर्व विजलपुरिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(21) मौनस के मौनस, भार्गव, वीतहव्य (वेधास) तीन प्रवर हैं।
(22) कपिल के अंगिरा, भारद्वाज, कपिल तीन प्रवर हैं।
इस गोत्र के ब्राह्मण जसरायन आदि हैं।
(23) ताण्डय गोत्र के ताण्डय, अंगिरा, मौद्गलय तीन प्रवर हैं।
(24) लौगाक्षि के लौगाक्षि, बृहस्पति, गौतम तीन प्रवर हैं।
(25) मौद्गल्य के मौद्गल्य, अंगिरा, बृहस्पति तीन प्रवर हैं।
(26) कण्व के आंगिरस, आजमीढ़, काण्व, या आंगिरस, घौर, काण्व तीन प्रवर हैं।
(27) धानंजय के विश्वामित्रा, मधुच्छन्दस, धानंजय तीन प्रवर हैं।
(28) उपमन्यु के वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, अभरद्वसु तीन प्रवर हैं।
(29) कौत्स के आंगिरस, मान्धाता, कौत्स तीन प्रवर हैं।
(30) अगस्त्य के अगस्त्य, दाढर्यच्युत, इधमवाह तीन प्रवर हैं। अथवा केवल अगस्त्यही।
इसके सिवाय और गोत्रों के प्रवर प्रवरदर्पण आदि से अथवा ब्राह्मणों की वंशावलियों से जाने जा सकते हैं।
होम की साधारण विधि इस प्रकार हैं :
सभी होम के प्रारम्भ में सात प्रायश्चित आहुतियाँ पाँच पंचवारुणी कुल बारह आहुतियाँ दी जाती हैं। वह इस प्रकार हैं :
(1) ¬ प्रजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये न मम।
(2) ¬ इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्राय न मम।
(3) ¬ अग्नये स्वाहा इदमग्नये न मम।
(4) ¬ सोमाय स्वाहा इदं सोमाय न मम।
(5) ¬ भू: स्वाहा इदमग्नये न मम।
(6) ¬ भुव: स्वाहा इदं वायवे न मम।
(7) ¬ स्व: स्वाहा इदं सूर्याय न मम।
इसके बाद नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर जल छिड़के, या केवल मन्त्र ही पढ़ दे:
यथा वाण महाराणां कवचंवारकं भवेत्। तद्वद्दैवोपघातानां शांतिर्भवति वारिका। शांतिरस्तु पुष्टिरस्तु वृद्धिरस्तु यत्पापं तत्प्रतिहतमस्तु द्विपदे चतुष्पदे सुशांतिर्भवतु।
फिर पंचवाणी से होम करे :
(1) ¬ त्वन्नोअग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठा। यजिष्ठो
वद्दितम: शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्रमुमुग्धयस्मत्स्वाहा इदमग्नीवरुणायाभ्यां न मम।
(2) ¬ सत्वन्नोऽअग्नेवमोभवीती नेदिष्ठो अस्या उषसोव्युष्टौ। अवयक्ष्वनोवरुण- रंराणो वीहि मृडीकं सुहवो न एधिस्वाहा इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
(3) ¬ अयाश्चाग्येस्यनभि शस्तिपाश्च सत्वमित्तवमयाअसि। अयानो यज्ञं वहास्ययानो धोहि भेषजं स्वाहा इदमग्नये न मम।
(4) ¬ येते शतं यं सहस्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मु×चन्तु मरुत: स्वर्का: स्वाहा इदं वरुणाय सवित्रो विष्णवे विश्वेभ्यो देभ्यो मरुद्भय: स्वर्केभ्यश्च न मम।
(5) ¬ उदुत्तामं वरुणपाशमस्मदवाधामं विमध्यमं श्रथाय। अथावयमादित्यव्रते तवानागसोऽअदितये स्याम स्वाहा इदं वरुणाय न मम।
इसके बाद थोड़ा जल गिराकर नवग्रह आदि देवताओं के नाम लेकर और जिस देवता का होम करना हो उसका भी नाम लेकर स्वाहा शब्द के साथ चतरुथ्यन्त उच्चारण करके आहुतियाँ दे और अन्त में '¬ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा इदमग्नये स्विष्टकृते न मम' पढ़कर आहुति दे और पूर्णाहुति करे। होम के आरम्भ में संकल्प करके होम शुरू करे और अन्त में पूर्णाहुति का संकल्प करे। यदि दूसरा आदमी होम करने वाला हो तो भी संकल्प स्वयं पढ़ना चाहिए और 'इदं प्रजापतये न मम' इत्यादि प्रतिमन्त्र के अन्त में स्वयं बोलना चाहिए और उसी के साथ आहुति छोड़नी चाहिए, न कि 'स्वाहा' के साथ। इनका नाम त्याग हैं और इसके बोलने का अधिकार केवल यजमान को ही हैं। इसके बिना आहुति अधूरी रह जाती हैं।
6. ब्राह्मणों की पदवियाँ
यद्यपि ब्राह्मणों की पुरानी और नवीन पदवियों के विषय में अच्छी तरह लिखा जा चुका हैं। और कुछ नाम भी पदवियों के साथ लिखे गये हैं। तथापि कुछ अधिक नामों और पदवियों के दिखला देने से लोगों को बहुत दिनों की भ्रान्त धारणा के दूर होने में आसानी होगी। हम हरेक ब्राह्मण दलों के कुछ इने-गिने नाम ही दिखलाएँगे। सभी नाम वर्तमान लोगों के ही नहीं हैं।
कान्यकुब्ज
(1) चौधुरी खुमान सिंह, बिठूर, कानपुर। (2) चौधुरी हरनारायण सिंह, सुलतानगंज, फतहपुर। (3) प. अयोध्या सिंह तिवारी, जहानागंज, फतहगढ़। (4) ठाकुर नारायण सिंह, सीरू के अवस्थी। (5) रुद्रसाह, खजुहा, फतहपुर। (6) खाण्डेराय, फतहपुर। (7)लालसाह, फतहपुर। (8) रनजीत राय, फतहपुर। इसके सिवाय (9) सावर्णि। (10)ठकुरिया। (11) राउत। (12) मैरहा। (13) अधवर्यु इत्यादि पदवियाँ भी प्रचलितहैं।
सर्यूपारी
(1) बाबू बैजनाथ सिंह, कुरौना, बनारस। (2) श्री युतविवेकी सिंह, सिंहनपुरा, शाहाबाद। (3) त्रिपाठी बूआ सिंह, बेरौचा, वांदा। (4) त्रिपाठी नृपति सिंह, मंडौर, बांदा।
(5) श्री रामशरण सिंह, चरवा, इलाहाबाद। (6) ब्रह्मदत्ता सिंह, टाटा, इलाहाबाद। (7) कल्लू सिंह, थरी, मिर्जापुर। (8) श्री त्रिभुवन सिंह, गंगहरा, मिर्जापुर। (9) श्री बलदेव सिंह, परवापाल, रीवां राज्य। (10) श्री शम्भू सिंह, मनिकबरा, रीवाँ राज्य।
गौड़
(1) पं. अमर सिंह, एम.ए., तहसीलदार, दिल्ली। (2) राजा फतह सिंह, शेखूपुरा, लाहौर, सभापति गौड़ सभा। (3) पं. रघुवीर सिंह, डिप्टी कलेक्टर, हिसार। (4) पं. बद्रीदास, निरीक्षक, गौड़ सभा, कुरुक्षेत्र। (5) पं. रामस्वरूप चौधुरी रईस, शिकारपुर। (6) श्री भाऊराम स्वामी, कोराली, अम्बाला।
सनाढय
(1) कुँवर हनुमान सिंह, आनरेरी मजिस्ट्रेट, अलीगढ़। (2) रायसाहिब ठाकुर केहरी सिंह रईस, मथुरा। (3) कुँवर सुजान सिंह रईस, जिला अलीगढ़। (4) रायबहादुर पलिया राधोबा रत्तीराम रईस, अलीगढ़। (5) भटैले श्याम बिहारी लाल रईस, जिला एटा। (6) पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय, निजामाबाद, आजमगढ़।
पालीवाल
(1) शाह रामचन्द्र शर्मा रईस, रामपुरा, मैनपुरी, सभापति पालीवाल सभा। (2) सेठ भगवान् दास रईस, सुकीट, एटा, उपसभापति। (3) शाह किशोरी लाल रईस, बाजीदपुर, अलीगढ़, मन्त्री। (4) शाह मोहन लाल शर्मा, ताल्लुकेदार, सिमरा आगरा। (5) शाह दुर्गा प्रसाद शर्मा, ताल्लुकेदार।
मैथिल
(1) सर रामेश्वर सिंह, महाराज बहादुर, दरभंगा। (2) महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह, (3)बाबू तुलापति सिंह, महाराज दरभंगा के चचा। (4) महामहोपाध्याय श्री कृष्णसिंह ठाकुर, दरभंगा। (5) पं. बबुआ खाँ, बनगाँव, दरभंगा। (6) पं. गुणपति सिंह, वीरसायर। (7) बाबू यदुनन्दन सिंह झा, चनौर। (8) कुमार सूर्यानन्द सिंह, बनैली रामनगर। (9) पं. मुक्तिनाथ ठाकुर, अथरी, मुजफ्फरपुर। (10) पं. जीवनाथ राय, व्याकरणतीर्थ, वीरसायर। (11) तुरन्तलाल चौधुरी, दुलारपुर। (12) सेठ रामाश्रय सिंह, केवटा। (13) खेदू ईश्वर, मराँची, मुँगेर। (14) पं. योगानन्द कुँवर, भूतपूर्व सम्पादक, मिथिला मिहिर, दरभंगा।
जिझौतिया
(1) श्रीयुत् दर्याव सिंह जागीरदार, चित्रकूट। जुझौतियों की वंशावली में ही उनकी। (2) राव (राउ) त, (3) राय, (4) अरिजरिया, (5) नायक, (6) भंड़ैरिया, (7) पटैरिया, (8) गंगेले, (9) सुल्लेरे, (10) फौजदार, (11) बोहरे या बहोरे, (12) दीन, (14)घड़ियाली, (15) पारसाई, (16) सराफ आदि पदवियाँ लिखी हैं।
भूमिहार, पश्चिम, जमींदार
(1) द्विजराज काशीराज श्रीमत्प्रभुनारायण सिंह शर्मा। (2) श्रीमान आदित्य नारायण सिंह शर्मा, महाराज कुमार, बनारस। (3) श्री कवीन्द्र नारायण सिंह, जगतगंज, काशी। (4) श्री इन्द्रजीत प्रताप बहादुर साही, राजा साहब, तमकुही। (5) श्री गुरुमहादेव आश्रम प्रसाद साही, महाराजा, हथुवा। (6) श्री बेनीप्रसाद सिंह, सराय गोवर्धन, काशी। (7) पं. रघुनाथ प्रसाद साही शर्मा, साँढ़ा, मुजफ्फरपुर। (8) पं. रामदास राय मिश्र, काव्यतीर्थ, प्रोफेसर, भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज, मुजफ्फरपुर। (9) राजा हरिहर प्रसाद नारायण सिंह, अमाव। (10) पं. सन्तप्रसाद सिंह शर्मा, बकठपुर, मुजफ्फरपुर।
त्यागी
(1) श्री चौधुरी रघुवीर नारायण सिंह, ताल्लुकेदार, असौढ़ा मेरठ। (2) पं. पिर्ंसिंह शर्मा, नायकनगला, बिजनौर। (3) चौधुरी अनूप सिंह, नहटौर, बिजनौर। (4) चौधुरी बैजनाथ सिंह, रतनगढ़, बिजनौर। (5) पं. रामावतार शास्त्री, रतनगढ़, बिजनौर।
(6) चौधुरी रूपचन्द शर्मा, गोवर्धानपुर, सहारनपुर। (7) पं. शालिग्राम शर्मा, चरथावल, मुजफ्फरनगर। (8) पं. कूड़ेरामजी शर्मा, खरखौदा, मेरठ। (9) प्रोफेसर पं. धर्मवीरशर्मा।
महियाल
(1) बाबू शिवनाथ सिंह, गाजीपुर। (2) महते योगध्यान सिंह, प्रधान, महियाल सभा, लाहौर। (3) बा. हीरासिंहजी दत्ता, मन्त्री, महियाल सभा। (4) पं. रामभज दत्ता चौधुरी, लाहौर। (5) रायजादा नत्थूराम वैद्य, मन्त्री, महियाल सभा, शिमला। (6) रामरिक्खा मलदत्ता, मन्त्री, महियाल सभा, झेलम। (7) श्रीयुत् दीवान भीमसेन, सेनापति, राजा सूचित सिंह, जम्मू। (8) दीवान हेमराज, सेनापति, जम्मू। (9) रिसालदार मेजर हुकुम सिंह। (10) सूबेदार सन्ध्यादास, 25वीं पंजाबी पैदल सेना। (11) सूबेदार लाखा सिंह, पहली सिख पैदल सेना। (12) जमादार रामसिंह, दूसरी पंजाब घुड़सवार फौज।
इसके सिवाय पूर्व के प्रदर्शित इन सभी ब्राह्मण दलों में मिश्र, चौबे, दूबे, तिवारी, पाण्डे, पाठक, शुक्ल, ओझा, झा, उपाध्याय वगैरह पदवियाँ पाई जाती हैं, जिनका दिग्दर्शन ग्रन्थ में ही कराया जा चुका हैं। इसीलिए जानबूझकर उन्हें यहाँ नहीं लिखा हैं :
7. चरम उपसंहार और समर्पण
प्रसंगादपमानोक्ति: कटूक्तिर्यदिवोद्गता:।
निवत्तर्यसन्तस्तां क्षान्तसा×जलि: प्रार्थयाम्यहम्॥ 1॥
भाद्रमासि सिते पक्षे शुभे चन्द्रजवासरे।
द्वितीयायां तिथौ रात्रौ गुणाश्वांकेन्दुवत्सरे॥ 2॥
अविमुक्ते निवसता परोपकृतिबुद्धिना।
रचित: सहजानन्दसरस्वत्याख्यदण्डिना॥ 3॥
वर्द्धितश्च पुनर्भाद्रे भूवस्वंकमहीमिते।
ब्रह्मर्षिवंशविस्तार: सोऽयं सर्वाúसंयुत::॥ 4॥
सुमनोऽ×ललिरूपेण सुमनोभोददायिना।
अमुना पार्वतीजानि: प्रीयतां जगतीपति:॥ 5॥
इति श्रीवाराणसेयदशाश्वमेधाघट्टस्थमठभूतपूर्वालारश्रीमद्विश्वरूपसरस्वती पूज्यपादविनेयपरम्परा प्रविष्ट श्रीमत्स्वामिवर्याद्वैतानन्द सरस्वती पूज्य चरणाम्बुज भृगयमाण स्वामि सहजानन्द सरस्वती विरचिते ब्रह्मर्षि वंश विस्तरे उत्तर परिशिष्टाख्यं चतुर्थं प्रकरणम्॥
॥ समाप्तश्चायं ग्रन्थ:॥ शुभम्भूयादनिशम्॥
परिशिष्ट
प्राचीनकाल में मिथिला के व्यवहार से धर्म का निर्णय किया जाता था-मिथिलाया व्यवहारत:, ''अर्थात् धर्म आदि के सम्बन्ध में मिथिला के निवासी जो कुछ कहते या करते थे, वह शास्त्रानुमोदित होता था। शास्त्र प्रतिकूल वे कुछ भी रागद्वेषवश कहने या करने को तैयार नहीं होते थे। इसी से उनके वचन मान्य होते थे। मिथिला में आज भी भूमिहार ब्राह्मण को पछिमा ब्राह्मण कहते हैं। इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं। फिर भी कुछ दुराग्रही लोग भूमिहार को ब्राह्मण मानने से कतराते हैं। यहाँ तक तो गनीमत हैं, क्योंकि जिसका मानसिक स्तर द्वेषग्रस्त हैं उससे सद्विवेक की बात करना ही अनावश्यक हैं। किन्तु ईधर जातिगत वाद-विवाद सम्बन्धी एक मुकदमे का विषय जो मुझे दण्डी स्वामी विमलानन्द सरस्वती रचित पुस्तक 'ब्राह्मण कौन' में पढ़ने को मिला, उससे मुझे आश्चर्य हुआ। पश्चात् मेरे एक मित्र ने इस सम्बध में अपना विचार प्रकट करने के लिए मुझसे आग्रह किया। अतएव इस लेख में आगे रखे जाने वाले अपने विचार के उपोद्वलक उक्त मुकदमे का संक्षिप्त विवरण पहले यहाँ उध्दृत किया जा रहा हैं-''अयोध्याजी में पुराना 'आनन्द भवन' नामक एक मठ हैं, जिसकी स्थापना भूमिहार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक विरक्त महात्मा ने की थी। उस मठ के महन्थ 'सियावर शरण' अपना उत्तराधिकारी घोषित किये बिना ही साकेतवासी हो गये। अस्तु, उनके भण्डारे में उपस्थित सन्त-महन्थों ने परम्परा के अनुसार उनके शिष्य 'महावीर शरण' को चादर देकर महंथ घोषित किया। 'आनन्द भवन' की भूसम्पत्ति फैजाबाद जिले के बीकापुर विकास प्रखण्ड भीतर 'मंझनपुर' ग्राम में पड़ती हैं। वहाँ का एक लोभी व्यक्ति मठ की कुछ भूमि हथियाना चाहता था। महन्थ महावीर शरण के रहते इसकी सम्भावना न देख उसने एक कठपुतली वैरागी सन्त नामधारी 'राम दुलारे शरण' के द्वारा अदालत में 'श्री महावीर शरण' की महन्थी को चुनौती देते हुए यह दावा कराया कि महन्थ 'सियावर शरण' का भण्डारा मैंने किया था और सन्त-महन्थों ने आनन्द भवन का महन्थ मुझे चुना हैं। उनका यह भी कहना था कि आनन्द भवन मठ का महंथ वसीयतनामे के अनुसार वही हो सकता हैं जो विरक्त वैरागी तथा ब्राह्मण हो। महावीर शरण भूमिहार हैं, इसलिए मठ का महन्थ होने के योग्य नहीं हैं। क्योंकि भूमिहार ब्राह्मण नहीं होते। उन्होंने मठ पर अवैध अधिकार कर लिया हैं। उन्हें वहाँ से हटा दिया जाय। किन्तु सब-जज श्री रामकुमार सक्सेना ने मूल वाद संख्या 22 सन् 1962 में 31-3-64 को अपने पारित निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा कि महावीर शरण भूमिहार ब्राह्मण हैं और उनकी शपथ के अनुसार मैं यह मानता हूँ कि उनकी जाति ब्राह्मण मानी जाती हैं। मैं उन्हें ब्राह्मण मानता हूँ और वे अहदनामे के अनुसार मन्दिर के सरबराहकार बनने के लिए सर्वथा योग्य हैं। महावीर शरण सियावर शरण के पुराने चेला हैं। निर्माणकर्ता द्वारा निर्मित सभी योग्यताएँ महावीर शरण में विराजमान हैं। अत: मैं रामदुलारे शरण का दावा खारिज करता हूँ।
इसके बाद रामदुलारे शरण उसकी अपील की। तत्कालीन जिला जज श्री आर पी. दीक्षित ने पुनर्विचार के लिए मुकदमे को उसी न्यायपीठ में लौटा दिया। उस समय श्री सक्सेना साहब का स्थानान्तरण हो चुका था और उनकी जगह पर श्री जी. डी. चतुर्वेदी आ चुके थे। उन्होंने बिना सोचे-समझे अपने निर्णय में लिखा कि भूमिहार लोग ब्राह्मण नहीं होते और उस वंश से सम्बन्धित महाराज बनारस, महाराज हथुआ और महाराज तमकुही भी ब्राह्मण नहीं हैं।
तत्पश्चात् कुछ विद्वानों एवं सन्तों ने महावीर शरण की ओर से जी. डी. चतुर्वेदी महोदय के निर्णय के प्रतिकूल जिला जज के पास अपील दाखिल किया।
जज साहब ने पुन: सुनवाई के लिए मुकदमे को एडिशनल जिला जज,
'श्री एस.ए.अब्बासी' महोदय के न्यायपीठ में भेज दिया। विद्वान्, अनुभवी और कुशाग्र बुद्धिवाले न्यायमूर्ति 'अब्बासी' महोदय ने पुन: नये सिरे से अभियोग का परीक्षण किया और बड़े मनोयोग से ग्रन्थों तथा अभिलेखों का अध्यायन एवं गवाहियाँ लीं। सारे परीक्षण के बाद वे इस निर्णय पर पहुँचे कि 'भूमिहार ब्राह्मण उत्तम ब्राह्मण' हैं इस प्रकार उक्त मुकदमे में महन्त महाराज महावीर शरण की विजय हुई।
इसके बाद विपक्ष की ओर से जिला जज, फैजाबाद के यहाँ अपील की गयी। किन्तु एडिशनल (अतिरिक्त जज) (न्यायाधीश ने अब्बासी महोदय के फैसले को बरकरार रखा। तब अन्त में विपक्ष की ओर से उच्च न्यायालय के लखनऊ पीठ में अपील की गयी। किन्तु उच्च न्यायालय ने भी नीचे के न्यायाधीशों के फैसलों को पूर्ण समर्थन के साथ बहाल रखा।
अब इस सम्बन्ध में हमारा निवेदन हैं कि जैसे अन्य ब्राह्मणों के विषय के 'जाति विलास', 'जाति भास्कर' एवं 'जाति निर्णय' आदि संकलित ग्रन्थ ही प्रमाण माने जाते हैं, वेदादि शास्त्र नहीं। क्योंकि उनमें तो ब्राह्मण मात्र का उल्लेख हैं, न कि देशोपाधि विशिष्ट ब्राह्मण जाति का। उसी प्रकार भूमिहार ब्राह्मण के विषय में महर्षि 'मरीति प्रणीत' 'जाति विलास' को क्यों न प्रमाण माना जाय? 'जाति विलास' ग्रन्थ के 152वें अध्याय में भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता हैं, जो कि संक्षेप में इस प्रकार हैं-
''पुराणों में यह बात प्रसिद्ध हैं कि भगवान् परशुराम ने इक्कीस बार दुष्ट राजाओं का विनाश करके देश, काल, पात्र के अनुसार ब्राह्मणों के लिए पृथ्वी दान कर दी और स्वयं तप करने के लिए वन में चले गये। इसलिए 'श्रीमद्भागवत्' में लिखा हैं कि-'सर्वस्व ब्राह्मणस्येदं यत्कि×च जगतीतले' अर्थात् इस संसार में जो कुछ हैं, वह ब्राह्मण का ही धन हैं। कालान्तर में ब्राह्मण ने ही धन वितरित करके संसार का व्यवहार चलाया। अस्तु प्रस्तुत प्रसंग में जब परशुरामजी ने ब्राह्मणों को पृथ्वी दे दी तब शान्तिप्रिय ब्राह्मणों ने उनसे निवेदन किया-''प्रभु! आप तो वन में जा रहे हैं। यदि दुष्ट लोग युद्ध की इच्छा से हम पर आक्रमण करें तो हमारी रक्षा कौन करेगा?'' इस पर परशुरामजी ने ब्राह्मणों को एक शंख देते हुए कहा-''जब भी कभी कोई तुम पर आक्रमण करे तो यह शंख बजा देना। मैं तुरन्त आकर दुष्टों को दण्ड दूँगा।'' यह पाकर ब्राह्मण निश्चिन्त हो बड़ी निपुणता से संसार का पालन करने लगे।
कुछ समय के उपरान्त एक बार ब्र्राह्मण परिषद् में कुछ खल प्रकृति के ब्राह्मणों ने वह भाव प्रकट किया कि इस शंख की परीक्षा ली जाये। इसको हममें से कोई बजाये। यदि इसकी ध्वनि सुनकर परशुरामजी आ जाते हैं तो हमें विश्वास हो जायेगा कि समय पर परशुरामजी हमारी रक्षा अवश्य करेंगे, अन्यथा हमें राजनीति के चक्कर में पड़ना अच्छा नहीं। यद्यपि इस विचार को उत्तम प्रकृति के ब्राह्मणों ने पसन्द नहीं किया, किन्तु अश्रध्दालुओं ने बहुमत से इसको पास करके शंखध्वनि कर डाली। ध्वनि सुनते ही भगवान् परशुराम आ पहुँचे और ब्राह्मणों से कहने लगे कि शीघ्र बतलाओ तुम्हारा शत्रु कहाँ हैं? मैं क्षण-भर में उसका विनाश करूँगा। ब्राह्मण भय से काँपने लगे और बोले-'प्रभु! अपराध क्षमा हो, हम लोगों ने आपके पुण्य दर्शन की अभिलाषा से शंख बजा दिया था। अब हम लोग आपके दर्शन से कृतार्थ हो गये।' किन्तु अन्तर्यामी भगवान् का क्रोध शान्त नहीं हुआ। उन्होंने ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि ''तुम लोग राज्य करने के योग्य नहीं हो। तुम्हें दरिद्रता से कष्ट भोगना पड़ेगा। फिर जो ब्राह्मण शंखध्वनि की परीक्षा लेने के पक्ष में नहीं थे, उनसे कहा कि तुम लोग भूमिपति होंगे तुम्हें दरिद्रता का सामना नहीं करना पड़ेगा' यह कहकर भगवान् चले गये। जो ब्राह्मण परीक्षा लेने के पक्ष में नहीं थे, वे विश्वामित्रा के पक्षधार थे, इसलिए कौशिक गोत्र में उनकी जीविका वृत्ति की उपकल्पना की गयी। जिस वंश से जिसका रक्षण होता हैं उसके उसी वंश से गोत्र का व्यवहार होता हैं। यही कारण हैं कि कौशिक गोत्रोत्पन्न भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या अधिक हैं। किन्तु सावर्ण्य, वत्स, शाण्डिल्य आदि गोत्र भी भूमिहारों के होते हैं। सम्भवत: ये ऋषि भी कौशिक के समर्थक रहे होंगे।''
यहाँ हम 'जाति-विलास' के कुछ अन्तिम श्लोकों को उध्दृत कर रहे हैं :
तथा कालेन चारम्भस्सद्भावो भावमावृत:।
एतस्यात्मात्कौशिके गोत्रो भूमिहार: समन्वय:॥ 99॥
एवं प्रयोज्यमानत्वात्तात्तवधर्मा निराकृत:।
भानुदप्रो महासौम्य: सर्वमूल्लमनुस्मृतम्॥ 100॥
अजीतगर्तस्त्रायोपुत्र: भानुदत्तास्य प×चका:।
जयद्रथस्यषट् पुत्रा: सोमसिन्धुर्दशाब्रत:॥ 101॥
भूमिहारा: प्रजायन्ते परशुरामप्रभावत:।
एतस्मात् शाश्वतोधार्मोब्रह्मवृत्तार्व्य वस्थिता॥ 102॥
ब्राह्मकालं विजानीयाद्ब्राह्मतत्त्वव्यवस्थितम्।
ब्रह्मदेशं तथाकार्य तथावृत्ति: तथा क्रिया॥ 103॥
अर्थ-इस प्रकार भगवान् परशुरामजी के सम्बन्ध से भूमिहार जाति-भेद से नियुक्त हुए और कौशिकादि गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मणों का वंश प्रवृत्त हुआ। जिनके आदिपुरुष महासौम्य भानुदत्ता हुए। तथा अजीतगर्त और उनके तीन पुत्र हुए। भानुदत्ता के पाँच पुत्र हुए, जयद्रथ के छह पुत्र हुए। इस प्रकार सोम, सिन्धु और दस वंशज अन्य :
इस प्रकार शाश्वत् धर्म और व्यवस्थित ब्राह्म वृत्ति के पालक भूमिहार ब्राह्मण परशुरामजी के प्रभाव से ब्राह्मकाल, ब्राह्मतत्त्व तथा तत्त्वदेशादि व्यवहार-वृत्ति में कुशल हुए॥ 99-103॥
उपर्युक्त प्रकार से 'जाति-विलास' में भूमिहार ब्राह्मण उत्पत्ति का वर्णन मिलता हैं। इस प्रकार 'कान्यकुब्ज वंशावली' पुस्तक में भी भूमिहार को ब्राह्मण प्रतिपादित किया गया हैं-
मदारादिपुराख्यस्य भूमिहारा द्विजास्तु ये।
तेभ्यश्च यवनेन्द्रैश्च महद्यद्वमभूत् पुरा॥
अर्थात् मदारपुर (कानपुर जिले में गंगा तट पर अवस्थित) के भूमिहार ब्राह्मण से यवनेन्द्रों का महान् युद्ध हुआ था। आधुनिक युग के महामनीषी डॉ. राजेन्द्र लाल मित्रा के भूमिहार ब्राह्मण के सम्बन्ध में अपने 'बंगला मासिक' पत्र के पर्व 4, खण्ड 47, पृष्ठ 73, शकाब्द 1719 में लिखा हैं-''कान्यकुब्ज ब्राह्मण दीगेर 5 ठो दल आछे, यथा सरवरिया, सनौढ़ा या सनाढय, जिझौतिया, भूमिहार एवं प्रकृत कनौजिया।''
इसी मन्तव्य का रूपान्तर करते हुए लिखित श्लोक में कान्यकुब्ज के पाँच भेद बतलाए गये हैं :
सर्यूपारी सदाढयश्च भूमिहारो जिझौतय:।
प्राकृताश्च इति प×चभेदास्तस्य प्रकर्तिता:॥
यही आजकल के निष्पक्ष विद्वानों की भी धारणा हैं कि भूमिहार ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण का ही एक भेद हैं जैसे सर्यूपारी, सनाढय आदि कान्यकुब्ज के भेद हैं।
अब प्रश्न यह उठता हैं कि भूमिहार ब्राह्मण में भूमिहार विशेषण क्यों लगा? इसका उत्तर इतिहास आदि के उद्भट विद्वान् योगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य के शब्दों में यह हैं-ये ब्राह्मण 'जायगीर' इत्यादि रूपे भूमि प्राप्त हइया छेन से भूमिहार:। 'भूमिहार' शब्द हैं-भूमिं हरति केनचित् उपायेन स्वीकारेति गृह्णाति इति भूमिहार: भूमिं हृ$ अण्। अर्थात् भूमि को स्वीकार करने या ग्रहण करने वाला 'हृ, हरणो' धातु से बना हैं। हरण का अर्थ स्वीकार भी होता-''हरणा पापणं स्वीकार: स्तेयं नाशनं च इति चत्वार: अर्था:।''
योगेन्द्र भट्टाचार्य ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'हिन्दू कास्ट एण्ड सेक्ट्स' में इस बात को और भी स्पष्ट किया हैं जिसका सारांश इस प्रकार हैं :
भूमिहार ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति का पता तो सिर्फ उनके नाम से ही मिल जाता हैं। इसका शब्दार्थ हैं-'भूमिग्राही ब्राह्मण'। राजपूताना गजेटियर के अनुसार भूम एक प्रकार का जमीन में हक था जो पुश्त दर-पुश्त तक चलता रहता था। इस भूमि का लगान नहीं देना पड़ता था, यह छीनी नहीं जाती थी, इत्यादि।
इस प्रकार विद्वानों ने जो 'भूमिहार' शब्द का विश्लेषण-विवेचन किया हैं, उससे जिन ब्राह्मणों को भगवान् परशुराम द्वारा भूमि दी गयी थी, उनका सम्बन्ध स्पष्ट रूप से जुड़ जाता हैं, जो अपने आप में साक्षात् इतिहास हैं।
प्राचीनकाल से लेकर आज तक के बड़े-बड़े विद्वानों की भी यही सम्मति हैं कि भूमिहार ब्राह्मण ही हैं। जैसे मैथिल मनीषी महामहोपाध्याय चित्राधार मिश्र, महामहोपाध्याय बालकृष्ण मिश्र आदि। सर्यूपारी विद्वान् महामहोपाध्याय द्विवेदी, महोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि। कान्यकुब्ज विद्वान् सम्पादकाचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, पं. लक्ष्मीनारायण दीक्षित शास्त्री, पं. वेंकटेश नारायण तिवारी आदि। इस प्रकार अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मणेतर जातियों के विद्वानों ने भी इस सत्य को स्वीकारा हैं कि भूमिहार ब्राह्मण ही हैं।
-आचार्य तारिणीश झा
चैप्टर- 1
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