Sunday, 12 February 2017

गोत्रादि विषयक 

औदीच्य बन्धु वेव

उदीच्य या औदीच्य का अर्थ है, उदीची या सूर्य के उदित होने की दिशा, भारत का उत्तर पूर्व भू भाग, जहाँ प्रमुख रूप से हिंदी भाषियों का निवास है|

"सहस्रोदीच्य ब्राह्मणों के गोत्रादी" -अपना गोत्र ,प्रवर, कुलदेवी आदि के बारे में जानिए ।

गोत्रादि विषयक 

ज्ञान

View               [ग्राम, पद या अवटंक, गोत्र, संख्या प्रवर, वेद, शाखा, शिव, गणपति, कुलदेवी, भेंरव, आदि।]

डॉ मधु सुदन व्यास उज्जैन।

गोत्रादी जानने के लिए 

"सहस्रोदीच्य ब्राह्मणों के गोत्रादी" 

नामक यह डिजिटल पुस्तक क्लिक कर देखें। 
समझने के लिए भूमिका पढ़ें       

भूमिका 

      जिस प्रकार से हर मनुष्य अपने भविष्य के बारे में जानना चाहता है,  उसी प्रकार वह अपने आदि पुरुषों का गोरव मय इतिहास या भूत काल के बारे में जानने में भी रुचि लेता है। अपने वंश की उत्पत्ति या गोत्र वाली जानने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति की रहती है। हमारे औदीच्य ब्राह्मण समाज में वर्तमान समाज के हर आयु वर्ग विशेषकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त नवयुवको को इस बारे में ओर अपने गोत्र, शाखा सूत्र, वंश, अवटंक, आदि के बारे में कम जानकारी है। जब भी विवाह, यज्ञ, मृत्यु संस्कार आदि कर्म कांड के समय जब इसके बारे में पूछा जाता है, तो उन्हे अपने बुजुर्गों की ओर देखना पड़ता है। पर सभी बुजुर्गों को भी इसकी पूर्ण जानकारी अक्सर नहीं होती है।

      पूर्व में कई बार पत्रिका औदीच्य बंधु आदि के माध्यम से ओर अभी कुछ समय पूर्व ही समाज के कुछ उत्साही महानुभवों ने इस विषय में श्री स्थल प्रकाश में वर्णित गोत्रादि की जानकारी हिन्दी में उज्जैन क्षेत्र में एक पुस्तिका के माध्यम से प्रदान भी की पर उसके माध्यम से भी सभी जिन्हे इस विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं को समझ पाना सरल नहीं हुआ। 

         श्री स्थल प्रकाश/ औदीच्य ब्राह्मणो का इतिहास, आदि सभी ग्रंथो में प्रकाशित इस बात को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है, की वास्तव में यह क्या है? उदाहरण स्वरूप साथ ही प्रस्तुत एक तालिका में देखें तो इसके कालम में क्रम से ग्राम, पद या अवटंक, गोत्र, संख्या प्रवर, वेद, शाखा, शिव, गणपति, कुलदेवी, भेंरव, आदि हें। 

क्रम से इनका विस्तार से निम्नानुसार समझा जा सकता है।

1-  ग्राम - यह ग्राम के नाम दान में प्राप्त होने वाले ग्रामो के नाम हें। इसका अर्थ समझने के लिए हमको इतिहास की ओर जाना होगा। अपने पाप का प्रायश्चित करने के उद्धेश्य से पाटन नरेश मूलराज ने उत्तर दिशा से 1037 ब्राह्मणो को आमंत्रित किया था [देखे-औदीच्य ब्राह्मण के रूप में मूल इतिहास । यज्ञ के पश्चात कार्तिक पुर्णिमा के दिन राजा ने एक सहस्र [1000 सहस्रोदीच्य ब्राह्मणो में से 21 ब्राह्मणो को सिद्धपुर, [ब्राह्मण उत्पत्ति मार्तंड श्लोक 97-100] क्षेत्र, 479 ब्राह्मणो को सिद्धपुर के चारों ओर के 171 ग्राम [ब्राह्मण उत्पत्ति मार्तंड श्लोक 102]। इसी प्रकार 10 को सीहोर(कठियावाड़), 490 ब्राह्मणो को सीहोर क्षेत्र के चारों ओर के 81 ग्राम, [ब्राह्मण उत्पत्ति मार्तंड श्लोक 102-103] का दान किया था।ये इसी कारण सहस्र औदीच्य कहलाते हें, तथा शेष 37 जिन्होने कोई दान स्वीकार नहीं किया, वे टोलकीया कहाए)]।

2-  अबंटक- सरनेम या पहचान का नाम। सभी के अवटंक उनके कार्य, निवास, आदि जेसे ज्योतिषी- जोशी, तीन वेद अध्यायी -त्रिवेदी, शासन कर्ता- ठाकुर, आदि आदि के अनुसार बने। माना जाता हे की आदि गुरु शंकराचार्य जी के काल से ब्राह्मणो की संख्या वृद्धी के कारण पहचान में आसानी हेतु अवटंक प्रचलन में आए, तदनुसार ही कन्नौज वाले कान्यकुब्ज या सरयू नदी के किनारे रहने वाले सरयूपारीय आदि कहलाए हें।
 3-  गोत्र- का अर्थ है, की वह कौन से ऋषिकुल में से उतर कर आया है। या उसका जन्म किस ऋषिकुल से संबन्धित है। किसी व्यक्ति की वंश परंपरा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है।   

            हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान हें, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया। [गोत्रों की उत्पत्ति सर्व प्रथम ब्राह्मणो मे ही हुई थी क्योकि यह वर्ग ही ज्ञान से इसे स्मरण रखने में समर्थ था। धीरे धीरे जब ब्राह्मण वर्ग का विस्तार हुआ तब अपनी पहिचान बनाने के लिए अपने आदि पुरुषों के नाम पर गोत्र का विस्तार हुआ। 

          इन गोत्रों के मूल ऋषि – अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, तथा कुशिक थे, ओर इनके वंश अंगिरस, भार्गव,आत्रेय, काश्यप, वशिष्ठ अगस्त्य, तथा कौशिक हुए। [ इन गोत्रों के अनुसार इकाई को "गण" नाम दिया गया, यह माना गया की एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा।

         इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई। इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ। 

       गोत्र शब्द का एक अर्थ गो जो प्रथ्वी का पर्याय भी हे ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ प्रथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही हे। गो शब्द इंद्रियों का वाचक भी हे, ऋषि मुनी अपनी इंद्रियों को वश में कर अन्य प्रजा जानो का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्र कारक कहलाए।

        मेक्समूलर के अनुसार यह भी है, की ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परंपरा पड़ गई।  

       उदीची ऋषि बोधायन ने जिनके नेतृत्व में सहस्र ब्राह्मण गुजरात आए थे ने, अगस्त्य ओर सप्त ऋषियों की संतानों को गोत्र कहा है। औदीच्य ऋषि पाणनि ने भी बोधायन का ही समर्थन किया है।

4-  प्रवर- प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" गोत्रकारों के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें। अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के पश्चात होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ हे की मूल ऋषि के बाद उस कुल में तीन, पाँच आदि ओर ऋषि भी विशेष महान हुए थे।

5- वेद- वेदों की रचनाएँ ऋषियों के अंत:करण प्रस्फुटित हुई थी, उनकी उत्पत्ति के समय लेखन कला नहीं थी इस कारण वेद-मंत्रों को सुनकर, पड़ा ओर याद किया जाता था, चूंकि चारो वेद कोई एक ऋषि याद नहीं रख सकता था इसलिए गोत्रकारों ने ऋषियों के जिस छन्द या भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। 

6- शाखा- वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली थी, कालांतर में जब एक व्यक्ति किसी एक गोत्र का उस गोत्र के लिए निर्धारित वेद का पूर्ण अध्ययन कर लेने में असमर्थ होने लगा तो ऋषियों ने वेदिक परंपरा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

7- देवता – प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते हें वही उनका कुल देवता/ गणपती / शिव / भैरव उनके आराध्‍य देव है । इसी प्रकार कुल-देवी होती हें। इनका ज्ञान अग्रजों [माता-पिता] के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता रहा हे।
         हमारे यहाँ परंपरा हे की घर में होने वाली पूजा-यज्ञ माता-पुजा, आदि के समय इनको परिवार के सदस्यों के सम्मुख दोहराया जाता है। इससे प्रत्येक को पीढी दर पीढ़ी इनका ज्ञान बना रहता हे। कदाचित यदि परिस्थिति वश अब यह ज्ञान नहीं है, तो बुजुर्गों से परामर्श कर ओर गोत्र ऋषि के अनुसार निर्णय कर भविष्य के लिए ज्ञान कारण चाहिए।इनमें समय देश, काल, स्थान, एवं अन्य वंश के गोद जाने या विवाहादि कारणों के प्रभाव से परिवर्तन भी होता रहा है।

8-  विशेष वृत – स्थान विशेष को चिन्हित किया गया है।

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इसका प्रकाशन समाज हित में किया जा रहा है।

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