Monday 13 February 2017

ज्ञान

15 फ़रवरी तक ,विकिमीडिया फाउंडेशन अंग्रेजी बोलने में दक्ष कॉन्ट्रेटर (ठेकेदार) का आवेदन स्वीकार रही है जो की आंदोलन की रणनीति बनाने में मदद कर सके। भाग लेने कि सभी आवश्यक नियम व विधियाँ,विस्तार मे जानने के लिये यहाँ दबाये।  [ अनुवाद प्रक्रिया में हमारी मदद करें! ] मुख्य मेनू खोलें  Wikibooks में खोजें २ संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ पुराण और इतिहास पुराण और इतिहास भारतीय इतिहास संकलन समिति गोरक्षप्रान्त, उत्तर प्रदेश सम्पादक मण्डल प्रदीप कुमार राव मिथिलेश कुमार तिवारी ओमजी उपाध्याय रत्नेश कुमार त्रिपाठी महेश नारायण त्रिगुणायत इन्द्रा पब्लिकेशन्स नयी दिल्ली-गोरखपुर ISBN 978.81.921516.03 प्रथम संस्करण, गुरुपूर्णिमा, 2012 परामर्श प्रो. माता प्रसाद त्रिपाठी प्रो. अशोक श्रीवास्तव श्री बाल मुकुन्द पाण्डेय सम्पादक मण्डल प्रदीप कुमार राव मिथिलेश कुमार तिवारी ओमजी उपाध्याय रत्नेश कुमार त्रिपाठी महेश नारायण त्रिगुणायत मूल्य मूल्य रु. 50/- प्रकाशक इन्द्रा पब्लिकेशन्स * जी-19, द्वितीय तल_ विजय चौक लक्ष्मीनगर, दिल्ली-110092 : +91-9911042001 * इन्द्रा निकेतन, दक्षिणी हुमायूँपुर गोरखपुर, 273001, +91-7668402925 e-mail: indrapublications@gmail.com नमस्तस्मै मुनीशाय तपोनिष्ठाय धीमते। वीतरागाय कवये व्यासायामिततेजसे॥ तं नमामि महेशानं मुनिं धर्मविदां वरम्। श्यामं जटाकलापेन शोभमानं शुभाननम्॥ मुनीन सूर्यप्रभान् धर्मान् पाठयन्तं सुवर्चसम्। नानापुराणकर्तारं वेदव्यासं महाप्रभम्॥ (बृहद्धर्मपुराण, 1.1.23-25) जो तपोनिष्ठ, मुनीश्वर, अमित तेजस्वी, महाकवि, राग से सर्वथा शून्य तथा अत्यन्त निर्मल बुद्धि से संयुक्त एवं महामुनि शिवस्वरूप, श्यामवर्ण के हैं, जिनका मुखमण्डल जटाजूट से सुशोभित है, और जो ध र्मज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं तथा सूर्य के सामान प्रभा वाले मुनियों को धर्मशास्त्रों का पाठ पढ़ाने वाले हैं, ज्योतिर्मय हैं, अत्यन्त कान्तिमान हैं, सभी पुराणों तथा उपपुराणों के रचयिता हैं, उन महाप्रभु वेदव्यास को बारम्बार नमस्कार है। भारतीय इतिहास संकलन योजना मुद्रक कमल ऑफसेट प्रिन्टर्स दुर्गाबाड़ी, गोरखपुर-273001 साम्राज्यवादी एवं साम्यवादी इतिहासकारों द्वारा बन्धक बनाये गये भारतीय इतिहास को वैश्विक इतिहास के मंच पर तथ्यों-प्रमाणों के साथ मुक्त कराकर भारत के वास्तविक इतिहास लेखन को समर्पित प्रतिष्ठित, तपस्वी एवं राष्ट्रभक्त इतिहासकारों- प्रो0 शिवाजी सिंह प्रो0 सतीशचन्द्र मित्तल डॉ0 राजेन्द्र सिंह कुशवाहा प्रो0 ठाकुर प्रसाद वर्मा डॉ0 कुँवर बहादुर कौशिक के दीर्घायु होने की कामना के साथ उनके शुभाभिनन्दन में समर्पित। 6 ;सम्पादकीय सामाजिक-मानविकी विषयों में ‘इतिहास’ विषय का अनेक दृष्टियों एवं कारणों से अपना अलग महत्त्व है। अन्य विषयों से यह विषय और महत्त्वपूर्ण इसलिए हो जाता है कि यह विषय सभी राष्ट्रों-समाजों का अस्तित्व, उनकी पहचान, उनकी विरासत का उद्घाटन करते हुए उस राष्ट्र-समाज के मान-सम्मान, उसकी श्रेष्ठता-न्यूनता आदि का विवेचन प्रस्तुत करता है। इतिहास के ही पन्नों से वह राष्ट्र एवं समाज अपने पूर्वजों, अपने अतीत एवं अपनी विरासत की श्रेष्ठतम विशेषताओं पर गर्व करता है तो कमियों से सीख लेता है। अतीत से भी प्रशस्त वर्तमान के निर्माण के लिए वह राष्ट्र एवं समाज अपने अतीत की विशिष्टताओं से प्रेरणा ग्रहण करता है। सभ्यताओं के श्रेष्ठतावादी संघर्ष में इन्हीं कारणों से ‘इतिहास’ महत्त्वपूर्ण हो जाता है। परिणामतः ‘इतिहास रचना’ में इतिहासकार एवं उसकी दृष्टि की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इतिहास क्या है? इतिहास लेखन में तथ्य एवं इतिहासकार की भूमिका क्या है? इन प्रश्नों पर अनवरत विचार होता रहा है। इतिहास की मनगढ़न्त व्याख्या करने वाले इतिहासकार भी यही दावा करते हैं कि इतिहास विज्ञान है और इतिहास लेखन की पद्धति वैज्ञानिक होनी चाहिए। इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के समर्थक साम्यवादी इतिहासकारों की जमात भी यही ढोल पीटती है, किन्तु वास्तविकता में राज्याश्रित इतिहास, पाल्य इतिहासकारों द्वारा राज्य की रुचि, उसके उद्देश्य की पूर्ति के लिए निर्मित दृष्टि के अनुसार खींचे गये साँचे के अनुरूप तथ्य संग्रह कर लिखा गया इतिहास होता है, क्योंकि राज्याश्रित इतिहास लेखन शासन द्वारा पहले से तय किये गये एजेण्डे के अनुरूप होता है। साम्यवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध इतिहासकारों पर भी यही बात लागू होती है। यद्यपि कि सच यही है कि ‘इतिहास’ विज्ञान नहीं है, वह विज्ञान हो भी नहीं सकता, उसका विज्ञान होना ही उसे अप्रासंगिक बना देता है। विज्ञान भौतिक पदार्थों की रचना का शास्त्र है, इतिहास मानव रचना का शास्त्र है। विज्ञान यन्त्र बनाने का शास्त्र है तो इतिहास चेतना निर्मित करने का शास्त्र है। विज्ञान सभ्यता-निर्मिति का शास्त्र है तो इतिहास संस्कृतियों की निर्मिति एवं उसकी सातत्यता बनाये रखने का शास्त्र है। वर्तमान समाज को गढ़ने के लिए अतीत से मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रेरणा-स्रोत होना ही इतिहास को प्रासंगिक बनाता है। ऐसे में इतिहास रचना के अन्तर्गत समकालीन इतिहासकार द्वारा तथ्यों पर आधारित अतीत के राष्ट्र-समाज एवं उसके अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का वह वास्तविक चित्र प्रस्तुत करना होता है जिससे कि वह राष्ट्र-समाज अपना वर्तमान अतीत से भी बेहतर गढ़ सके और वर्तमान से भी बेहतर भविष्य निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सके अथवा उसका सपना देख सके। अतः किसी भी राष्ट्र-समाज द्वारा इतिहास की रचना इसी दृष्टि से की जानी चाहिए तभी उसकी प्रासंगिकता है। अतः इतिहास रचना में जितना महत्त्वपूर्ण ‘तथ्य’ है उतना ही महत्त्वपूर्ण भूमिका ‘इतिहासकार’ की है। वह शास्त्र जिसकी रचना में मानव मस्तिष्क और चेतना का उपयोग होगा, वह शास्त्र रचने वाले व्यक्ति की सोच, उसके मानस के प्रभाव से अछूता रहेगा यह काल्पनिक हो सकता है वास्तविक नहीं। इतिहासकार के दृष्टि की प्रभावी भूमिका के कारण ही ‘इतिहास लेखन’ एवं ‘इतिहास रचना’ सदैव विवादास्पद रही है। विशेषतः ‘भारत का इतिहास’ अंग्रेज शासकों, उनके पाल्य इतिहासकारों एवं स्वतन्त्र भारत में उनके उत्तराधिकारी इतिहासकारों द्वारा ‘विशेष उद्देश्य’ एवं ‘विशेष दृष्टि’ से लिखा गया। रही-सही कमी पूरा किया स्वतन्त्र भारत के साम्यवादी इतिहासकारों की दृष्टि ने। वस्तुतः भारत का इतिहास पाश्चात्य के श्रेष्ठतावाद की कुण्ठा एवं साम्यवादी इतिहासकारों के ऐतिहासिक भौतिकवाद का शिकार हुआ। परिणामतः भारत का विपुल धार्मिक साहित्य, यथा- वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक, स्मृतियाँ, अष्टाध्यायी, अर्थशास्त्र, रामायण, महाभारत, आदि का ऐतिहासिक स्रोत के रूप में उपयोग इतिहासकारों द्वारा सुविधानुसार किया गया। अर्थात् यदि भारत को गाली देना है तो उपर्युक्त ग्रन्थ के सन्दर्भित उल्लेख तथ्य हैं, किन्तु भारत की गौरव-गाथा के सन्दर्भ में उन्हीं ग्रन्थों के उल्लेख इन इतिहासकारों द्वारा कपोल-कल्पित घोषित किये जाते रहे। एक ही ग्रन्थ एक सन्दर्भ में ‘प्रमाण’ बना तो दूसरे सन्दर्भ में वही ग्रन्थ ‘बकवास’ कह दिया गया। इतिहासकारों की इसी दृष्टि-दोष के शिकार ‘भारतीय इतिहास’ के अनेक उज्ज्वल अध्याय यद्यपि कि राष्ट्रवादी इतिहासकारों के प्रयासों से प्रकाशित हुए तथापि भारत का सम्पूर्ण इतिहास आज भी दोषपूर्ण है, इतिहासकारों के दृष्टि-दोष का शिकार है। भारत की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने की दृष्टि से असफल है। ब्रिटिश शासकों एवं साम्राज्यवादी-साम्यवादी इतिहासकारों द्वारा भारत का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन का इतिहास जान-बूझकर विकृत किया गया। इतिहास रचना में तथ्य को महत्त्वपूर्ण मानने वाले, तथ्याधारित प्रामाणिक इतिहास-रचना की घोषणा करने वाले इतिहासकारों ने ही ‘तथ्यों’ के चुनाव, उनकी व्याख्या में अपनी दृष्टि को महत्त्वपूर्ण माना और जो चाहा उसके अनुसार तथ्यों का संकलन किया। भारत के विपुल साहित्य से प्राप्त उज्ज्वल पक्षों को परम्परा, प्रगति-विरोधी एवं कल्पित कहकर उन्हें भारतीय इतिहास का हिस्सा ही नहीं बनने दिया। डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘पश्चिमी एशिया एवं ऋग्वेद’ की भूमिका लिखते हुए श्री श्याम कश्यप ने ठीक ही लिखा है कि- "इधर हम लोग समकालीनता के प्रति उत्साह से कुछ इस कदर आक्रान्त हैं कि इतिहास और परम्परा का तिरस्कार ‘आधुनिक’ होने की प्रथम शर्त बन गया है। साहित्य, कला, संस्कृति से लेकर शिक्षा तक सभी क्षेत्रों में इसी फैशन की छूत फैली हुई है।" भारतीय इतिहास को भारत-विरोधी दृष्टि में कैद करने वाले इतिहासकारों की भूमिका को प्रकारान्तर से रेखांकित करते हुए प्रो. शिवाजी सिंह अपनी पुस्तक ‘प्राग्वैदिक आर्य और सरस्वती-सिन्धु सभ्यता’ के आमुख में हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए लिखते हैं- "हमारी इतिहास-चेतना का निर्माण जिस इतिहास के आधार पर होता है उसके दो रूप हैं। एक इतिहास वह है जो किसी देश-काल के सन्दर्भ में घटित हुआ है। यह ऐतिहासिक यथार्थ है, इतिहास का सच, जो सदैव एक ही होता है और बदला नहीं जा सकता। दूसरा इतिहास यह है जो इतिहासकारों द्वारा लिखा गया है या लिखा जा रहा है। यह विविध प्रकार का दिखाई देता है और अक्सर संशोधित होता रहता है। घटित और लिखित इतिहासों के बीच इस विसंगति से अक्सर सम्भ्रमात्मक स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जिनसे इतिहास-चेतना के समुचित निर्माण में बाधा पड़ती है। किन्तु यह विसंगति क्यों, ऐतिहासिक यथार्थ एक, पर व्याख्याएँ अनेक क्यों? .....इतिहास निरूपण के सर्वोपरि नियामक तथ्य और प्रमाण हैं, इतिहासकार नहीं। इतिहास की स्वाभाविक संरचना में व्यतिक्रम तब प्रारम्भ होता है जब कोई इतिहासकार या इतिहासकारों का कोई समूह एक न्यायाधीश का रूप धारण किये हुए भी एक अधिवक्ता की तरह आचरण करने लगता है, जिसका उद्देश्य सत्य का निश्चयन नहीं अपितु अपने ग्राहक का पक्षपोषण होता है। वह तथ्यों और प्रमाणों की अनदेखी करने, उन्हें दबाने अथवा तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का अभ्यस्त हो जाता है। फलतः इतिहास का विरूपीकरण होने लगता है। भारतीय इतिहास में जो विकृतियाँ दृष्टिगत होती हैं वे सब इन्हीं ‘अधिवक्ता छाप’ इतिहासकारों की देन है। राजनीतिक स्वार्थों और पूर्वाग्रहों से अभिप्रेरित एवं प्रतिबद्ध इन इतिहासकारों में प्रमुख हैं एक तो वे उपनिवेशवादी-मिशनरी लेखक जिन्होंने भारत में अपने राजनीतिक-धार्मिक वर्चस्व की स्थापना के लिए इस देश के इतिहास को विकृत किया, और दूसरे वे मार्क्सवादी विचारक जिनकी मताग्रही संकीर्ण सोच यह स्वीकार नहीं कर पाती कि मूलतः आध्यात्मिक नींव पर आधारित भारतीय संस्कृति के इतिहास की सम्यक व्याख्या भौतिकवादी दृष्टि से सम्भव नहीं है। अधिवक्तृता में ये इतिहासकार पारंगत रहे हैं और उन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त रहा है। समाज में वे प्रायः आधिकारिक इतिहासकारों के रूप में प्रायोजित रहे हैं।" वस्तुतः ब्रिटिश भारत में उपनिवेशवादी-मिशनरी इतिहासकारों को राज्याश्रय प्राप्त था तो स्वतन्त्र भारत (नेहरू-इन्दिरा-सोनिया के भारत) में मार्क्सवादी इतिहासकार राजकीय संरक्षण में पुष्पित-पल्लवित हैं और भारत के सभी प्रमुख शिक्षण-प्रशिक्षण एवं उनसे सम्बन्धित संस्थानों पर वर्चस्व बनाए हुए हैं। उनके प्रभाव शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाये जाने वाले इतिहास के पाठ्यक्रमों के निर्माण एवं इतिहास रचना में आज भी देखा जा सकता है। सनातन युग से भारतीय समाज में आस्था के केन्द्र वेद, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियों की इनके द्वारा मनमानी व्याख्या- उदाहरणार्थ वैदिक आर्य गोमांस खाते थे, हनुमान एक बन्दर था जो लंका के घरों में ताक-झांक करता था, इत्यादि- कर प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार होने का स्वांग रचा जाता है। इतिहास को वैज्ञानिक, तथ्यपूर्ण, निष्पक्ष होना चाहिए, का डंका पीटने वाले इन इतिहासकारों द्वारा ही ‘भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद्’ की सरकारी संस्था पर कब्जा कर ‘भारतीय इतिहास’ लेखन को ‘हिन्दू विरोध’ या यह कहा जाय कि ‘भारत विरोध’ पर केन्द्रित कर दिया गया। इसी अभियान के साथ ‘साम्यवाद’ के पक्षधर इतिहासकारों एवं राजनीतिक शक्ति का एक ऐसा संघ गठित एवं विकसित हुआ, जिसमें सम्मिलित होना ही आधिकारिक इतिहासकार होने का प्रमाण-पत्र पाना था। परिणामतः ‘भारत के इतिहास लेखन’ में भारतीयता विरोधी तथ्यों को ढूँढ़ने अथवा तथ्यों की भारतीयता विरोधी व्याख्या करने की होड़ मची रही। इन तथ्यों की पुष्टि अरुण शौरी द्वारा लिखी गयी पुस्तक- एमिनेन्ट हिस्टोरियन्स, देयर टेक्नॉलॉजी, देयर लाइन, देयर फ्राड - के प्रामाणिक विवरण से स्पष्ट हो जाता है। अरुण शौरी ने भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् की स्थापना से लेकर सन् 1998 तक इस संस्था को गिरवी रखकर साम्यवादी विचारधारा पर केन्द्रित इतिहास रचना करने वाले तथाकथित आधिकारिक इतिहासकारों का सरकारी दस्तावेजों के प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। ये तथ्य ही ‘भारतीय इतिहास’ की रचना करने एवं उन्हें पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किये जाने की योजना-रचना बनाने वाले कर्णधार इतिहासकारों का वास्तविक चेहरा सामने ला देते हैं और तब यह बात और साफ हो जाती है कि भारत का इतिहास जान-बूझकरषड्यन्त्रपूर्वक तोड़-मरोड़कर भारत-विरोधी सांचे में लिखा गया। डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘पश्चिमी एशिया एवं ऋग्वेद’ की भूमिका में इसी बात को स्वीकारते हुए श्याम कश्यप लिखते हैं- "भारत पर आर्यों के आक्रमण के गलत सिद्धान्त..... की नींव पर ही सारी कपोल-कल्पनाओं के महल खड़े किये गये हैं। इस खोखली नींव के एक बार भहराकर गिर जाने के बाद प्राचीन भारत के इतिहास का सारा रूपवादी ढाँचा ध्वस्त हो जाता है और तथाकथित सर्वमान्य धारणाएँ कोरी दन्तकथाएँ साबित हो जाती हैं।.....ये धारणाएँ और मान्यताएँ कभी सर्वमान्य रहीं भी नहीं। यह बात दीगर है कि भारत के स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के तमाम पाठ्यक्रमों से लेकर इतिहासवेत्ताओं तक आमतौर से इन एकपक्षीय धारणाओं को ही सर्वमान्य बताकर इतिहास का एक गलत और हास्यास्पद ढाँचा सामने रखा जाता रहा है।.....इन धारणाओं के पीछे उपनिवेशवादी स्वार्थों की निहित भूमिका रही है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऋग्वेद की मनमानी व्याख्या ...के प्रयास किये जाते रहे हैं। यह सभी कुछ एक सोचे-समझे और सुनियोजित साम्राज्यवादीषड्यन्त्र का हिस्सा रहा है।" अर्थात् ब्रिटिश शासन में जो भूमिका साम्राज्यवादी इतिहासकारों की थी स्वतन्त्र भारत में वही भूमिका साम्यवादी इतिहासकार निभा रहे हैं। परिणामतः आजादी के साढ़े छः दशक बाद भी भारत का पूर्वाग्रह रहित भारत केन्द्रित वास्तविक इतिहास भारत की सरकारी अनुदान से संचालित संस्थाओं द्वारा नहीं लिखा जा सका। अपितु इसके विपरीत भारतीय जनता के खून-पसीने की कमाई पर मौज करने वाले सरकारी संरक्षण प्राप्त इतिहासकारों के एक गिरोह द्वारा ‘वैज्ञानिक इतिहास लेखन’ के नाम पर भारत के अतीत का माखौल उड़ाने वाला इतिहास लिखा जाता रहा। इन तथाकथित प्रतिष्ठित तथा प्रगतिशील इतिहासकारों द्वारा ‘हिन्दू विरोधी-मुस्लिम समर्थक’ इतिहास का ढाँचा तैयार किया गया। इनके द्वारा लिखित ‘भारत के इतिहास’ से यह बात सिद्ध हो गयी कि ‘इतिहास लेखन’ में इतिहासकारों की भूमिका तथ्य और प्रमाण से महत्त्वपूर्ण है। इतिहासकार का ‘मानस’ अथवा उसकीषड्यन्त्रकारी दृष्टि तथ्यों की व्याख्या अपने अनुरूप कर इतिहास का स्वरूप बदल सकती है। कई बार ऐसा जान-बूझकर किया जाता है तो कभी-कभी ऐसा अनजाने में इतिहासकार के मानस के अनुसार होता है। इस बात को और स्पष्ट रूप से समझाने के लिए एक प्रसंग का उल्लेख प्रासंगिक होगा। ज्योतिष शास्त्र पर चर्चा के दौरान एक बार श्री अजय ओझा ने कहा कि ज्योतिष की गणनाओं का निष्कर्ष ज्योतिषी के सोच, उसकी समझ अथवा उसकी दृष्टि पर निर्भर करता है। जैसे कि एक बार ब्रह्मा ने अपने दो शिष्यों बृहस्पति और शुक्र को दर्शन एवं ज्योतिष का ज्ञान कराने के बाद व्यावहारिक प्रशिक्षण हेतु एक गाँव में भेजा। दोनों गाँव में घूमते-घूमते एक बुढ़िया के दरवाजे पर रुके। बुढ़िया का बेटा ज्ञानार्थ काशी गया हुआ था। बुढ़िया यह जानना चाहती थी कि उसका बेटा घर कब लौटेगा। दोनों ऋषियों को देखकर बुढ़िया ने अपना प्रश्न किया और ऋषिद्वय को पानी पिलाने हेतु कुएँ से जल निकालने लगी। जल निकालते समय रस्सी टूट गयी और जल-पात्र कुएँ के पानी में जा गिरा। इस घटना के साक्षी बृहस्पति ने कहा कि- तुम्हारा बेटा अब इस लोक में नहीं है जबकि शुक्र ने कहा कि तुम्हारा पुत्र ढाई घड़ी में तुम्हारे पास आ रहा है। दोनों का निष्कर्ष रस्सी के टूट जाने पर ही आधारित था। बृहस्पति का कहना था कि रस्सी टूट गयी अतः तुमसे तुम्हारे बेटे का सम्बन्ध टूट चुका है जबकि शुक्र कह रहे थे कि जल से उसका हिस्सा दूर खींचा जा रहा था किन्तु अलग हुआ जल रस्सी टूट जाने से अपने उद्गम में तुरन्त जा मिला। तथ्य एक ही है निष्कर्ष दो हैं। यद्यपि कि इस दो निष्कर्ष मेंषड्यन्त्र नहीं है। ऐसे ही इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो नासमझी में अथवा दशकों से बनाये गये विकृत इतिहास के साँचे से भ्रमित अनजाने मेंषड्यन्त्रकारी इतिहासकारों के गिरोह का समर्थक हो जा रहा है। भारतीय इतिहास लेखन के समक्ष यह कठिन चुनौती है। भारतीय इतिहास को विकृत करने वाले गिरोहबन्द इतिहासकार भारत का पूर्वाग्रह मुक्त वास्तविक इतिहास लिखेंगे यह कल्पना ही बेमानी है किन्तु बड़ी संख्या में इतिहासकारों का वह समूह जो इनके भ्रमजाल का शिकार है, उन्हें इनकेषड्यन्त्र से मुक्त कर भारत का तथ्यपूर्ण, वास्तविक एवं भारत केन्द्रित इतिहास लेखन की ओर प्रेरित किया जा सकता है। यह कार्य संगठित होकर योजनापूर्वक दीर्घकालिक नियोजन के साथ ही सम्भव है। भारतीय इतिहास संकलन योजना ने इस दिशा में भगीरथ प्रयास प्रारम्भ किये हैं। अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के प्रयास का परिणाम भी सामने आ रहा है। भारतीय इतिहास का प्रतिमान बदलने लगा है तथापि इस दिशा में अभी बहुत दूर तक चलना शेष है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है भारतीय इतिहास लेखन की इन्हीं उपर्युक्त विसंगतियों का शिकार भारत के विपुल ऐतिहासिक स्रोत पुराण हुए। पुराणों में अपनी विशिष्ट शैली में विविध कथानकों के माध्यम से प्राचीन भारत का इतिहास सुरक्षित है। साम्राज्यवादी एवं साम्यवादी इतिहासकारों ने अपनी दृष्टि एवं अपने उद्देश्य के अनुरूप निर्धारित साँचे में ठीक बैठने वाले तथ्य तो पुराणों से ग्रहण किये, किन्तु पुराणों में प्राप्त समस्त ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग कर भारतीय राज्य एवं समाज का समग्र चित्र प्रस्तुत करने का कभी प्रयास नहीं किया। अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना ने गत दो वर्षों से पुराणों में प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पौराणिक भारत के इतिहास-लेखन का कार्य प्रारम्भ किया है। इस दृष्टि से पुराणों की ऐतिहासिक दृष्टि से समीक्षा, उनका अध्ययन, उनमें प्राप्त तथ्यों का संकलन पूरे देश में चल रहा है। किन्तु इस बात की सावधानी रखनी होगी कि साम्राज्यवादी एवं साम्यवादी इतिहासकारों की तरह ही कहीं भारत केन्द्रित इतिहास लेखन ही दूसरे अतिवाद के छोर पर न जा टिके। अर्थात ‘हमारा जो भी है वह अच्छा है’ की दृष्टि से भी लिखा गया भारत का पूर्वाग्रह युक्त इतिहास अस्वीकृत होगा। इतिहास तथ्य आधारित ही होना चाहिए। किन्तु राष्ट्र समाज की प्रेरणा के लिए उपयोगी होना चाहिए। तथ्यों का प्रस्तुतीकरण पूर्वाग्रह युक्त हो किन्तु उसकी व्याख्या राष्ट्र-समाज हित में एवं सकारात्मक ही होनी चाहिए। इसी योजना के अन्तर्गत भारतीय इतिहास संकलन समिति गोरक्ष प्रान्त द्वारा ऐतिहासिक स्रोत के रूप में पुराणों की समीक्षा एवं उनमें भरे-पड़े ऐतिहासिक तथ्यों का भारतीय इतिहास लेखन में उपयोग की दृष्टि से अब तक तीन कार्यशालाएँ की जा चुकी हैं। पहली कार्यशाला 14 मार्च, 2010 ई. को दिग्विजयनाथ स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गोरखपुर में सम्पन्न हुई। कार्यशाला का वृत्त प्रकाशित हुआ। कार्यशाला एवं उसके प्रकाशन को अकादमिक क्षेत्र मिले समर्थन से प्रोत्साहित भारतीय इतिहास संकलन समिति गोरक्षप्रान्त द्वारा ‘पुराणान्तर्गत इतिहास’ विषय पर दो और कार्यशालाएँ हुईं जिनमें युवा इतिहासकारों एवं शोध विद्यार्थियों ने हिस्सा लिया। पहली कार्यशाला 7 अगस्त, 2011 ई. को राजा रतनसेन डिग्री कालेज बाँसी, सिद्धार्थनगर में तथा दूसरी कार्यशाला 11 मार्च, 2012 ई. को महाराणा प्रताप पी. जी. कॉलेज जंगल धूसड़, गोरखपुर में सम्पन्न हुई। दोनों कार्यशालाओं में पुराणों पर प्रस्तुत शोध-पत्रों को इस ग्रन्थ में प्रकाशित किया जा रहा है। कुछ अन्य प्रमुख संकलित आलेख भी इस ग्रन्थ में सम्मिलित किये गये हैं। प्रकाशित किये जा रहे अनेक शोध-पत्रों में यद्यपि कि इतिहास की दृष्टि से विवेचना की कमी है, तथ्यों के संकलन एवं उनकी उद्देश्यपरक व्याख्या में क्रमबद्धता का अभाव है, युवा इतिहासकारों की न्यायाधीश जैसी सम्यक दृष्टि का पैनापन कम है, अनेक शोध-पत्र मात्र पुराणों में किये गये उल्लेखों के संकलन मात्र हैं तथापि यह प्रकाशन इस मायने में महत्त्वपूर्ण होगा कि पुराणों में उल्लिखित विविध पक्षों पर पाठकों, शोधार्थियों एवं अन्य अध्येताओं का ध्यान आकर्षित करेगा और वे पुराणों में प्राप्त विपुल ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग करते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक नवीन अध्यायों का उद्घाटन करने में जुटेंगे। भारतीय इतिहास लेखन में पुराणों में प्राप्त ऐतिहासिक स्रोत के उपयोग से भारतीय इतिहास लेखन के एक नये युग का सूत्रपात होगा। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में गत सत्र के ‘पुराणान्तर्गत इतिहास’ विषय पर राजा रतनसेन डिग्री कॉलेज बाँसी में आयोजित कार्यशाला का प्रमुख योगदान है। वह कार्यशाला सम्पन्न कराने में महाविद्यालय के प्रबन्धक एवं विधायक माननीय राजकुमार जयप्रताप सिंह जी एवं प्राचार्य डॉ. हरेश प्रताप सिंह के अमूल्य योगदान के हम हृदय से आभारी हैं। पुराणान्तर्गत इतिहास पर आयोजित कार्यशाला में अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. शिवाजी सिंह एवं राष्ट्रीय संगठन मन्त्री श्री बालमुकुन्द जी, प्रो.अशोक श्रीवास्तव एवं श्रद्धेय गुरुवर डॉ. कुँवर बहादुर कौशिक के हम कृतज्ञ हैं जिनकी उपस्थिति एवं मार्गदर्शन के बिना कार्यशाला की सफलता सम्भव नहीं थी। मैं सम्पादक मण्डल के समस्त सहयोगियों एवं कार्यशाला में सम्मिलित समस्त विषय विशेषज्ञों तथा शोधार्थियों का भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। मुझे विश्वास है कि यह प्रकाशन पुराणों पर कार्य करने वाले शोधार्थियों को प्रेरणा देने की दिशा में एक छोटे से दीप का कार्य अवश्य करेगा। गुरुपूर्णिमा, 2012 (प्रदीप कुमार राव) अनुक्रम 1. पुराण श्रीमद्ब्रह्मानन्द सरस्वती 17 2. पुराणों में धर्म और सदाचार स्वामी करपात्रीजी महाराज 19 3. सिद्धों की पौराणिक प्रासंगिकता महन्त अवेद्यनाथजी महाराज 22 4. हमारे पुराण - एक समीक्षा अ. द. पुसालकर 25 5. विष्णुपुराण में राज्य एवं समाज बाल मुकुन्द पाण्डेय 39 6. विष्णुपुराण और भारत डॉ. कुँवर बहादुर कौशिक 45 7. श्रीविष्णुपुराण में वर्णित ......... डॉ. रत्नेश कुमार त्रिपाठी 55 8. पौराणिक राजवंश डॉ. प्रदीप कुमार राव 60 9. विष्णुपुराण में वर्णित मनु एवं..... लोकेश कुमार प्रजापति 73 10. पुराणों में विलक्षण विद्याएँ डॉ. रामप्यारे मिश्र 78 11. पुराणों में इतिहास संकल्पना डॉ. मिथिलेश कुमार तिवारी 85 12. पुराणों में विज्ञान रेनू यादव 89 13. पुराभवम् पुराणम् डॉ. किरन देवी 95 14. पौराणिक इतिवृत्त एवं पुरातत्त्व डॉ. अजय कुमार मिश्र 100 15. पुराणों का वैदिक धरातल स्वेजा त्रिपाठी 104 16. पुराण परिचय डॉ. प्रज्ञा मिश्रा 109 17. शैव धर्म से सम्बद्ध देवियाँ पुराणों..... डॉ. रत्न मोहन पाण्डेय 112 18. पुराणों में राजा की भूमिका डॉ. अखिलेश कुमार मिश्र 116 19. पुराणों की ऐतिहासिक विवेचना डॉ.संगीता शुक्ल 122 20. मध्यकालीन इतिहास का प्रमुख स्रोत डॉ. चन्द्रमौलि त्रिपाठी 129 21. पुराणों में नदियों का संक्षिप्त इतिहास डॉ. बृज भूषण यादव 133 22. पुराणों में नगर योजना डॉ. राम गोपाल शुक्ल 143 23. पुराण-वेद-इतिहास राजेश कुमार शर्मा 146 24. ऐतिहासिक स्रोत के रूप में ..... नीतू द्विवेदी 149 25. भारतीय इतिहास लेखन और..... राजेन्द्र देव मिश्र 154 26. पुराण विद्या कृतिका शाही 158 27. विष्णुपुराण में भारतीय समाज डॉ. भारती सिंह 167 28. भारतीय इतिहास का प्रस्थान बिन्दु.... गुंजन अग्रवाल 173 पुराण संपादित करें श्रीमद्ब्रह्मानन्द सरस्वती* पुराण भारत का सच्चा इतिहास है। पुराणों से ही भारतीय जीवन का आदर्श, भारत की सभ्यता, संस्कृति तथा भारत के विद्या-वैभव के उत्कर्ष का वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो सकता है। प्राचीन भारतीयता की झाँकी और प्राचीन समय में भारत के सर्वविध उत्कर्ष की झलक यदि कहीं प्राप्त होती है तो पुराणों में। पुराण इस अकाट्य सत्य के द्योतक हैं कि भारत आदि-जगद्गुरु था और भारतीय ही प्राचीन काल में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक उन्नति की पराकाष्ठा को पहुँचे थे। पुराण न केवल इतिहास हैं, अपितु उनमें विश्व-कल्याणकारी त्रिविध उन्नति का मार्ग भी प्रदर्शित किया गया है। वेदों की महिमा अपार है, पर उनकी शब्दावलि दुर्बोध और प्रतिपादन-प्रक्रिया पर्याप्त जटिल है। उन्हें निरुक्त, ब्राह्मणग्रन्थ, श्रौतसूत्र तथा व्याकरण आदि अंगों, ऋषि, छन्द, देवता आदि अनुक्रमणी और भाष्यों के आधार पर बड़ी कठिनता से ठीक-ठीक समझा जा सकता है। पर पुराण अकेले ही उनके समस्त अर्थों को सरल शब्दों में और कथानक शैली के सहारे सामान्य बुद्धि वाले पाठकों को भी हृदयंगम करा देते हैं। इसीलिए सभी स्थानों पर वेदों को इतिहास, पुराण के द्वारा समझने की सम्मति दी गयी है। जो विद्वान् इतिहास-पुराण से अनभिज्ञ हैं, उन्हें अल्पश्रुत, अल्पज्ञ कहकर वेदार्थ-प्रतिपादन का अधिकार नहीं दिया गया है। वेद उनसे डरते हैं कि ये मेरा निश्चय रूप से अनर्थ कर जनसमुदाय में उद्भ्रान्ति उत्पन्न करेंगे। इतिहास शब्द से महाभारत तथा वाल्मीकि आदि रामायण एवं योगवासिष्ठादि ग्रन्थ भी अभिव्यक्त होते हैं। पुराण शब्द से पप्र, स्कन्द आदि अठारह महापुराण, विष्णुधर्मोत्तरादि उपपुराण तथा नीलमत, एकाम्रादि स्थलपुराण भी गृहीत होते हैं। इन पुराणों में सभी विद्याओं का संग्रह हुआ है। ज्ञान के भण्डार और धर्म के मूल स्रोत वेद हैं अवश्य, पर उनमें ग्रहों का संचार, समय की शुद्धि, खर्वा, त्रिस्पृशा आदि विशिष्ट लक्षणों सहित प्रतिपदा से पूर्णिमा तक की कालबोधिनी तिथियों का सुस्पष्ट निर्देश नहीं हुआ है, इसीलिए एकादशी, शिवरात्रि आदि व्रतों का माहात्म्य, ग्रहण आदि विशिष्ट पर्वों के कृत्य *पुराणकथांक से और दर्शन-शास्त्रों के सूक्ष्मज्ञान तथा पाञ्चरात्र आदि विविध वैष्णव, शैव, शाक्तादि आगमों के प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट रूप से उपदिष्ट नहीं हैं, किन्तु पुराणों में समस्त वेदार्थ सहित ये सभी उपर्युक्त विषय, सभी वेदांग एवं धर्मशास्त्रों के धर्म-कृत्य, देवोपासना-विधि, सदाचार के विस्तृत उपदेश और कथा उदाहरण सहित वेदान्त, सांख्य आदि प्रक्रियाओं को भी सबको हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया गया है। इसलिए भारतीय संस्कृति से सम्बद्ध सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान और कल्याणकारी क्रियाओं की जानकारी के लिए ये ही चिरकाल से आश्रयणीय रहे हैं। इन पुराणों से ही पूर्व के विद्वानों ने अनेक सुन्दर निबन्ध एवं प्रबन्ध ग्रन्थों की रचना की है, जो दैनन्दिन सभी कृत्यों से लेकर यावज्जीवन होने वाले विशेष प्रयोजन-युक्त कर्म, संस्कार तथा यज्ञादि अनुष्ठान, पर्व-महोत्सव आदि के भी निर्देशक हैं। कृष्णद्वैपायन भगवान् वेदव्यास ने बड़े परिश्रम से वेदों को शाखा-प्रशाखा, ब्राह्मण, कल्पसूत्र, निरुक्त आदि की प्रक्रियाओं में विभाजन करके भी जब पूर्णलोकोपकार में सफलता नहीं देखी, तब उन्होंने विशेष ध्यानस्थ होकर भागवतादि पुराणों, महाभारतादि इतिहासों की रचना कर वेदों के गूढ़तम सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने का संकल्प किया। उन्हीं की भास्वती कृपा से समुद्भूत समग्र पुराण-राशि हमारे सामने उपस्थित होकर विश्वकल्याण में निरन्तर प्रवृत्त है। यह पुराण-वाङ्मय सूक्ष्म विचार करने पर वर्तमान समस्त विश्व साहित्य की अपेक्षा सभी प्रकार शुद्ध, सभ्यभाषायुक्त, सुबोध कथाओं से समन्वित और मधुरतम पदविन्यासों से समलंकृत है। इस प्रकार यह पुराण साहित्य सभी के हृदय को आकृष्ट कर कल्याण करने के लिए नित्य-निरन्तर तत्पर हैं। विश्व-कल्याण के लिए श्रीभगवान् भारतीयों को कल्याण-पथ-प्रदर्शक पुराणों के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति प्रदान करें, यही उनसे प्रार्थना है। पुराणों में धर्म और सदाचार संपादित करें ;स्वामी करपात्री जी महाराज* व्यक्ति, समाज, राष्ट्र-किं बहुना अखिल विश्व के धारण, पोषण, संघटन, सामन्जस्य एवं ऐकमत्य का सम्पादन करने वाला एकमात्र पदार्थ है-धर्म। धर्म का सम्यक् ज्ञान अधिकारी व्यक्ति को अपौरुषेय वेद-वाक्यों एवं तदनुसारी पुराणादि आर्षधर्मग्रन्थों द्वारा ही सम्पन्न होता है। सभी परिस्थितियों में सभी प्राणी धर्म का शुद्ध ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। राजर्षि मनु का कहना है कि सज्जन विद्वानों द्वारा ही धर्म का सम्यक् ज्ञान एवं आचरण हो सकता है। जिन सज्जनों का अन्तःकरण राग-द्वेष से कलुषित है, वे परिस्थितिवशात् धर्म के यथार्थ स्वरूप का अतिक्रमण कर सकते हैं, अतः ऐसे सज्जन-जिनके अन्तःकरण में कभी राग-द्वेषादि का प्रभाव नहीं पड़ता, वे ही सही माने में धर्म का तत्त्व समझ सकते हैं। किन्तु उनका आचरण (कर्म) भी कभी-कभी किसी कारण से धर्म का उल्लंघन कर सकता है, इसलिए ऐसे सज्जन विद्वान् जिनका हृदय राग-द्वेष से कभी कलुषित नहीं होता, वे हृदय से वेद-पुराणादिसम्मत जिस कर्म को धर्म मानते हैं, वे ही असली धर्म हैं। मनु का वचन इस प्रकार है- विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः। हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत॥ (मनु. 2.1) इसके अनुसार उपर्युक्त सज्जनों के आचरण को ही सदाचार कहा जाता है-‘आचारप्रभवो धर्मः’ (महाभारत अनु. पर्व 149.37)। यहाँ उसी सदाचार धर्म का कुछ सामान्यतः दिग्दर्शन कराया जा रहा है। मीमांसक कुमारिलभट्ट के अनुसार वे धर्म या आचार भी वेदपुराणानुमोदित ही प्रशस्त होते हैं। सर्वत्र सभी देशों की परम्परा भी प्रशस्त नहीं होती, किन्तु जहाँ अनादिकाल से वर्णाश्रम, गुणधर्म आदि सभी का पालन होता आ रहा है, उसी देश की सदाचार की परम्परा प्रशस्त मानी गयी है। इसीलिए भगवान् मनु कहते हैं- तस्मिन् देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः। वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते॥ (18)*पुराणकथांक से सरस्वती और दृषद्वती-इन देवनदियों का अन्तराल (मध्यभाग) विशिष्ट देवताओं से अधिष्ठित रहा, अतः यह देवनिर्मित देश ‘ब्रह्मावर्त’ कहा जाता है। यहाँ तथा आर्यावर्त में उत्पन्न होने वाले जनों का अन्तःकरण पवित्र नदियों के विशिष्ट जल पीने के कारण अपने प्राचीन पितृ-पितामह, प्रपितामहादि द्वारा अनुष्ठित आचारों की ओर ही उन्मुख होता है, अतः वर्णाश्रमधर्म तथा संकर जातियों का धर्म यहाँ के सभी निवासियों में यथावत् था। यहाँ उत्पन्न होने पर भी जिन लोगों का अन्तःकरण प्राचीन परम्पराप्राप्त धर्म की ओर उन्मुख नहीं हुआ और वे लोग मनमानी नयी-नयी व्यवस्था करने लगें तो उनका भी आचार धर्म में प्रमाण नहीं हो सकता, अतः परम्परा भी वही मान्य होगी, जो अनादि-अपौरुषेय वेद एवं तदनुसारी आर्ष-धर्मग्रन्थों से अनुमोदित, अनुप्राणित हो। मनुष्यों को सदा ही सदाचार का पालन और दुराचार का परित्याग करना चाहिए। आचारहीन दुराचारी प्राणी का न इस लोक में कल्याण होता है, न परलोक में। असदाचारी प्राणियों द्वारा अनुष्ठित यज्ञ, दान, तप-सभी व्यर्थ जाते हैं, कल्याणकारी नहीं होते। सदाचार के पालन से अपने शरीरादि में भी वर्तमान अलक्षण दूर होते हैं, अपना फल नहीं देते। सदाचाररूप वृक्ष चारों पुरुषार्थों का देने वाला है। धर्म ही उसकी जड़, अर्थ उसकी शाखा, काम (भोग) उसका पुष्प और मोक्ष उसका फल है- धर्मोऽस्य मूलं धनमस्य शाखा पुष्पं च कामः फलमस्य मोक्षः। (वामनपुराण 14.19) यहाँ इस सदाचार के स्वरूप का कुछ वर्णन किया जाता है- सर्वप्रथम ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भगवान् शंकर द्वारा उपदिष्ट प्रभात-मंगल का स्मरण करना चाहिए। इसके द्वारा देवग्रहादि-स्मरण से दिन मंगलमय बीतता है और दुःस्वप्न का फल शान्त हो जाता है। वह सुप्रभातस्तोत्र इस प्रकार है- ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः सह भानुजेन कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिंगलौ च। सप्त स्वराः सप्त रसातलाश्च कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ सप्तार्णवाः सप्तकुलाचलाश्च सप्तवर्षयो द्वीपवराश्च सप्त। भूरादिकृत्वा भुवनानि सप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ इस प्रकार इस परम पवित्र सुप्रभात के प्रातःकाल भक्तिपूर्वक उच्चारण करने से, स्मरण करने से दुःस्वप्न अनिष्ट फल नष्ट होकर सुस्वप्न के फल रूप में प्राप्त होता है। सुप्रभात का स्मरण कर पृथ्वी का स्पर्शपूर्वक प्रणाम करके शय्या त्याग करना चाहिए। मन्त्र इस प्रकार है- समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥ फिर शौचादि कर्म करना चाहिए। शौच जाने के बाद मिट्टी और जल से इन्द्रियों की शुद्धि कर दन्तधावन करना चाहिए। तदनन्तर जि“वा आदि की मलिनता दूरकर स्नान करके संध्योपासन करना और सूर्यार्घ्य देना चाहिए। केवल जननशौच और मरणाशौच में ही बाह्यसंध्या का परित्याग निर्दिष्ट है। उसमें भी मानसिक गायत्री-जप और सूर्यार्घ्य विहित है। सदाचारी व्यक्ति को धर्म का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए। जो धर्म का परित्याग कर देता है, उसके ऊपर भगवान् भास्कर (सूर्य) कुपित हो जाते हैं। उनके कोप से प्राणी के देह में रोग बढ़ता है, कुल का विनाश प्रारम्भ हो जाता है और उस पुरुष का शरीर ढीला पड़ने लगता है- स्वानि वर्णाश्रमोक्तानि धर्माणीह न हापयेत्। यो हापयति तस्यासौ परिकुप्यति भास्करः॥ कुपितः कुलनाशाय देहरोगविवृद्धये। भानुर्वै यतते तस्य नरस्य क्षणदाचर॥ (वामनपुराण 14. 121-122) महाभारत (आश्वमेधिकपर्व) के अनुसार ‘अन्त में धर्म की ही जय होती है, अधर्म की नहीं, सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं। क्षमा की जय होती है, क्रोध की नहीं’, अतः सभी को सदा क्षमाशील रहना चाहिए- धर्मो जयति नाधर्मः सत्यं जयति नानृतम्। क्षमा जयति न क्रोधः क्षमावान् ब्राह्मणो भवेत्॥ (20) (21) सिद्धों की पौराणिक प्रासंगिकता संपादित करें महन्त अवेद्यनाथजी महाराज* तपःपुंज परम कारुणिक महर्षि व्यासरचित अठारह पुराण तथा उपपुराणादि समग्र सार्वभौम आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा सामाजिक आदि जीवन-दर्शन के जीवन्त भाष्य अथवा विश्वकोष हैं। पुराणों में भारतीय सांस्कृतिक सम्पत्ति सुरक्षित है। योगदर्शन ही नहीं, विशेष परिप्रेक्ष्य में महायोगी शिवगोरक्ष-गोरक्षनाथ जी द्वारा संरक्षित शिवोपदिष्ट नाथयोगामृत और अनेक नाथसिद्धयोगियों के साधनामय जीवन के यत्र-तत्र सहज यथावश्यक सन्दर्भ से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी रहनी-करनी में कितने व्यापक रूप में पौराणिक प्रासंगिकताएँ भरी पड़ी हैं। स्कन्दपुराण के काशीखण्ड, नारदपुराण, मार्कण्डेयपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, वायुपुराण, पप्रपुराण, श्रीमद्भागवतपुराण, ब्रह्माण्डपुराण आदि में सिद्धयोगियों और उनकी साधना-पद्धति तथा योग की सामान्य उपादेयताओं का निरूपण इस तथ्य का संकेत है कि उनमें योग और सिद्धों के सम्बन्ध में कितना उदार दृष्टिकोण परिलक्षित है। गोरक्षसिद्धान्तसंग्रह में ब्रह्माण्डपुराण के ललिताखण्ड में ललितापुर वर्णन में योगमहाज्ञान-चिन्तन में तत्पर महायोगी गोरक्षनाथ और अनेक सिद्धसमूह, दिव्य ऋषिगण तथा प्राणायामपरायण योगियों के प्रसंग मिलते हैं। ललितापुर के उत्तरकोण में अत्यन्त प्रकाशमय वायुलोक है। उस लोक में वायुशरीरधारी, महान् दानी, सिद्धसमूह, दिव्य ऋषिगण, प्राणायाम के अभ्यासी दूसरे योगी तथा योगपरायण, योगमहाज्ञानचिन्तन में तत्पर श्रीगोरक्षनाथ जी आदि अनेकानेक योगियों के समुदाय निवास करते हैं। श्रीमद्भागवतपुराण में, वातरशना मुनियों के सन्दर्भ में, नाथसिद्धों के सम्बन्ध में यथेष्ट प्रकाश पड़ता है। वातरशना की यह परम्परा ऋग्वेद (10.136) में परिलक्षित है जो प्राणायामादि यौगिक क्रियाओं में प्रवृत्त कायादण्डन तथा निवृत्तिप्रधान जीवन-यापन में विश्वासी और आस्थावान् चित्रित किये गये हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है- कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः। आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः॥ (5.4.11) श्रीमद्भागवत में वर्णित नवयोगेश्वरों की, नवनाथों की मान्यता में शिवगोरक्ष महायोगी की गणना नहीं की गयी है। उन्हें तो साक्षात् शिव का अवतार शिवस्वरूप कहा गया है। आदिनाथ भगवान् महेश्वर ने क्षीरसागर में मणिप्रदीप्त सप्त शृंग पर्वत पर भगवती उमा के प्रति महायोगज्ञान का वर्णन आरम्भ किया। भगवती के निद्राभिभूत होने पर मत्स्य के उदर से निकलकर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने यह योगोपदेश सुना। उन्होंने महेश्वर को देवीसहित नमस्कार कर समस्त वृत्तान्त का वर्णन किया। तं कल्पयामास सुतं शुभाङ्गे सोत्सङ्ग आस्थाप्य चुचुम्ब वक्त्रम्। सुतो ममायं किल मत्स्यनाथो विज्ञाततत्त्वोऽखिलसिद्धनाथः ॥ (नारद पुराण उत्तर. 69.23) संतयोगी ज्ञानेश्वर ने नारदपुराण के इसी प्रासंगिक उद्धरण के अनुरूप श्रीमद्भगवद्गीता की टीका ज्ञानेश्वरी के 18वें अध्याय में वर्णन किया है कि क्षीरसमुद्र के तट पर श्री शंकर ने न जाने कब एक बार शक्ति-पार्वती के कान में जो उपदेश दिया था, वह क्षीरसमुद्र की लहरों में किसी मत्स्य के पेट में गुप्त मत्स्येन्द्रनाथ के हाथ लगा-अचलसमाधि का उपभोग लेने की इच्छा से मत्स्येन्द्रनाथ ने गोरखनाथ को उपदेश दिया। क्षीरसिंधु परिसरीं। शक्तिच्या कर्णंकुहरीं। नैणाके श्रीत्रिपुरारी। सांगितलेजे। ते क्षीरकल्लोला आंतु। मकरोदरीं गुप्तु। होता तया चा हातु। पैहो जाले। ....................................................मग समाधि अव्यत्ययां। भोगावीं वासना यया। ते मुद्रा श्रीगोरक्षराया। दिधलीं मीनीं॥ (ज्ञानेश्वरी, अध्याय 18) अवधूत दत्तात्रेय की तपस्या, योग-साधना और जीवन-वृत्तान्त का पर्याप्त वर्णन मार्कण्डेयपुराण के अनेक अध्यायों में प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवत के (23)*पुराणकथांक से एकादश स्कन्ध में दत्तात्रेय का वर्णन उनकी योग-साधना का परिचायक है। वे श्रीमद्भागवत मेंं दिष्टभुक् रूप में वर्णित हैं। उनका कथन है कि दिन-रात में जो कुछ मिल जाता है, उसे मैं ग्रहण करता हूँ तथा दिष्ट-जैसा भोग करता हूँ, उससे सन्तुष्ट रहता हूँ। वसेऽन्यदपि सम्प्राप्तं दिष्टभुक् तुष्टधीरहम्॥ (7.13.39) मार्कण्डेयपुराण के 17 से 19वें अध्याय में दत्तात्रेय के सम्बन्ध में कहा गया है कि वे सती अनसूया और महर्षि अत्रि के पुत्र के रूप में प्रकट हुए थे। उन्होंने कावेरी नदी के तट पर तथा सह्याद्रि क्षेत्र में तपस्या की थी। मार्कण्डेयपुराण के 39वें से 41वें अध्याय में वर्णन है कि उन्होंने मदालसा के पुत्र अलर्क को योगोपदेशामृत प्रदान किया था। उनका कथन है- समाहितो ब्रह्मपरोऽप्रमादी शुचिस्तथैकान्तरतिर्यतेन्द्रियः। समाप्रुयाद् योगमिमं महात्मा विमुक्तिमाप्नोति ततः स्वयोगतः॥ मार्कण्डेय और श्रीमद्भागवतपुराण की प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में सिद्ध अवधूत-रूप में वर्णित नाथसिद्ध दत्तात्रेय ने शिवयोगी गोरखनाथ को प्रणाम किया है। निःसन्देह पौराणिक आख्यानों और प्रासंगिकताओं में यथेष्ट रूप से उदारता और सर्वमंगलमयता का स्वर अक्षर-अक्षर में अनुप्राणित है। हमारे पुराण - एक समीक्षा संपादित करें अ. द. पुसालकर* हिन्दुओं के धार्मिक तथा तदतिरिक्त साहित्य में पुराणों का विशेष स्थान है। वेदों के बाद इन्हीं की मान्यता है। महाभारत के साथ इन्हें पंचम वेद 1 कहा गया है। इनका बाह्यरूप और अन्तःस्वरूप प्रायः रामायण, महाभारत और स्मृतियों के समान ही है। इन पुराणों को समष्टिरूप से प्राचीन एवं समकालीन हिन्दुत्व का- उसकी धार्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, , वैयक्तिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति का लोकसम्मत विश्वकोष ही समझना चाहिए। ‘पुराण’ पद का अर्थ ही है ‘वह’ जो प्राचीन काल से जीवित हो। यस्मात्पुरा ह्यनितीदं पुराणं तेन हि स्मृतम्। निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ (वायु पुराण 1.203) ‘प्राचीन काल से प्राणित होने के कारण पुराण कहा जाता है। जो इसकी व्याख्या जानता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।’ अथवा यह भी कह सकते हैं कि- पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुर्बुधाः। (मत्स्यपुराण 53.63) ‘पुरातन काल की घटनाओं को पण्डितजन पुराण कहते हैं।’ इस प्रकार एक विशिष्ट प्रकार के साहित्य के अर्थ में ‘पुराण’ शब्द का प्रयोग जब तक नहीं होता था, तब तक इस शब्द का अर्थ ‘प्राचीन कथा’ अथवा ‘प्राचीन विवरण’ था और अज्ञात आदिकाल से, वेदों के प्रकट होने के भी पहले से, इस रूप में पुराण विद्यमान थे। अथर्ववेद 2 में पुराणों का नाम आता है। उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि उस समय ये पुराण ग्रन्थों के रूप में भी रहे हों। पर छान्दोग्य उपनिषद् और सूत्र-ग्रन्थों से यह स्पष्ट होता है कि असली पुराण उपनिषदों और सूत्रों 3 के समय में आये। ‘पुराण’ की साहित्यिक परिभाषा अमरकोश तथा कुछ पुराणों में की गयी है और उसके पाँच लक्षण बतलाये गये हैं- (24)*हिन्दू संस्कृति अंक से सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्॥ सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (लय और पुनः सृष्टि), वंश (देवताओं की वंशावलि), मन्वन्तर (मनु के काल विभाग) और वंशानुचरित (राजाओं के वंशवृत्त)- पुराण के ये पाँच लक्षण हैं। उपस्थित पुराणों में कोई भी पूर्णरूपसे इस परिभाषा के अनुरूप नहीं है। कुछ पुराणों में तो इनसे कई विषय अधिक हैं और कुछ में इनकी प्रायः कोई चर्चा तक नहीं है, अन्य विषय बहुत-से हैं। फिर यह पंचलक्षण उपस्थित पुराणों का बहुत ही छोटा अंश है। इससे यह मालूम होता है कि धर्मानुशासन पुराणों के मूल उद्देश्यों में नहीं था, न इनकी प्रारम्भिक रचना का कोई साम्प्रदायिक हेतु ही था। पीछे की रचनाओं को पुराण की परिभाषा में लाने के लिए स्वयं पुराणों ने ही यह कहा है कि पंचलक्षण केवल उपपुराण के लिए हैं, महापुराण होने के लिए तो उसमें दस लक्षण होने चाहिए। इन दस में पंचलक्षण के अतिरिक्त अन्य लक्षण ये हैं- वृत्ति, रक्षा (ईश्वरावतार), मुक्ति, हेतु (जीव) और अपाश्रय (ब्रह्म)। सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षान्तराणि च। वंशो वंश्यानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः॥ दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः। केचित्पंचविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया॥ (श्रीमद्भा. 11.7.9-10) पुराणवित् पुराण को इन दस लक्षणों से युक्त मानते हैं- सर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था, हेतु और अपाश्रय। कोई पाँच ही लक्षण मानते हैं- महदल्पव्यवस्था से ऐसा होता है (अर्थात् महापुराणों के दस और उपपुराणों के पाँच लक्षण होते हैं)। मत्स्यपुराण ने इसमें ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्र की स्तुति, सृष्टि का लय और स्थिति, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन विषयों को और जोड़ा है। ब्रह्मविष्ण्वर्करुद्राणां माहात्म्यं भुवनस्य च। ससंहारप्रदानां च पुराणे पंचवर्णके॥ धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चैवात्र कीर्त्यते। सर्वेष्वपि पुराणेषु तद्विरुद्धं च यत्फलम्॥ (मत्स्य. 53.66.7) ‘ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्र का माहात्म्य, सृष्टि के लय और स्थिति का माहात्म्य, पाँच विषयों का वर्णन करने वाले पुराण में वर्णित हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का कीर्तन है। यह सब पुराणों में है और इसके विरुद्ध जो कुछ है, उसका भी फल वर्णित है।’ पुराणों में 18 महापुराण और 18 उपपुराण गिने जाते हैं। महापुराणों की नामावलि का क्रम सभी पुराणों में प्रायः एक-सा ही है। इसमें केवल दो-एक परिवर्तनों को छोड़ एकरूपता ही है। नामावलि यह है-ब्रह्म, पप्र, विष्णु, वायु, भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, वराह, लिङ्ग, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़ और ब्रह्माण्ड। निम्नलिखित अनुष्टुप में पुराणों की पूरी नामावलि संक्षेप में आ गयी है- मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्। नालिंपाग्निपुराणानि कूस्कं गारुडमेव च॥ (देवीभागवत 1.2) आदि अक्षर ‘म’ वाले 2, ‘भ’ वाले 2, ‘ब्र’ वाले 3, ‘व’ वाले 4, ‘ना’ वाला 1, ‘लिं’ वाला 1, ‘प’ वाला 1, फिर अग्निपुराण 1, ‘कू’ वाला 1, ‘स्क’ वाला 1 और गरुड़पुराण 1। उपपुराणों की गणना में एकरूपता नहीं है। दुर्भाग्य से इन उपपुराणों की अब तक अपेक्षाकृत उपेक्षा रही है। उपपुराण महापुराणों से पीछे की रचनाएँ हैं, इनका स्वरूप भी अधिक साम्प्रदायिक है और इनमें कई विषयों का मिश्रण है। कई स्थानों में मिली हुई इनकी नामावलियों को मिलाकर देखने से 18 उपपुराण ये निश्चित होते हैं- सनत्कुमार, नरसिंह, नन्द, शिवधर्म, दुर्बासस्, नारदीय, कपिल, वामन, उशनस्, मानव, वरुण, कलि, महेश्वर, साम्ब, सौर, पराशर, मारीच और भार्गव। कौन पुराण ठीक-ठीक पंचलक्षणयुक्त हैं और कौन नहीं हैं, यह देखकर इनके प्राचीन और प्राचीनोत्तर-दो वर्ग किये जा सकते हैं। इस कसौटी के अनुसार वायु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य और विष्णु प्राचीन पुराण मालूम होते हैं। महापुराणों का फिर और एक वर्गीकरण उनमें विशेषरूप से वर्णित विष्णु, शिव और अन्य देवताओं के विचार से किया गया है और वैष्णव दृष्टि से उन्हें सात्त्विक, राजस और तामस कहा गया है। मात्स्यं कौर्मं तथा लैङ्गं शैवं स्कान्दं तथैव च। आग्नेयं चषडेतानि तामसानि निबोध मे। वैष्णवं नारदीयं च तथा भागवतं शुभम्॥ (26) (27) गारुडं च तथा पाप्रं वाराहं शुभदर्शने। सात्त्विकानि पुराणानि विज्ञेयानि शुभानि वै॥ ब्रह्माण्डं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं तथैव च। भविष्यं, वामनं ब्राह्मं राजसानि निबोध मे॥ (पप्रपुराण, उत्तरखण्ड 263.81-84) मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कन्द, अग्नि- ये छः पुराण तामस हैं। विष्णु, नारद, भागवत, गरुड़, पप्र, वराह- ये सात्त्विक पुराण हैं। ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, भविष्य, वामन, ब्रह्म- ये राजस हैं। मत्स्यपुराण में अग्नि का माहात्म्य वर्णन करने वाले पुराणों को राजस और सरस्वती तथा पितरों का माहात्म्य वर्णन करने वाले पुराणों को संकीर्ण कहा है। सात्त्विकेषु पुराणेषु माहात्म्यमधिकं हरेः। राजसेषु च माहात्म्यमधिकं ब्रह्मणो विदुः॥ तद्वदग्नेश्च माहात्म्यं तामसेषु शिवस्य च। संकीर्णेषु सरस्वत्याः पितृणां च निगद्यते॥ (मत्स्य. 53.68-69) सात्त्विक पुराणों में श्रीहरि का माहात्म्य विशेष है, राजस पुराणों में ब्रह्मा का, उसी प्रकार तामस पुराणों में अग्नि और शिव का। संकीर्ण पुराणों में सरस्वती और पितरों का माहात्म्य वर्णित है। एक और तरह का वर्गीकरण स्कन्दपुराण में इस प्रकार है- अष्टादशपुराणेषु दशभिर्गीयते शिवः। चतुर्भिर्भगवान् ब्रह्मा द्वाभ्यां देवी तथा हरिः॥ (स्कन्द. केदारखण्ड 1) ‘अठारह पुराणों में दस में शिव-स्तुति है, चार में ब्रह्मा की और दो में देवी तथा हरि की है।’ पुराणों में वर्णित विषयों का पूर्ण और आलोचनात्मक परीक्षण करने के पश्चात विषय विभाग के अनुसार पुराणों के छः वर्ग किये गये। प्रथम वर्ग में साहित्य का विश्व-कोष है। इसमें गरुड़, अग्नि और नारदपुराण आते हैं। द्वितीय वर्ग में मुख्यतः तीर्थों और व्रतों का वर्णन है। इसमें पप्र, स्कन्द और भविष्य पुराण आते हैं। तृतीय वर्ग ब्रह्म, भागवत और ब्रह्मवैवर्तपुराणों का है। इनके दो-दो संस्करण हो चुके हैं। इनका मूल भाग वही है, जो इनका केन्द्रस्थ सारभाग है। इनके दो बार के संस्करणों में आगे-पीछे बहुत कुछ जोड़ा गया है। चतुर्थ वर्ग में, जो ऐतिहासिक कहलाता है, ब्रह्माण्ड और वायुपुराण आते हैं। साम्प्रदायिक साहित्य का पंचम वर्ग है। इसमें लिंग, वामन और मार्कण्डेयपुराण आते हैं। अन्त मेंषष्ठवर्ग उन वाराह, कूर्म और मत्स्यपुराणों का है, जिनके पाठों का संशोधन होते-होते मूल पाठ रह ही नहीं गया है। तमिल ग्रन्थों में पुराणों के ये पाँच वर्ग किये गये हैं-(1) ब्रह्मा- ब्रह्म और पप्र_ (2) सूर्य- ब्रह्मवैवर्त_ (3) अग्नि- अग्नि_ (4) शिव- शिव, स्कन्द, लिंग, कूर्म, वामन, वराह, भविष्य, मत्स्य, मार्कण्डेय और ब्रह्माण्ड_ और (5) विष्णु- नारद, भागवत, गरुड़ और विष्णु। पुराण भिन्न-भिन्न प्रकार से अपनी उत्पत्ति बतलाते हैं। विष्णुपुराण में यह वर्णन है कि वेदव्यास ने वेदों का विभाग करने के बाद प्राचीन कथाओं, आख्यानों, गीतों और जनश्रुतियों तथा तथ्यों को एकत्रकर एक पुराण-संहिता 4 निर्माण की और अपने शिष्य सूत रोमहर्षण को उसकी शिक्षा दी। इसकी छः प्रकार की व्याख्याएँ रोमहर्षण ने अपने शिष्यों को पढ़ायीं। रोमहर्षण की यह संहिता और तीन संहिताएँ उनके शिष्यों की मिलाकर पुराणों की चार मूल संहिताएँ कही जाती हैं। इनमें से इस समय कोई संहिता विद्यमान नहीं है। एक दूसरा ही विवरण वायुपुराण में इस प्रकार है कि ब्रह्मा ने पहले सब शास्त्रों के पुराण का स्मरण किया, पीछे उनके मुख से वेद निकले। 5 पुराणों का संरक्षण करने का कार्य सूतों को सौंपा गया था। मूल सूत प्रथम यज्ञ से योगशक्ति के द्वारा उत्पन्न हुए और पुराण-परम्परा की रक्षा उन्हें सौंपी गयी। अथर्ववेद में ‘पुराण’ शब्द का एकवचन में प्रयोग, पुराणों में दी हुई वंशावलियों की भाषा का सर्वत्र एक-सा होना और यह परम्परागत जनश्रुति कि आरम्भ में केवल एक ही पुराण था- इन बातों से जैक्सन तथा अन्य विद्वानों को यह विश्वास हो गया कि आरम्भ में केवल एक ही पुराण था। 6 परन्तु एकवचन का प्रयोग पुराणों की समष्टि पुराण-संहिता का वाचक है। वंशावलियों की यह बात है कि विभिन्न पुराण विभिन्न वंशावलियों के साथ आरम्भ होते और विभिन्न समयों में समाप्त होते हैं, तथा विभिन्न स्थानों में उनका निर्माण हुआ है। अतः एक ही पुराण नहीं था- जैसे एक ही वेद नहीं है, न एक ही ब्राह्मण है। पुराणों की जो परिभाषा पहले दी जा चुकी है, उसके अनुसार पुराणों में सर्ग, प्रतिसर्ग, देवताओं और ऋषियों के वंशवृत्त, मन्वन्तर और राजवंश वर्णित होते हैं। इनमें से पूर्वोक्त तीन विषयों में प्राचीन धर्म, आख्यान और तत्त्वज्ञान तथा सृष्टि-वर्णन- ये विषय आ जाते हैं। पिछले दो विषयों में राजाओं के वंशवृत्त और इतिहास की सामग्री मिलती है। इनके अतिरिक्त धार्मिक शिक्षा, कर्मकाण्ड, दान, (28) (29) व्रत, भक्ति, योग, विष्णु और शिव के अवतार, श्राद्ध, आयुर्वेद, संगीत, व्याकरण, साहित्य, छन्दशास्त्र, नाट्य, ज्योतिष, शिल्पशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजधर्म इत्यादि उन सभी बातों का इनमें समावेश होता है, जिनका जीवन के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चतुर्विध पुरुषार्थों के साथ सम्बन्ध है। अब हम पुराणों के तत्त्वज्ञान और उपाख्य, वंशवृत्त, भौगोलिक पृष्ठभूमि तथा काल-सम्बन्धी पौराणिक भावना का किंचित विचार करेंगे। तत्त्वज्ञान तत्त्वज्ञान- विश्वोत्पत्ति-जगदुत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में अनेक प्रकार के वर्णन हैं। एक वर्णन ऐसा है कि स्वतःसिद्ध ब्रह्म मूलतः और तत्त्वतः एक होने पर भी एक-के-बाद-एक उत्पन्न होने वाले पुरुष, प्रधान और काल- इन त्रिविध रूपों में निवास करता है। जब परमपुरुष पुरुष और प्रधान में प्रवेश करते हैं, तब प्रधान से महान् अथवा बुद्धि-तत्त्व उत्पन्न होता है। बुद्धि से अहंकार और अहंकार से पंचतन्मात्रा, पंचमहाभूत और एकादश इन्द्रिय उत्पन्न होते हैं। पंचीकृत पंचमहाभूतों से घटित ब्रह्माण्ड समुद्र पर ठहरा है और आप, अग्नि, वायु, अहंकार, बुद्धि और प्रधान- इन सात आवरणों से घिरा है। देवाधिदेव ब्रह्मा ने रजोगुण का आश्रय लेकर अखिल जीव-जगत् उत्पन्न किया, वही देवाधिदेव सत्त्वगुण का आश्रय लेकर विष्णु रूप से सबका पालन करते हैं और तमोगुण का आश्रय लेकर सबका संहार करते हैं। एक दूसरा विवरण ऐसा है, जिसमें नौ प्रकार की सृष्टि का वर्णन है। प्रथम तीन महत्-सर्ग, भूत-सर्ग और ऐन्द्रिय सर्ग हैं। इन्हें प्राकृत सर्ग कहते हैं। अन्य पाँच वैकृत सर्ग हैं और अन्तिम कौमार सर्ग है। पश्चैते वैकृताः सर्गाः प्राकृतास्तु त्रयः स्मृताः। प्राकृतो वैकृतश्चैव कौमारो नवमः स्मृतः॥ इत्येते वै समाख्याता नव सर्गाः प्रजापतेः। (विष्णुपुराण 1.5.24-25) एक और विवरण इस प्रकार का है कि ब्रह्मा ने एक-के-बाद-एक चार रूप धारण किये और उनसे असुर, देव, पितृ और मनुष्य उत्पन्न हुए। पीछे उन्होंने राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, अन्य सब जीव, प्राणी और वनस्पति आदि को उत्पन्न किया। तब मानस पुत्र उत्पन्न हुए, जो ऋषि कहलाये और देवता उत्पन्न हुए, जो रुद्र कहलाये। इनके बाद स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की सृष्टि हुई। इनके दो पुत्र हुए- प्रियव्रत और उत्तानपाद, और एक कन्या। दक्ष ने इस कन्या के साथ विवाह किया। इनके चौबीस कन्याएँ हुईं, जिनमें से तेरह धर्म को ब्याही गयीं, इनके प्रेम तथा अन्य मूर्तिमान् भाव उत्पन्न हुए। दस कन्याएँ अन्य मानस पुत्रों, पितरों और अग्नि को ब्याही गयीं। और एक कन्या- सती का विवाह शिव के साथ हुआ। यह सारी सृष्टि ब्रह्मा के एक दिन तक रहती है। ब्रह्मा का एक दिन चौदह मन्वन्तरों का होता है। प्रत्येक मन्वन्तर के अन्त में निम्नकोटि के जीवों और निम्नस्तर के जगतों के जीवन का अन्त हो जाता है। अखिल विश्व का सत्तत्त्व बना रहता है- देवता और साधु-संत सुरक्षित रहते हैं। चौदहवें मन्वन्तर के अन्त में अर्थात् ब्रह्मा का एक दिन बीतने पर नैमित्तिक प्रतिसर्ग होता है। इसमें अग्नि और जल के द्वारा सब पदार्थों का अन्त होता है, केवल प्राकृत सृष्टि बनी रहती है और इसके साथ तीन गुण और सप्त ऋषि इत्यादि। एक कल्प के परिमाण की ब्रह्मा की रात समाप्त होने पर ब्रह्मा जागते हैं और अपनी सृष्टि फिर से आरम्भ करते हैं। समस्त प्राकृत सर्ग का प्राकृत प्रलय में ही अन्त होता है। यह प्रलय ब्रह्मा की आयु समाप्त होने पर ही होता है और तब सब देवता और सब रूप संहार को प्राप्त होते हैं। पंचमहाभूत मूल प्रकृति में मिल जाते हैं। मूल प्रकृति के पीछे केवल एक ब्रह्मसत्ता रहती है। उपास्यवर्णन उपास्यवर्णन- पुराणों में उपास्य देवों की विभिन्नता है। वैदिक देवताओं की अपेक्षा लौकिक देवताओं की स्तुति विशेष है। वैदिक देवताओं में से केवल इन्द्र और अग्नि अपनी पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ रह जाते हैं। प्रधान त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। वरुण समुद्र के अधिपति हैं, पर अपने यमज भाई मित्र से बिछुड़ गये हैं। पुराणों में मित्र का पता नहीं है। कुछ पुराणों में सूर्य की स्तुति बहुत की गयी है, पर उनकी उपासना विधि का विवरण भविष्य में मिलता है। मृतात्माओं के अधीश्वर यम नरकों में पापियों को दण्ड देते हैं। गन्धर्व और अप्सराएँ गायक और परियाँ हैं। असुरों के चार भेद बताये गये हैं- असुर, दैत्य, दानव और राक्षस। त्र्रिदेवों में से ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हैं विष्णु पालनकर्ता और शिव संहारकर्ता। साम्प्रदायिक पुराणों में कोई विष्णु को श्रेष्ठ बतलाते हैं। कोई शिव को श्रेष्ठ बतलाते हैं। पर सामान्यतः प्राचीनतर पुराण एक को श्रेष्ठ बताकर दूसरे की भी स्तुति करते हैं। इसका परम उत्कर्ष एकेश्वरवाद में होता है, जहाँ तीनों का एकत्व प्रतिपादित होता है और यह बतलाया जाता है कि उपासक अपनी इच्छा के अनुसार इनमें से किसी की भी उपासना कर सकता है। अधिकांश पुराणों में विष्णु के दस अवतार बतलाये गये हैं। इनमें से मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह और वामन- ये पाँच पौराणिक हैं_ परशुराम, राम, कृष्ण और बुद्ध- ये चार ऐतिहासिक (30) (31) हैं और एक कल्कि अभी आने को हैं। इनमें से वराह, नरसिंह और वामन के अवतारत्व के बीज वैदिक साहित्य में हैं। ये अवतार दिव्य कहाते हैं और अन्य अवतार मानुष। विष्णु क्षीरसागर में रहते हैं, अवतार के समय अवतार लेते हैं। पर शिव पार्थिव देव हैं। पार्वती, माता भवानी इनकी नित्य संगिनी हैं। स्कन्द और गणेश इनके पुत्र हैं। पाशुपत सम्प्रदाय इन्हीं का उपासक है। शैवपुराणों में इनकी प्रशंसा है। लिंग-सम्प्रदाय और शाक्त-सम्प्रदाय भी पीछे के पुराणों में आते हैं। पितरों की भी उपासना पुराणों में है। पितरों के सात वर्ग हैं। देवों के समान ही इनके पूजन का भी विधान पुराणों में कहीं-कहीं आता है। प्रत्येक मन्वन्तर में देवताओं के साथ ही वे उत्पन्न होते हैं। पितरों का सम्बन्ध श्राद्ध से है, जिसका विवरण पुराणों में दिया गया है। वंशवृत्त वंशवृत्त- पुराणों के वंशवृत्त मनु के साथ आरम्भ होते हैं। मनु ने ही प्रलयकाल में मानवों की रक्षा की थी। पहले राजा वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे। समस्त देश इन दस पुत्रों को बाँट दिया गया। ज्येष्ठ पुत्र पुरुष और स्त्री उभयविध थे और इल और इला दोनों नामों से प्रसिद्ध हुए। उनके दो पुत्र हुए, सौद्युम्न और ऐल। इक्ष्वाकु को मध्यदेश का राज्य मिला। उनकी राजधानी अयोध्या थी। उनके पुत्र विकुक्षि ने सूर्यवंश की मुख्य इक्ष्वाकु-शाखा चलायी। उनके दूसरे पुत्र निमि से विदेह उत्पन्न हुए। यमुनादेश पर राज्य करने वाले नाभाग के वंशधर रथीतर हुए, जिनको ‘क्षत्रोपेता द्विजातयः’ कहा जाता था। धृष्ट से धृष्टक वंश चला, जिसका राज्य पंजाब में था। शार्यातों के मूल पुरुष शर्याति आनर्त (वर्तमान गुजरात) के राजा थे। उनकी राजधानी कुशस्थली (द्वारका) थी। नाभानेदिष्ठ वर्तमान तिर्हुत पर राज करते थे। इस वंश के राजा विशाल ने वैशाल वंश चलाया। करूष से कारूष उत्पन्न हुए, जो बड़े योद्धा थे और जिन्होंने बघेलखण्ड दखल किया। नरिष्यन्त और प्रांशु के बारे में कोई विशेष विवरण नहीं मिलता। पृषध्र को सम्भवतः उनका अंश नहीं दिया गया। इला के पुत्र पुरुरवा ऐल प्रतिष्ठान (वर्तमान पीहन अथवा पैठण) पर राज करते थे। उन्होंने ऐल या चन्द्रवंश चलाया। उनके पुत्र आयु पिता के पीछे प्रतिष्ठान के राजसिंहासन पर बैठे और दूसरे पुत्र अमावसु ने कान्यकुब्ज वंश चलाया। उनके पाँच पुत्रों में से नहुष आयु के पीछे राजगद्दी के अधिकारी हुए। क्षत्रवृद्ध ने काशी में अपना राज्य स्थापित किया और अनेनस् ने क्षत्रधर्माओं को उत्पन्न किया। नहुष के पाँच या छः पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र यति संन्यस्त हो गये और महान् यशकर्ता ययाति पितृराज्य के उत्तराधिकारी हुए। ययाति ने देवयानी और शर्मिष्ठा से विवाह किय। देवयानी से इनके यदु और तुर्वसु- दो पुत्र हुए और शर्मिष्ठा से अनु, द्रुह्यु और पुरु। इन सबके वंश खूब बढ़े। पुरु ने वंश की मुख्य शाखा चलायी। उनसे पौरव उत्पन्न हुए, जो कौरव-पाण्डवों के पूर्वपुरुष थे। यदु से यादव-वंश चला- जिसमें हैहय, अन्धक, वृष्णि, सात्वत आदि शाखाएँ सम्मिलित हैं। अनु से आनव वंश चला। आनवों की यौधेय, सौवीर, कैकय आदि शाखाएँ फैलीं। द्रुह्यु के वंशधर भारत के बाहर म्लेच्छ देशों में फैले, और तुर्वसु की शाखा पीछे पौरवों में मिल गयी। मनु से भारतीय युद्ध तक लगभग 95 पीढ़ियाँ बतायी गयी हैं। भारतीय युद्ध के उत्तरकालीन वंशों के लिए पुराण भविष्य काल की क्रिया का प्रयोग करते हैं और उन्हें कलियुग में गिनते हैं। इनका वर्णन केवल सात ही पुराणों में है। यह विवरण इधर गुप्तों और आन्ध्रों तक आ पहुँचा है। पुराणों की वंशावलियों में इतिहास की जो सामग्री मिलती है, उससे हम वेदों और पुराणों का ऐतिहासिक मूल्य तुलनात्मक दृष्टि से लगाने का यत्न कर सकते हैं। इस विषय में इतिहासज्ञों के बीच बड़ा मतभेद है। कीथ को पुराणों का ऐतिहासिक मूल्य मानने में बहुत सन्देह होता है। ऋग्वेद में जिसका कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता, ऐसी किसी भी पौराणिक घटना की ऐतिहासिकता मानने में उनका मन निस्सन्देह नहीं रहता। पार्जिटर की दृष्टि इससे सर्वथा विपरीत दूसरे छोर पर टिकती है। वे वेदों की अपेक्षा पौराणिक कथाओं को अधिक विश्वसनीय मानते हैं। वेदों की बातों को वे ब्राह्मण-परम्परा कहते हैं। पर क्षत्रिय नाम धारण किये हुई परम्परा भी इतिहास का विशुद्ध मूल हो, ऐसी बात तो नहीं है। वेदों के पक्ष में दो बातें अवश्य की प्रबल हैं_ वेद एक तो पूर्वकालीन हैं और दूसरे, वेदों के पाठ ज्यों-के-त्यों सुरक्षित हैं। फिर भी, पुराणों में बहुत-सी अविश्वसनीय बातों के होते हुए भी, ऐतिहासिक दृष्टि से पुराणों को अप्रमाण कहकर त्याग नहीं दिया जा सकता। यह समझना बहुत बड़ी भूल है कि पुराणों के कथाभाग ने सत्य को निर्वासित कर दिया है। फिर, यथार्थ में वेदों और पुराणों की बातों में परस्पर कोई विरोध नहीं है। जिस रूप में आज ऋग्वेद उपलब्ध है, यह कुरु-पांचाल की देन है। इसमें स्वभावतः उस देश के राजाओं का मुख्यतया वर्णन हे, दूसरों का वर्णन केवल प्रसंग से आ गया है। वेदों में जिन राजाओं के नाम आते हैं, पर जो पुराणों में नहीं मिलते, वे सम्भवतः छोटे-छोटे वंशों के राजा या सरदार थे और इस कारण पुराणों (32) (33) की वंशावलियों में वे नहीं आये। यह भी सम्भव है कि एक ही पुरुष का भिन्न-भिन्न नामों से इन दोनों में वर्णित वंशावलियों में निर्देश हुआ हो। पुराणों की वंशावलियाँ जिन अंशों में खण्डित हैं, वहाँ ऋग्वेद में वर्णित राजा बैठाये जा सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि पुराणों की वंशावलियों का संशोधन करने में ऋग्वेद ही साधन है। पर जब हम देखते हैं कि पुराणगत वर्णन वैदिक वर्णन से मिलता है, तब यह उचित ही है कि जिस विषय में ऋग्वेद मौन है, उस विषय में पुराणों का कथन सत्य माना जाय। परम्परागत इतिहास लिखने की ठीक पद्धति यही होगी कि वेदों और पुराणों-दोनों का संयुक्त प्रमाण माना जाय, जहाँ दोनों के वर्णन मिलते हैं_ और जहाँ दोनों के परस्परविरोधी वचन मिलें, वहाँ सामंजस्य स्थापित करने का यत्न किया जाय। इन सब विषयों में पुराण-साक्ष्य का विचार बहुत सावधानी के साथ करना होगा। पुराणों की भौगोलिक पृष्ठभूमि पुराणों की भौगोलिक पृष्ठभूमि- प्रथम मनु के विवरण में उनके राज्यान्तर्गत जगत् का वर्णन आता है। काल निर्धारण के समान इस वर्णन का बहुत-सा भाग काल्पनिक है। जगत् का इस प्रकार वर्णन है कि इसमें सात समकेन्द्रिक द्वीप हैं। प्रत्ये द्वीप एक-एक समुद्र से घिरा हुआ है। इन समुद्रों में कोई घृत का समुद्र है, कोई दूध का_ इस प्रकार विविध द्रव्यों के समुद्र हैं। इन द्वीपों में मध्यवर्ती जम्बूद्वीप है, जिसके चारों ओर क्षारसमुद्र है। जम्बूद्वीप का मुख्य भाग भारतवर्ष है। भरत की संतानों के नाम पर यह देश भारतवर्ष कहलाया। इसके उत्तर भाग में हिमालय है और दक्षिण में समुद्र। इसमें सात मुख्य पर्वत हैं-महेन्द्र, मलय, सह्य, शक्तिमान्, ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र। भारत के पूर्व ओर किरात रहते थे, पश्चिम ओर यादव और मध्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। हिमालय तथा सप्त समुद्रों से निकलने वाली नदियों के नाम तथा विविध प्रदेशों में रहने वाली विविध जातियों के नाम दिये गये हैं। महाभारत तथा अन्य ग्रन्थों में भी ऐसी ही नामावलियाँ आयी हैं_ यवन, शक और पींवों का जिक्र है। ये लोग ईसा के पूर्व दूसरी और पहली शताब्दियों में भारतवर्ष में आये। हूणों का भी जिक्र है। हूणों ने ईसा की छठीं शताब्दी में गुप्त-साम्राज्य ध्वंस किया। पुराणों में इनका वर्णन यह सूचित करता है कि भौगोलिक नामावलियाँ समय-समय पर नये नाम जोड़कर पूरी की गयी हैं। काल सम्बन्धी पौराणिक भावना- पुराणों में सृष्टि रचना के जो विविध वर्णन हैं, उनसे युग-मन्वन्तर आदि का विचार करना आवश्यक होता है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन और रात है। 12000 दिव्य वर्षों का अर्थात् मनुष्यों के 43,20,000 वर्षों का एक चतुर्युग या महायुग होता है। इस महायुग के कृत, त्रेता, द्वापर और कलि- ये चार युग होते हैं। इनक वर्षसंख्या का परस्पर तारतम्य यथाक्रम 4ः3ः2ः1 इस हिसाब में बैठता है। प्रत्येक युग के आगे और पीछे एक-एक सन्धिकाल उस युग के दशमांश के बराबर होता है। एक सहस्र चतुर्युग (अर्थात् 1000 ग 43,20,000 मानुष वर्षों का) ब्रह्मा के एक दिन और रात के बराबर होता है। इस एक दिन-रात को कल्प कहते हैं। प्रत्येक कल्प में मानव-जाति के आदि पुरुष चौदह मनुओं के कालविभाग अर्थात् मन्वन्तर होते हैं। एक-एक मनु इकहत्तर-इकहत्तर चतुर्युगों की (सन्धिकाल के अतिरिक्त) अध्यक्षता करते हैं। विद्वानों ने इस विषय में अनेक वाद प्रतिपादित किये हैं। पर अभी तक मन्वन्तर-चतुर्युग के रहस्य का कोई समाधानकारक उद्घाटन नहीं हुआ। पार्जिटर कृत, त्रेता, द्वापर और कलिरूप से युगों के विभाजन का कोई ऐतिहासिक मूल होने का अनुमान करते हैं। भारतीय युद्ध द्वापर के अन्त में और युद्ध के बाद कलि का आरम्भ हुआ माना जाता है। इसके पूर्व दाशरथि राम त्रेता और द्वापर के बीच में हुए। हैहयों के नाश के साथ कृतयुग का अन्त और सगर के राज्य के साथ त्रेता का आरम्भ हुआ। पुराणों का समय पुराणों का समय- पुराणों के समय के सम्बन्ध में बहुत विवाद है। कुछ समय पहले यह सोचा जाता था कि संस्कृत साहित्य में पुराणों का निर्माण सबके पीछे हुआ है और विगत एक सहस्र वर्षों के अन्दर यह सारी रचना हुई है। पर पुराणों के जो उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं, उनसे यह विचार कट जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सब पुराण अपने वर्तमान रूप में किसी एक ही समय में नहीं रचे गये हैं_ किसी पुराण के कोई-कोई अंश तक भिन्न-भिन्न समय के रचे दीखते हैं। पुराणों में घटाना-बढ़ाना, संशोधन करना, मिश्रण करना इत्यादि क्रम बराबर चलता ही रहा है। अतः पुराणों का समय निर्धारित करने में हमें उनके पूर्वतन अंशों का ही समय विचारना होगा, बहुत पीछे के अंशों का समय नहीं। पुराणों के प्राचीनतम रूप भारतीय युद्ध के समय निस्सन्देह विद्यमान थे, मेगास्थनीज के समय तो थे ही। साहित्य और शिलालेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान पुराण ईसा के पूर्व और पश्चात की आरम्भिक शताब्दियों के हैं। पुराणों का ऐतिहासिक मूल्य पुराणों का ऐतिहासिक मूल्य- पुराणों के वर्तमान रूप हैं तो बहुत पीछे के_ (34) (35) पर इनमें वंशपरम्परा का जो इतिहास आता है, वह प्राचीनतम है और इसकी बहुत-सी सामग्री पुरातन और मूल्यवान है। अतः पुराणों का प्रमाण सर्वथा त्याज्य समझने का कोई कारण नहीं है। पुराणों के सम्बन्ध में आधुनिक विद्वानों का रुख समय-समय पर बदलता रहा है। पुराणों में कलाओं और ऐतिहासिक घटनाओं का गड्डमड्ड होने से तथा ‘युगों’ के सम्बन्ध में उनकी कुछ विचित्र ही कल्पना होने के कारण भारतीय इतिहास के संशोधन के आरम्भ काल में ईसा के 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों तथा 19वीं शताब्दी के आरम्भ में पुराणों का कोई ऐतिहासिक मूल्य नहीं माना जाता था। पीछे कैप्टेन स्पेक ने नूबिया (कुशद्वीप) जाकर नील नदी के उद्गमस्थान का पता लगाया और उससे पुराणों के वर्णन का समर्थन हुआ। तब पुराणों पर आस्था जमने लगी थी। ताम्रपत्रों और मुद्राओं से ऐतिहासिक तथ्य ढूँढ़ निकालने की प्रवृत्ति इसी समय उदय हुई_ इससे पुराणों का मूल्य घटने लगा और कहीं-कहीं पुराणगत परम्परा का इतिहासवृत्त अयथार्थ भी प्रमाणित हुआ। कुछ बातों में बौद्ध ग्रन्थों ने भी पुराणों की बातें काट दीं। इस प्रकार सन्देह बढ़ने से पुराणों पर अविश्वास उत्पन्न हुआ। पिछली शताब्दी के आरम्भिक दशकों में विल्सन ने पुराणों का पद्धतियुक्त अध्ययन किया और विष्णुपुराण का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। इसकी एक बहुत बड़ी भूमिका उन्होंने लिखी थी और आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक टिप्पणियाँ भी जोड़ी थीं। इससे संस्कृत साहित्य के इस महान् अंग की ओर यूरोपियन विद्वानों का ध्यान विशेषरूप से आकर्षित हुआ है। पुराणों की अब तक जो अनुचित उपेक्षा होती रही, उसका अन्त हुआ और स्वतन्त्र प्रमाण द्वारा समर्थन प्राप्त होने की हालत में पुराण विश्वास-स्थापन के योग्य समझे जाने लगे। पर पुराणों का विशेष अध्ययन तो इसी शताब्दी के आरम्भ में पार्जिटर ने किया। उनके धैर्य और अध्यवसाययुक्त अनुसंधान का यह फल हुआ कि पुराणों की ऐतिहासिक सामग्री का एक पर्यालोचनात्मक विवरण जगत् के सामने आया। पुराणों में जो ऐतिहासिक वर्णन हैं, उनका पक्ष इससे बहुत प्रबल हुआ है। स्मिथ ने यह प्रमाणित किया है कि मत्स्यपुराण में आन्ध्रों का जो वर्णन है, वह प्रायः सही है। इतिहास के विद्वानों ने अब यह जाना है कि मौर्यों के विषय में विष्णुपुराण का और गुप्तों के विषय में वायुपुराण का वर्णन विश्वसनीय है। पुराणों की ओर अब तक जो कुछ ध्यान दिया जाता था, उससे कहीं अधिक ध्यान देने के पात्र वे अब समझे जाते हैं। पुराण अब भारत के परम्परागत इतिहासवृत्त के एक बहुत बड़े प्रमाण माने जाने लगे हैं। ऐतिहासिक सामग्री की खोज के लिए आजकल पुराणों का विशेषरूपसे आलोचनात्मक अध्ययन होता है। आधुनिक इतिहासकार और प्राच्यतत्त्ववित् रैंप्सन, स्मिथ, जायसवाल, भण्डारकर, राय चौधरी, प्रधान, रंगाचार्य, आलतेकर, जयचन्द्र आदि ने अपने ऐतिहासिक ग्रन्थों, समीक्षाओं, प्रबन्धों और लेखों में पौराणिक सामग्री का उपयोग किया है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के व्यापक इतिहास के लिए पुराणों का बड़ा महत्त्व है। क्योंकि इनमें अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, शासनसंस्थाएँ, धर्म, तत्त्वज्ञान, कानून और उसकी संस्थाएँ, ललित कलाएँ, शिल्पशास्त्र आदि विविध विषयों के विस्तृत प्रकरण हैं। आधुनिक इतिहासकार को विविध आख्यानों और उपाख्यानों से विशुद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्य अलग करके निकाल लेना होगा। विगत दो सहस्र वर्षों से भी अधिक काल से रामायण और महाभारत के साथ पुराण भी भारतीय जीवन को अपने विविध आदर्श पुरुषों के चरित्रों से अनुप्राणित और प्रभावित करते चले आ रहे हैं। राम, कृष्ण, हरि, शिव आदि नाम आज भी करोड़ों मनुष्यों के जीवनधन हैं। दीन-दुखी जनता के छिन्न-विच्छिन्न स्नायुओं और भग्न हृदयों को बल देकर तथा उनमें आशा-विश्वास का संचार कर पुराणों ने उन्हें उबारने का काम किया है। पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से ऐसे लोग पहले निकले, जो पुरातन तथा परम्परागत प्रत्येक वस्तु की हँसी उड़ाना ही जानते थे। उनकी दृष्टि में पुराणों का मूल्य कूड़े-करकट से अधिक नहीं था। यह महान् शुभ चिर्हिं कि पुराणों के सम्बन्ध में अब आधुनिकों की दृष्टि बदल रही है। गीताप्रेस और ‘कल्याण’ ने हमारी पूर्व परम्परा की रक्षा करने में बहुत बड़ा काम किया है। यह दुर्भाग्य की बात है कि पुराणों के पाठ बहुत भ्रष्ट हो गये हैं। हम यह आशा कर सकते हैं कि पाठपरीक्षण के पाश्चात्य मानक के अनुसार जाँच करके पुराणों के संशोधित संस्करण शीघ्र ही प्रकाशित होंगे। सन्दर्भ- 1. ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः। इतिहासपुराणं च पंचमो वेद उच्यते॥ ‘ऋक्, यजुः, साम, अथर्व नाम के चार वेद कहे गये हैं। इतिहास-पुराण पंचम वेद कहा जाता है।’ 2. ऋचः सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाब्जशिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः॥ (अथर्व. 11.7.24) ‘ऋक्, साम, छन्द, पुराण, यजुर्वेद, दिव्य लोक का आश्रय करके रहने वाले देवता- (36) (37) अष्टादश पुराणों में श्री विष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसके रचयिता श्री पराशर जी हैं। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीराम-श्रीकृष्ण चरित आदि कई प्रसंगों का अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। यद्यपि यह पुराण विष्णु के पूरक हैं। भक्ति व ज्ञान की प्रशान्त धारा इसमें सर्वत्र परिलक्षित होती है। फिर भी भगवान् शंकर के लिए कहीं भी अनुदार भाव प्रकट नहीं किया गया है। श्री कृष्ण-बाणासुर संग्राम में विष्णु और शिव के युद्ध का वर्णन आता है। किन्तु स्वयं भगवान् कृष्ण भगवान् शिव के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए कहते हैं- युष्मद्दत्तवरो वाणो जीवतामेष शंकर। त्वाद्वाक्यगौरैरवादेतन्मया चक्रं निवर्तितम्॥ त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया। मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रष्टुमर्हसि शंकर॥ योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवेवासुरमानुषम्। मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्वं ज्ञातुमिहार्हसि॥ अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः। वदन्ति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हार॥(विष्णु पुराण-5, 33, 46-49) हे शंकर! यदि आपने इसे वर दिया है तो यह वाणासुर जीवित रहे अपने वचन का मान रखने के लिए मैं इस चक्र को रोक लेता हूँं। आपने जो अभय दिया है वह सब मैंने भी दे दिया है। हे शंकर! आप अपने को मुझमें सर्वदा अभिन्न देखें। आप यह भली प्रकार समझ लें कि जो मैं हूँ सो आप हैं तथा यह सम्पूर्ण जगत् देव, असुर, मनुष्य आदि कोई भी मुझसे भिन्न नहीं है। हे हरि! जिन लोगों का चित्त अविद्या से मोहित है। वे भिन्न दर्शी पुरुष ही हम दोनों में भेद रखते हैं और बतलाते हैं। विष्णुपुराण में भारतीय राज, समाज व संस्कृति के मूल तत्वों का लोकोपयोगी संकलन किया गया है। पुराणों की रचना का मूल उद्देश्य धर्म और अध्यात्म के विष्णुपुराण में राज्य एवं समाज संपादित करें बालमुकुन्द पाण्डेय* सब यज्ञ के उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए हैं।’ 3. स होवाच ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणम्। चतुर्थमितिहासपुराणं पंचमं वेदानां वेदमिति॥(छान्दोग्य. 7.1.2) ‘उसने कहा, हे भगवन्! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद, पाँचवाँ इतिहासपुराण, वेदों का वेद जानता हूँ।’ 4. आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः। पुराणसंहितां चक्रे पुराणार्थविशारदः॥(विष्णुपुराण 3.6.15) ‘आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पशुद्धि के साथ पुराणार्थ-विशारद (व्यास) ने पुराणसंहिता रची।’ 5. पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः॥(वायुपुराण) ‘सब शास्त्रों में पुराण का ब्रह्मा ने पहले स्मरण किया। अनन्तर उनके मुखों से वेद निकले।’ 6. पुराणमेकमेवासीत्तदा कल्पान्तरेऽनघ॥(यह वचन अनेक पुराणों में है।) ‘हे निष्पाप! कल्पान्तर में तब एक ही पुराण था।’ (38)*राष्ट्रीय संगठन मंत्री, अ.भा.इतिहास संकलन योजना, नयी दिल्ली गूढ़ तत्त्वों को समाज के लिए सरल भाषा और सुगम शैली में उपस्थित करना है। वास्तव में यह भारतीय जन-जीवन को सदा प्रभावित करते हैं। पुराण भारतीय संस्कृति के अक्षय भण्डार हैं। भारतीय समाज का यथार्थ चित्र पुराणों के द्वारा ही सामने लाया जा सकता है। इसके बिना भारतीय जीवन का दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं हो सकता। संसार में ज्ञान-विज्ञान, मानव-मस्तिष्क की कोई भी कल्पना नहीं जिसका निरूपण पुराणों में नहीं हुआ है। जिन विषयों को अन्य माध्यमों से समझना बहुत कठिन है वे पुराणों के माध्यम से सरल भाषा में कथा आख्यान, रूपक आदि विद्या से सरल भाषा में वर्णित हुए हैं। भारतीय संस्कृति दुनिया की सबसे आदर्श और समृद्ध संस्कृति है। विश्व के सर्वोच्च अधिष्ठान पर बैठकर दीक्षित करने का श्रेय भारतीय संस्कृति को है। जिसका संवाहक पुराण हैं इसकी उत्कृष्ट और आदर्शवादिता के उदाहरण विष्णुपुराण में देखे जा सकते हैं। भारतीय संस्कृति का मूल आधार कर्तव्य पालन हैं। विष्णुपुराण में विशेष रूप से ब्राह्मणों की कर्तव्यनिष्ठा पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था में ब्राह्मण देश का नेता कर्णधार और उन्नायक होता था। क्षत्रिय शासक इसके मार्गदर्शन में ही शासन करते थे। ब्राह्मण त्यागी, तपस्वी और निःस्वार्थी होते थे। राजनीति और समाज के लोगों का निदानकर उसका उपचार करना ही उनका कार्य होता था। देश के नैतिक स्तर को ऊँचा बनाए रखते थे। अपने राजा का चरित्र निर्दोष रखना तो अपना आवश्यक कर्तव्य मानते थे ताकि देश पर किसी प्रकार का संकट न आने पावे। विष्णुपुराण के अनुसार वेन एक नास्तिक अहंकारी और निरंकुश राजा हुआ था। हिरण्यकश्यप की तरह भगवान् की अपेक्षा अपने सम्मान को अधिक बल देता था, वह कहता था-‘‘मुझसे भी बढ़कर ऐसा कौन है जो मेरा भी पूजनीय है। जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो। वह हरि कहलाने वाला कौन है! ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, कुशा, पृथ्वी और चन्द्रमा तथा इसके अतिरिक्त और भी देवता शाप और कृपा करने में समर्थ हैं। वे सभी राजा के शरीर में निवास करते हैं। इस प्रकार राजा सर्वदेवमय हैं।’’ ब्रह्मा जनार्दनः शम्भुरिन्द्रो वायुर्यमो रविः। हुतभुग्वरुणो धाता पूषा भूमिर्निशाकरः॥ एते चान्ये च ये देवाः शापानुग्रहकारिणः। नृपस्यैते शरीरस्थाः सर्वदेवमयो नृपः॥(1/13/21-22) वो कहता था किसी को भी दान, यज्ञ हवनादि नहीं करना चाहिए। हे ब्राह्मणों! जैसे स्त्री का परम धर्म पति सेवा है वैसे ही आपका परम धर्म मेरी आज्ञा का पालन है। इसीलिए मेरे आदेश का पूर्ण रूप से पालन करो। एवं ज्ञात्वा मयाज्ञप्तं यद्यथा क्रियतां तथा। न दातव्यं न यष्टव्यं न होतव्यं च भो द्विजाः॥ भर्तृशुश्रषणं धर्मो यथा स्त्रीणां परो मतः। ममाज्ञापालनं धर्मोर् भवतां च तथा द्विजाः॥(1/13/23-24) ब्राह्मणों ने उसे समझाने का बहुत यत्न किया लेकिन अत्याचार बढ़ता ही गया और उसने ऋषियों की बात नहीं मानी तब ऋषियों ने सलाह कर राजा की जंघा को यत्नपूर्वक मंथन किया और उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ। जो ठूंठ के समान काला अत्यंत नाटा और छोटे मुख वाला था। उसने अतिआतुर होकर कहा मैं क्या करूँ? तब ऋषियों ने कहा निषीध (बैठ) अतः वह निषाद कहलाया। उसके द्वारा उस निषाद रूप द्वार से उस राजा वेन का सम्पूर्ण पाप निकल गया। अतः निषादगण वेन के पापों का नाश करने वाले हुए। (विष्णुपुराण 1/13/33-36) उसके बाद ऋषियों ने वेन के दायें हाथ का मंथन किया। जिससे परम प्रतापी वेन सुत पृथु प्रकट हुए जो अपनी शरीर से अग्नि के समान दिव्यमान थे। तत्पश्चात् वेन शतपुत्र के जन्म के फलस्वरूप स्वर्ग लोक को प्राप्त हुआ। तस्यैव दक्षिणं हस्तं ममन्थुस्ते ततो द्विजाः। मथ्यमाने च तत्राभूत्पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्॥ दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिव ज्वलन्॥(1/13/38-39) जिन्हें विधिपूर्वक राजाधिकार देकर अभिषित किया गया। ‘विष्णुचक्रं करे चिर्िंं सर्वेषां चक्रवर्तिनाम। भवत्यव्याहतो यस्य प्र्रभावस्त्रिदशैरपि॥’ (1/13/46) उसके पिता ने जिस प्रजा को अप्रसन्न किया था उन सभी प्रजा को पृथु ने प्रसन्न किया। पित्राऽपरिञ्जतास्तस्य प्रजास्तेनानुरिञ्जताः। अनुरागात्ततस्य नाम राजेत्यजायत॥(1/13/48) पृथु की उन्नत राज्य व्यवस्था के सम्बन्ध में विष्णुपुराण के 1/13/47 से 1/13/50 तक वर्णन मिलता है कि जब वे समुद्र में चलते थे तो जल बहने से रुक जाता था_ पर्वत उन्हें मार्ग दे देते थे_ और उनकी ध्वजा कभी भंग नहीं हुई। आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः। पर्वताश्च ददुमार्गं ध्वजभंगश्च नाभवत्॥(1/13/49) पृथ्वी बिना जोते बोए धान्य उगाने वाली थी। केवल चिन्तन मात्र से ही अन्न (40) (41) सिद्ध हो जाता था। गौवें कामधेनुरूपा थीं और पत्ते-पत्ते पर मधु भरा रहता था। अकृष्पच्या पृथिवी सिद्ध्यन्त्यन्नानि चिन्तया। सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके मधु॥(1/13/50) अर्थात् यह एक समृद्ध और लोककल्याणकारी राज्य की स्पष्ट परिकल्पना को पुष्ट करता है। राज्य सुशासन, सुव्यवस्था स्थापित करने का श्रेय उन ब्राह्मणों को है जिन्होंने शासन में अव्यवस्था उत्पन्न करने वाले तत्त्वों को निकाल फेंका और ऐसे हाथों में सत्ता सौंपी जो प्रजा के सच्चे अर्थ में संरक्षण करने वाले थे। इससे राज्य में सुधार हुआ। प्रजा प्रसन्न हुई। जिसे एक आदर्श राज्य की संज्ञा दी गई। विष्णुपुराण में धार्मिक उदारता का वर्णन भी मिलता है। वैष्णव धर्म एक उदार धर्म है। उसमें उँच-नीच का कोई भेद नहीं है। इसके किसी वर्ग को नीचा समझ कर उपेक्षा नहीं की गई। वरन् सबको गले लगाया जाता है। सबको वैष्णव भक्ति का समान अधिकार प्राप्त है। भक्ति के क्षेत्र में अधिकारों की कोई दीवार खड़ी नहीं की गई है। ये इसकी महान विशेषता है। विष्णुपुराण इसका साक्षी है। जम्बूदीप के वर्णों और जातियों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उस द्वीप में जो आर्यक, कूरर, विदिष्य और भावी नामक जातियाँ हैं, वे क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। जम्बूवृक्षप्रमाणस्तु तन्मध्ये सुमहांस्तरुः। प्रल्क्षस्तÂमसंज्ञोऽयं पल्क्षद्वीपः द्विजोत्तम॥(2/4/17) शाल्मल द्वीप में कपिल, अरुण, पीत और कृष्ण नामक जातियाँ रहती हैं। जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। ये यज्ञ करने वाले व्यक्ति सर्वात्म, अव्यय और यज्ञाश्रय दृश्य वायु रूप विष्णु का श्रेष्ठ यज्ञों से पूजन करते हैं। सभी वर्ण समान रूप से यज्ञों में सम्मिलित होते हैं। आज भी वैष्णव धर्म के मूल भूत सिद्धान्तों के अनुसार सभी वर्गों को समान रूप से यज्ञों में सम्मिलित होने का अधिकार है। इस धार्मिक उदारता के कारण वैष्णव धर्म का देश-विदेश में विस्तार हुआ। बड़ों का सम्मान करना भारतीय संस्कृति की एक महान विशेषता है। माता-पिता, गुरु और वृद्ध जनों की आज्ञा का पालन यहाँ एक साधारण नियम था, जिसका हर कोई पालन करता था। इस नियम में इतनी दृढ़ता आ गई कि वृद्ध जनों की मृत्यु होने के बाद भी उनके प्रति सम्मान बना रहता था। उस सम्मान के प्रतीक के रूप में जल से तर्पण किया जाता था। जिन पूर्वजों के कारण आज समाज ने इतना उत्थान किया है कि उनकी इस कृपा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना हमारा कर्तव्य है। विष्णुपुराण में अपने सगे सम्बन्धियों के ही नहीं अपितु सृष्टि के सभी प्राणियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने की प्रथा है। विष्णुपुराण के चतुर्थ अंश में समकालीन राजवंशों का विशद वर्णन है। मेरा यह मानना है कि पौराणिक वाङ्मय में लब्ध प्रतिष्ठित राजाओं का ही वर्णन किया गया है, जिनका राज्य व समाज के उन्नयन में योगदान है। बहुत सारे राजा ऐसे हुए होंगे जिनका नामोल्लेख करना पुराणकार आवश्यक नहीं समझते इसलिए पुराण की वंशावलियों के आधार पर कालक्रम का निर्धारण उचित एवं न्याय- संगत नहीं होगा। विष्णुपुराण के चतुर्थ अंश में वैवश्वत मनु, इक्ष्वाकुवंश, मान्धाता, त्रिशंकु, सगर, सौदास, खटवांग के अतिरिक्त भगवान् श्रीराम के चरित्र का वर्णन कुशल और प्रजापालक राजा के रूप में मिलता है। विष्णुपुराण में आदर्श शासन अर्थात् रामराज्य का वर्णन है। रामराज्य में कहीं भी धर्म का क्षय, पारस्परिक कलह अथवा मर्यादा का नाश कभी नहीं होता। धर्महानिर्न तेष्वस्ति न संघर्षः परस्परम्। मर्यादाव्युत्क्रमो नापि तेषु देशेषु सप्तसु॥ मगाश्च मागधाश्चैव मानसा मन्दगास्तथा। मगा ब्राह्मणभूयिष्ठा मागधाः क्षत्रियास्तथा॥ (2/4/68-69) वहाँ के निवासी रोग, शोक, रागद्वेष आदि से परे रहकर दस हजार वर्ष तक जीवन धारण करते हैं। उनमें ऊँच-नीच, मरने-मारने आदि जैसे भाव नहीं हैं। विष्णुपुराण में हिरण्यकश्यप, कंस जैसे अन्यायी राजाओं के कुशासन का वर्णन है। जिससे प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी थी। वहीं न्यायमूर्ति कर्तव्यपरायण तथा अपने को प्रजा का सेवक मानने वाले आदर्श राजाओं के सुशासन का भी उल्लेख है। आदर्श शासक जनता के जीवन और सम्पत्ति की सामूहिक आपत्तियों से सुरक्षा करना अपना नैतिक कर्तव्य मानता है। प्रजा राजा का अनुकरण करती है। इसलिए राजा की नैतिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियाँ भी जनता के लिए प्रेरणास्रोत हैं। विष्णुपुराण में अतिथि सत्कार न करने वालों की भर्त्सना की गई है। विष्णुपुराण 3/1/15-16 श्लोक में कहा गया है कि जिसके घर पर आया हुआ अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह अपने सब पाप कर्म गृहस्थ को देकर उसके सभी पुण्य कर्मों को साथ लेकर चला जाता है। अतिथि का अपमान उसके प्रति गर्व व दम्भ का व्यवहार उसे कोई वस्तु देकर उसका पश्चाताप कटु भाषण व उस पर प्रहार करना नितान्त अनुचित व पाप है। विष्णुपुराण तपस्या या संघर्ष से आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। धु्रव, प्रींद, (42) (43) राम, कृष्ण आदि का जीवन जीने की कला राज्य व समाज के लिए एक उत्कृष् उदाहरण है। ध्रुव से पितृ स्नेह, कृष्ण से मातृ स्नेह, राम से राज्य का अधिकार और प्रींद से भक्ति का अधिकार छीनने की घटना विष्णुपुराण के गंभीर उपदेशों को प्रकाशित करता है। विष्णुपुराण से हमें कठिनाइयों से संघर्ष करने, दुःखों को धैर्यपूर्वक सहन करने, व्यक्ति को क्रियाशील व शक्तिशाली बनाने की एक उन्नत शिक्षा प्राप्त होती है। विदेशी इतिहासकारों नेषड्यन्त्रपूर्वक दो सौ वर्षों में हमारे इतिहास को विकृत किया_ दूषित अभिव्यक्ति के माध्यम से हमारे पुराणों को निन्दित साहित्य की श्रेणी में डाल दिया क्योंकि पुराण उनके उद्देश्यों के रास्ते में बाधक बन रहा था। हमें श्रद्धा व विश्वासपूर्वक पुराणों के अध्ययन के आधार पर विदेशियों के द्वारा विकृत किये गये इतिहास की बातों के उत्तर देने में अपना समय अपव्यय न करके पुराणों और महाकाव्यों में वर्णित इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत कर उनसे भी बड़ी रेखा खींच देनी है। जिससे उनके द्वारा किया हुआ विकृत इतिहास स्वतः कालवाह्य और महत्त्वहीन हो जायेगा। पुराण नित्य नूतन है_ पुराण इतिहास का श्रेष्ठ साधन है। इतिहास का अध्ययन सदैव वर्तमान परिप्रेक्ष्य में होता है। इतिहास के अध्ययन से अतीत वर्तमान में जीवित रहता है। इतिहास के अध्ययन में निहितार्थ का होना आवश्यक है। अतः यह कहा जा सकता है कि आजके वर्तमान समाज व राज्य के उत्तम मार्गदर्शन के लिए विष्णुपुराण में वर्णित राज्य व समाज व्यवस्था अनुकरणीय है। यदि आज का जन समुदाय उस आदर्श को अपनाए तो हमारा समाज व देश सर्वांगीण उन्नति कर परम वैभव की प्राप्ति की तरफ अग्रसर हो सकता है। विष्णुपुराण और भारत संपादित करें डॉ. कुँवर बहादुर कौशिक* ऋग्वेद (1/154_ 155_ 156_ 7/99-100) में ‘विष्णु’ के लिए पाँच सूक्त सम्बोधित किये गये हैं। इन्हीं सूक्तों के आधार पर विष्णु के स्वरूप एवं महत्त्व का मूल्यांकन किया गया है। वैदिक देवमण्डल के द्युस्थानीय देवताओं में ‘विष्णु’ का उल्लेख स्वयं में एक महत्त्वपूर्ण देवता की ओर संकेत करता है, जिसकी विविध प्रकार की व्याख्याएँ विद्वानों द्वारा की गयी हैं। यास्क ने निरुक्त (12/18) में"विष्णुः विशतेः वा व्यश्नोतेः वां" अर्थात् विष्णु की उत्पत्ति ‘विश’ (प्रवेश करना) अथवा ‘वि+अश्’ (व्याप्त करना) धातु से मानी है। वृहद्देवताकार का मत है कि ‘विष्णु’ शब्द व्याप्ति अर्थ वाली ‘विष’, ‘विश’ अथवा ‘वेविष्’ (विल्लृ) धातुओं से बना है। नीलकण्ठ ने ‘ष्णु’ (प्रस्रवण करना) धातु में ‘वि’ उपसर्ग से विष्णु शब्द सिद्ध किया है। दीप्ति अर्थ में प्रयुक्त होने वाली चुरादिगणी ‘विच्छ’ धातु से प्रकाशशील अर्थ में ‘विष्णु’ शब्द की सिद्धि की जाती है। जे.खोन्दा (ऑस्पेक्ट्स ऑफ अर्ली विष्णुइज्म) ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लिखित ‘अथ यद् विषितो, भवति तद् विष्णुः’ के आधार पर विष्णु का विस्तृत, मुक्त, स्वतन्त्र या खुला हुआ अर्थ स्वीकार करते हैं। थॉमस, ब्लाख तथा जोहान्सन विष्णु शब्द में ‘जिष्णु’ (विजयी) भाव का अर्थ ग्रहण करते हैं। हापकिन्स ने गति या चक्रमण से विष्णु का अर्थ गत्यर्थक ‘वि’ अथवा ‘वी’ धातु से माना है। मैक्डानल का भी विचार है कि ऋग्वेद में विष्णु को गमन करने या त्रेधा विचक्रमण अर्थ में ही माना गया है। विष्णुपुराण का आकार विष्णुपुराण का आकार- इस पुराण के प्रकरणों का विभाग ‘अंश’ नाम से मिलता है। उपलब्ध विष्णुपुराण में छः अंश हैं। उनमें अवान्तर प्रकरणों का विभाग अध्याय नाम से है, इसका प्रारम्भ ‘पराशर’ और ‘मैत्रेय’ के प्रश्नोत्तर के रूप में हुआ है। प्रथम अंश में सृष्टि के वर्णन की प्रधानता है। इसमें सृष्टि के आदिभाग में घटित कुछ महत्त्वपूर्ण उपाख्यान भी दिये गये हैं। सृष्टि का कारण यहाँ ब्रह्म को कहा गया है तथा उसकी शक्ति का भी विवरण दिया गया है। किस-किस की (44)**अ.प्रा. उपाचार्य, भटवली महाविद्यालय उनवल,गोरखपुर कितनी-कितनी आयु है, इसका भी आश्चर्यजनक विवरण यहाँ मिलता है। एक सृष्टि के पूरे समय को एक कल्प कहा गया है और एक कल्प के समाप्त होने पर फिर आगे सृष्टि किस प्रकार प्रारम्भ होती है, इसका भी विवरण दिया गया है। प्रलय का भी वर्णन हुआ है। इसके अनन्तर देव, दानव, मनुष्य आदि की सृष्टि बतलायी गयी है। आगे ध्रुव और प्रींद के उपाख्यान हैं। भगवान् विष्णु की महिमा तथा विभूतियों का एवं उनकी स्तुतियों का समावेश अत्यन्त मनोरम है। द्वितीय अंश में भी सृष्टि का ही विवरण है। उसी प्रसंग में भूगोल, खगोल तथा सप्तलोकों का विवरण मिलता है। भरत तथा उसके वंश का वर्णन भी आया है। जड़भरत का प्रसिद्ध उपाख्यान भी इसमें आया है। भगवान् विष्णु की स्तुति भी इसी अंश में प्राप्त है। तृतीय अंश में मन्वन्तर-वर्णन, 28 व्यासों का विवरण, व्यास द्वारा वेदों का विभाजन, वेदों का संक्षिप्त विवरण, पुराणों का विवरण, यमगीता का उल्लेख आदि साहित्य सम्बन्धी विवरण आये हैं। वर्णाश्रम तथा नैतिक धर्मों का कथन हुआ है तथा बौद्ध धर्म की उत्पत्ति का विवरण भी है। चतुर्थ अंश में मुख्य रूप से राजवंशों की उत्पत्ति और मुख्य-मुख्य राजाओं के चरितों का उल्लेख हुआ है। पंचम अंश में विष्णु भगवान् के कृष्णावतार का तथा भगवान् कृष्ण की लीलाओं का वर्णन आया है। षष्ठम् अंश में कलियुग का स्वरूप वर्णित है और कलियुग में अपने धर्म का अनुष्ठान किस प्रकार करना चाहिए, यह बतलाया गया है। आत्मा की चर्चा और देहात्मवाद का खण्डन भी इसमें मिलता है।अन्त में, विष्णुपुराण के महत्त्व का विवरण है। विष्णुपुराण की तिथि विष्णुपुराण की तिथि- विष्णुपुराण के आविर्भावकाल के विषय में विद्वानों में विभिन्न मत हैं, परन्तु कुछ ऐसे नियामक तथ्य हैं, जिनका अवलम्बन करने से हम समय का निर्देश भली-भाँति कर सकते हैं। (क) (क) कृष्णकथा की दृष्टि से भागवत तथा विष्णुपुराण में पार्थक्य यह है कि विष्णुपुराण जहाँ ध्रुव, वेन, पृथु, प्रींद, जड़भरत के चरित को संक्षेप में ही विवृत करता है, वहाँ भागवत उनका विस्तार दिखलाता है। कृष्णलीला के विषय में भी यही वैशिष्ट्य लक्ष्य है। फलतः विष्णुपुराण भागवत से प्राचीन है। (ख) (ख) ज्योतिष विषयक तथ्यों के आधार पर भी विष्णुपुराण का समय निर्णीत है। विष्णुपुराण (2/9/16) में नक्षत्रों का आरम्भ कृत्तिका से होता है 1 और वराहमिहिर (लगभग 550 ई.) के अनुसार हम जानते हैं कि प्राचीनकाल में नक्षत्रों का जो आरम्भ कृत्तिका से होता था, वह उनके समय में अश्विनी हो गया। फलतः कृत्तिकादि का प्रतिपादक विष्णुपुराण 500 ई. से प्राचीन है_ इसी प्रकार राशियों का भी उल्लेख विष्णुपुराण में अनेकत्र है (3/8/28 2 , 2/8/30, 2/8/41-42, 2/8/62-63)। ज्योतिर्विदों की मान्यता है कि सर्वप्रथम संस्कृत ग्रन्थों में याज्ञवल्क्यस्मृति में राशियों का समुल्लेख उपलब्ध है और इस ग्रन्थ का रचनाकाल द्वितीय शती है। फलतः विष्णुपुराण द्वितीय शती से प्राचीन नहीं हो सकता 3 । (ग) (ग) वाचस्पति मिश्र (814 ई.) ने योगभाष्य की अपनी टीका तत्त्ववैशारदी (2/32_ 2/52_ 2/54) में विष्णुपुराण के श्लोकों को उद्धृत किया है तथा 1/19, 1/25, 4/13 में वायुपुराण के वचन उद्धृत किये हैं। ‘स्वाध्यायाद् योगमासीत्’ इस भाष्य की टीका में वे लिखते हैं- ‘अत्रैव वैयसिको गाथामुदाहरति’ अर्थात् वाचस्पति की दृष्टि में व्यासभाष्य में उद्धृत ‘स्वाध्यायाद् योगमासीत्’ व्यास का वचन है और यही श्लोक विष्णुपुराण के 6.6.2 में मिलता है। योगभाष्य का एक वचन (3/13- तदेतद् त्रैलोक्यं आदि) न्यायभाष्य में उपलब्ध है (1/2/6)। इन प्रमाणों के आधार पर विष्णुपुराण को प्रथम शती से पूर्व मानना सर्वथा उचित प्रतीत होता है। ऊपर कलियुग के राजाओं के वर्णन प्रसंग में विष्णुपुराण गुप्तों के आरम्भिक इतिहास से परिचय रखता है, जब वे साकेत (अयोध्या), प्रयाग तथा मगध पर राज्य करते थे। यह निर्देश चन्द्रगुप्त प्रथम (320-326 ई.) के राज्यकाल में गुप्तराज्य की सीमा का द्योतक माना जाता है। फलतः विष्णुपुराण का समय 100 ई.-300 ई. तक मानना सर्वथा उचित प्रतीत होता है। (घ) (घ) विष्णुपुराण की प्राचीनता के विषय में तमिल-साहित्य के एक विशिष्ट काव्यग्रन्थ से बड़ा ही दिव्य प्रकाश पड़ता है। ग्रन्थ का नाम है- ‘मणिमेखलै’, जिसमें मणिमेखला नामक समुद्री देवी के द्वारा समुद्र में आपद्ग्रस्त नाविकों तथा पोताधिरोहियों के रक्षण की कथा बड़ी ही रुचिरता के साथ दी गयी है। ग्रन्थ का रचनाकाल ईस्वी की द्वितीय शती माना जाता है। इसमें एक उल्लेख विष्णुपुराण के विषय में निश्चयरूपेण वर्तमान है। वेंजी की सभा में विभिन्न धर्मानुयायी आचार्यों के द्वारा प्रवचन तथा शास्त्रार्थ का उल्लेख यह ग्रन्थ करता है, जिनमें वेदान्ती, शैववादी, ब्रह्मवादी, विष्णुवादी, आजीवक, निर्ग्रन्थ, सांख्य, सांख्य आचार्य, वैशेषिक व्याख्याता और अन्त में भूतवादी के द्वारा मणिमेखला को सम्बोधित किये जाने का उल्लेख है। इसी सन्दर्भ में तमिल में एक पंक्ति आती है- ‘कललवणं पुराणमोदियन्’, जिसका अर्थ है- विष्णुपुराण में पाण्डित्य (46) (47) रखने वाला व्यक्ति। इस प्रसंग में ध्यान देने की बात यह है कि संगम युग में ‘विष्णु’ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। उस देवता के निर्देश के लिए तिरुमाल तथा कललवणं विशेषण रूप से प्रयुक्त होते हैं। फलतः इस पंक्ति में विष्णुपुराण का ही स्पष्ट संकेत है, भागवत, नारदीय तथा गरुड़ जैसे वैष्णवपुराणों का नहीं। यह सम्मान्य मत है इस विषय के पण्डित डॉ. रामचन्द्र दीक्षितर् का, जिन्होंने तमिल-साहित्य तथा इतिहास का गम्भीर अनुशीलन अपने एतद्विषयक ग्रन्थ- ‘स्टडीज इन तमिल लिटरेचर ऐण्ड हिस्टरी’ में किया है। मणिमेखलै के इस उल्लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है कि तमिल देश में उस समय पुराणों का प्रवचन तथा पाठ जनता के सामने उनके चरित के उत्थान के निमित्त किया जाता था। इस समय विष्णुपुराण विशेषरूपेण महत्त्वशाली और गौरवपूर्ण होने के कारण इस कार्य के लिए चुना गया था। यह इसकी लोकप्रियता का स्पष्ट संकेत है। द्वितीय शती में प्रवचन के निमित्त चुने जाने वाले पुराण का समय उस युग से कम से कम एक शताब्दी पूर्व तो होना ही चाहिए। इससे स्पष्ट है कि कम से कम प्रथम शती में विष्णुपुराण की, अथवा उसके अधिकांश भाग की, निश्चयेन रचना हो चुकी थी। व्यास-भाष्य के साक्ष्य पर निर्धारित समय की पुष्टि इस उल्लेख से आश्चर्यजनक रूप में हो रही है। 4 भारत की भौगोलिक स्थिति भारत की भौगोलिक स्थिति- विष्णुपुराण में भारत के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि- उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥ 5 अर्थात् समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण स्थित है उसका नाम भारतवर्ष और वहाँ के निवासियों को भारती कहा जाता है। इस प्रकार का विवरण विश्व के किसी भी देश के लिए नहीं प्राप्त होता है। विष्णुपुराण में निर्दिष्ट सीमा के अनुसार भूमण्डल के नौ भेद किये गये हैं उनका विष्णुपुराण में निर्देश इस प्रकार है- भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान्निशामय। इन्द्रद्वीपःकसेरूश्च ताम्रपर्णो गभिस्तमान्॥ नागद्वीपास्तथा सौम्योगन्धर्वस्त्वथ वारुणः। अयन्तु नवमस्तेषां द्वीपः सागरसंवृतः॥ योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरात्॥ 6 अर्थात् भारत के भौगोलिक विस्तार में नौ द्वीपों का जो विवरण प्राप्त होता है वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है_ जो इस प्रकार हैं- 1-इन्द्रद्वीप, 2-नागद्वीप, 3-सौम्य, 4-गान्धर्व, 5-वारुण, 6-कशेरूमान, 7-गभस्तिमान, 8-ताम्रपर्ण (सिंहल), 9-कुमारिका। इन द्वीपों के अभिज्ञान के सम्बन्ध में यद्यपि विवाद है तथापि पण्डित गिरधर शर्मा चतुर्वेदी ने इसका अभिज्ञान किया है 7 । कुलपर्वत कुलपर्वत- विष्णुपुराण में भारत के प्रमुख पर्वतों का भी उल्लेख किया गया है- महेन्द्रोमलयः सह्यः शुक्तिमान् ऋक्षपर्वतः। विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वताः॥ 8 अर्थात् महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष या हेम पर्वत, विन्ध्य, और पारियात्र। भारतीय नदियों का विवरण भारतीय नदियों का विवरण- भारतीय नदियों को ‘विश्वस्य मातरः सर्वाः’ कहते हुए विष्णुपुराण में भारत की प्रमुख नदियों का विवरण दिया गया है- शतद्रूचन्द्रभागाद्या हिमवत्पादनिर्गता। वेदस्मृतिमुखाद्याश्च परियात्रोद्भवा मुने॥ नर्मदा सुरसाद्याश्च नद्यो विन्ध्याद्रिनिर्गताः। तापी पयोष्णी निर्विन्ध्या प्रमुखा ऋक्षसम्भवाः॥ गोदावरी भीमरथी कृष्णवेण्यादिकास्तथा। सह्यपादोद्भवा नद्यः स्मृताः पापभयापहाः॥ कृतमाला ताम्रपर्णी प्रमुखा मलयोद्भवाः। त्रिसामा चर्षिकुल्याद्या महेन्द्रप्रभवाःस्मृता॥ ऋषिकुल्या कुमाराद्याः शुक्तिमत् पादसम्भवाः। आसां नद्य उपानद्य सन्त्यन्याश्च सहस्रशः॥ 9 जनपदों का उल्लेख जनपदों का उल्लेख- विष्णुपुराण में भारत के प्रमुख जनपदों का उल्लेख निम्नांकित रूप से किया गया है- तास्विमे कुरुपाञ्चाला मध्यदेशादयो जनाः। पूर्वदेशादिकाश्चैव कामरूपनिवासिनः॥ पुण्ड्राः कलिंगा मगधा दक्षिणाद्याश्च सर्वशः। तथा परान्ता सौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्बुदा॥ कारूषा मालवाश्चैव पारियात्र निवासिनः। सौवीरासैन्धवा हूणाः साल्वाः कोशलवासिनः॥ माद्रारामास्तथाम्बष्ठा पारसीकादयस्तथा। 10 (48) (49) कर्मभूमि भारत कर्मभूमि भारत- भारत के समान पृथ्वी का कोई भी देश नहीं है। भारत कर्मभूमि है, अन्य देश भोगभूमि हैं_ विष्णुपुराण में इसका उल्लेख किया गया है- कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्ग च गच्छताम् 11 अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बुद्वीपे महामुने यतो हि कर्म भूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः॥ 12 अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपिसत्तम कदाचित् लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसञ्चयात्॥ 13 भारत वंदना भारत वंदना- विष्णुपुराण एक ऐसा राष्ट्रीय ग्रन्थ है जिसमें देवताओं द्वारा इस राष्ट्र की वंदना की गयी है और देवगण बार-बार इस भूमि में पुरुष रूप में आकर इस भूमि की महत्ता का वंदन और अभिनन्दन करते हैं- गायन्ति देवाः किलगीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् 14 धन्याः खलु ते मनुष्याः ये भारते नेन्द्रियविप्रहीणाः। 15 वंश एवं वंशानुचरित वंश एवं वंशानुचरित- पौराणिक अनुश्रुति का स्पष्ट प्रामाण्य है कि भारतवर्ष की वंशावली मनु से ही प्रारम्भ होती है। मनु से ही तीनों राजवंशों का उदय हुआ- 1. सूर्यवंश का (राजधानी अयोध्या में), 2. चन्द्रवंश का (राजधानी प्रतिष्ठानपुर-प्रयाग के पास आधुनिक झूंसी में), 3. सौद्युम्नवंश का_ जिसका शासन क्षेत्र भारत का पूर्वी प्रान्त था। राजवंशों के विषय में पार्जीटर महोदय की धारणा है कि मानव वंश द्रविड़ था, चन्द्रवंश विशुद्ध आर्य तथा सौद्युम्नवंश मुण्डा-मानख्मेर जाति का था। इस तथ्य की पुष्टि में उन्होंने जो युक्तियाँ प्रदर्शित की हैं, वे नितान्त भ्रान्त, परम्परा-विरुद्ध तथा अशुद्ध हैं। पार्जीटर ने आर्यों के विषय में लिखा है कि परम्परानुसार आर्य प्रतिष्ठानपुर से चलकर उत्तर-पश्चिम, पश्चिम और दक्षिण विजय कर वहाँ फैल गये और ययाति के समय तक उस प्रदेश पर अधिकार कर लिया, जिसे मध्यदेश कहते हैं। भारतीय अनुश्रुतियों में अफगानिस्तान से भारत पर ऐलों (आर्य) के आक्रमण का तथा पूर्व की ओर उनके बढ़ाव का कोई उल्लेख नहीं है_ विपरीत इसके द्रुह्यु लोगों का (जो ऐलों-आर्य की एक शाखा थे) भारत के बाहर जाने का उल्लेख पुराणों में मिलता है। ऐलों के विषय में पार्जीटर महोदय का कथन यथार्थ है, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु अन्य दोनों राजवंशों के विषय में उनके निष्कर्ष नितान्त भ्रमोत्पादक तथा बिल्कुल असत्य हैं। इसी प्रकार ऐलों के भारत के बाहर से आने की उनकी कल्पना भी भ्रान्त है। इस विषय में उनका स्पष्ट आधार वे लोक कथाएँ हैं, जो ऐलों के पूर्वज पुरूरवा का सम्बन्ध हिमालय के मध्यवर्ती प्रदेशों से जोड़ती हैं। इस तर्क में विशेष बल नहीं है। बात यह है कि मनु की कन्या इला का मध्यवर्ती हिमालय प्रदेश में गिरिविहार के निमित्त जाना तथा सोमसूनु बुध के साथ उसकी भेंट होना तो पुराणों के अनुकूल है, परन्तु सोम तथा बुध का न तो मध्यवर्ती हिमालय के ही मूल निवासी होने का कहीं संकेत है और न इनके भारत के कहीं बाहर से आने का निर्देश है। ये लोग विशुद्ध मध्यदेश के ही निवासी आर्य जाति के थे। इनके मूल स्थान का भारत से बाहर खोज निकालने का प्रयास सर्वथा व्यर्थ तथा भ्रान्त है। इसी प्रकार मानवों (मनुवंशियों) को द्रविड़ मानने के पार्जीटर 16 की युक्ति यह है कि मानवों का वर्णन ऐलों (आर्यों) से भिन्न जाति के रूप में हुआ है तथा वे ऐलों से पूर्व ही यहाँ भारत में निवास करते थे। आर्यों से पूर्व निवास करने वाली जाति द्रविड़ों की थी। फलतः मानव द्रविड़ जाति के ही व्यक्ति हैं, यह युक्ति भी ठीक नहीं। पुराण मानवों को कभी भी आर्यों से भिन्न जाति का संकेत नहीं करता। प्रत्युत इन दोनों में वैवाहिक सम्बन्ध होते थे, जो जाति-साम्य के ही सूचक हैं। जाति, भाषा और धर्म की दृष्टि से दोनों समान ही कहे गये हैं। द्रविड़ का मूल स्थान सुदूर दक्षिण में ही सर्वदा से रहा है, जहाँ वे आज भी प्रतिष्ठित हैं। उत्तर भारत के मध्य में आर्यावर्त के ठीक बीचोबीच अयोध्या में- द्रविड़ों की स्थिति बतलाना इतिहास की एक विकट भ्रान्ति है। मनुवंशी पुरुषों में से अनेक ऋग्वेद के मन्त्रों के द्रष्टा हैं, जो उनके आर्यत्व का स्पष्ट परिचायक है, न कि उनके ऊपर आरोपित द्रविड़त्व का। फलतः मानव भी उसी प्रकार विशुद्ध आर्य थे, जिस प्रकार ऐल लोग। सौद्युम्नों के विषय में पार्जीटर का कहना है चूँकि वे दक्षिण-बिहार तथा उड़ीसा में शासन करते थे, फलतः वे मुण्डा-मानख्मेर जाति (जंगली मुण्डा जाति) के ही थे, यह कथन अनुचित है। पुराणों का साक्ष्य इसके विरुद्ध है। ये लोग मानवों के ही एक उपकुल के रूप में वर्णित हैं, जिनके साथ इनका वैवाहिक सम्बन्ध भी विद्यमान था। केवल शासन-क्षेत्र तथा स्थिति-प्रदेश की समता पर यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा अनुचित है। ‘इक्ष्वाकुवंश’ नाम से वंश शब्द का तात्पर्य क्या है? वंश शब्द का प्रयोग (50 (51) भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न अर्थों में होता है। ‘बुद्धवंश’ पालि भाषा का एक विशिष्ट ग्रन्थ है, जिसमें ‘इक्ष्वाकुवंश’ में ‘वंश’ शब्द कुल-परम्परा के लिए प्रयुक्त नहीं है प्रत्युत शासक-परम्परा के लिए ही व्यवहृत है। सूर्यवंश के समान चन्द्रवंश भी मनु से ही आरम्भ होता है। अन्तर इतना ही है कि सूर्यवंश ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु से चलता है और चन्द्रवंश पुत्री इला से चलता है। इला का विवाह चन्द्रपुत्र बुध के साथ सम्पन्न हुआ और इसीलिए यह वंश चन्द्रवंश के नाम से प्रख्यात है। मन्वन्तर काल गणना मन्वन्तर काल गणना- भारतीय इतिहास दृष्टि चक्रीय सिद्धान्त को स्वीकार करती है। एक मन्वन्तर की काल गणना बतलाते समय पुराण का एक बहुचर्चित वाक्य है- ‘मन्वन्तरं चतुर्युगानां साधिकाह्येक सप्ततिः।’ एक मन्वन्तर 71 चतुर्युगी का होता है। अनेक पुराणों में 71 चतुर्युगी का काल वर्षों में गिनाया गया है- त्रिशतकोटयस्तु सम्पूर्णाः सङ्ख्याताः सङ्ख्यायद्विज। सप्तषष्टिस्तथान्यानि नियुतानि महामुने॥ विंशतिस्तु सहस्राणि कालोऽयमधिकं विना। मन्वन्तरस्य सङ्ख्येयं मानुषैर्वत्सरैर्द्विज॥ 18 मन्वन्तर के नाम मन्वन्तर के नाम- 19 चौदह मन्वन्तरों के नाम इस प्रकार हैं- स्वायम्भुव मनु, स्वारोचिष मनु, उत्तम मनु, तामस मनु, रैवत मनु, चाक्षुष मनु, वैवस्वत मनु, सावर्णि मनु, दक्ष सावर्णि मनु, ब्रह्म सावर्णि मनु, धर्म सावर्णि मनु, रुद्र सावर्णि मनु, देव सावर्णि मनु, और इन्द्र सावर्णि मनु। प्रत्येक मन्वन्तर में पाँच अधिकारी होते हैं। इन अधिकारियों के रूप में भगवान् विष्णु की ही शक्ति समर्थ तथा क्रियाशील रहती है, और इन अधिकारियों को विष्णुपुराण स्पष्ट शब्दों में विष्णु की विभूति मानता है। 20 ‘विष्णु’ शब्द की निष्पत्ति ‘विश् प्रवेशने’ धातु से होती है और इसलिए यह समग्र विश्व जिस परमात्मा की शक्ति से व्याप्त है, वही विष्णु नाम से अभिहित किये जाते हैं। 21 इन अधिकारियों के नाम विष्णुपुराण 22 के अनुसार हैं- मनु, सप्तर्षि, देव, देवराज इन्द्र, मनुपुत्र। इन अधिकारियों का कार्य बड़ा ही विशिष्ट तथा महत्त्वपूर्ण है। विष्णुपुराण के कथनानुसार जब चतुर्युग समाप्त हो जाता है, तब वेदों का विप्लव लोप हो जाता है। उस समय वेदों का प्रवर्तन नितान्त आवश्यक हो जाता है, और इस राष्ट्रहित के कार्य निमित्त ऋषि लोग स्वर्ग से भूतल पर आकर उन उच्छिन्न तथा विलुप्त वेदों का प्रवर्तन करते हैं। अतः ये ऋषि प्रत्येक मन्वन्तर में वेदों के प्रवर्तक रूप से अधिकारी हैं। 23 निष्कर्ष यह है कि पुराण मनु को एक विशिष्ट दीर्घकाल के लिए सम्राट तथा शास्ता मानता है। मनु आदि पाँचों व्यक्ति भगवान् विष्णु के सात्विक अंश हैं, जिनका कार्य ही है जगत् की स्थिति करना- मनवो भूमजः सेन्द्रा देवाः सप्तर्षयस्तथा। सात्विकोऽंशः स्थितिकरो जगतो द्विजसत्तम॥ 24 फलतः जगत् के संरक्षण के कार्य में सहायक जितने भी अधिकारी होते हैं, वे मनु के साथ ही उत्पन्न होते हैं_ अपना विशिष्ट कार्य सम्पादित करते हैं, जिससे लोक में सुव्यवस्था की शीतल छाया मानवों का मंगल करती है। इस प्रकार मन्वन्तर की कल्पना लोक मंगल की भावना का एक जाग्रत प्रतीक है। बिना सुव्यवस्था हुए विश्व का कल्याण हो नहीं सकता और मन्वन्तर सुव्यवस्था के निर्धारण का एक सुचारु साधन है- यही उसका मांगलिक पक्ष है। सन्दर्भ सन्दर्भ- 1. कृत्तिकादिषु ऋक्षेषु विषमेषु च यद्दिवः। दृष्टार्कपतितं ज्ञेयं तद् गाङ्ग दिग्गजोज्झितम्॥-विष्णु., 2/9/16 2. अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः। ततःकुम्भं च मीनं च राशे राश्यन्तरं द्विज॥-विष्णु., 2/8/28 3. द्रष्टव्य-क्तण् भ्ं्रंतं का लेख श्ज्ीम कंजम वटिपेदन च्नतंदंश् (भण्डारकर पत्रिका, भाग 18, 1936-37 में)। 4. द्रष्टव्य- इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टर्ली, भाग 7, कलकत्ता, 1931, पृ. 370-371 में ‘दी एज ऑव दी विष्णुपुराण’ शीर्षक टिप्पणी। 5. विष्णुपुराण द्वितीय अंक, अध्याय 3 6. वही 7. पं. गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, पुराण परिशीलन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, विक्रमाब्द 2027, पृ. 311-312 8. विष्णुपुराण, द्वितीय अंक, अध्याय 3 9. वही 10. वही 11. विष्णुपुराण, 2/3/2 12. विष्णुपुराण, 2/3/22 13. विष्णुपुराण, 2/3/23 14. विष्णुपुराण, 2/3/4 15. विष्णुपुराण, 2/3/26 16. पार्जीटरः एनशिएण्ट इण्डियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन, पृ. 288 (52) (53) 17. रायकृष्णदास - पुराणों की इक्ष्वाकु वंशावली, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, काशी, वर्ष 56, सं. 2008, पृ. 234-238 18. विष्णुपुराण- 1/3/20-21 19. विष्णुपुराण, 3/1 तथा 3/2 20. विष्णुपुराण, 3/14/6 21. तत्रैव, 3/1/45 22. विष्णुपुराण, 3/2/49 23. विष्णुपुराण, 3/2/46-47 चतुर्युगान्ते वेदानां जायते किल विप्लवः प्रवर्तयन्ति तानेत्य भुवं सप्तर्षयो दिवः कृते कृते स्मृतेर्विप्र-प्रणेता जायते मनुः देवा यज्ञभुजस्ते तु यावन्मन्वन्तरं तु तत्। 24. विष्णुपुराण, 3/2/54 श्रीविष्णुपुराण में वर्णित नारी और शूद्र्र्र पौराणिक राजवंश संपादित करें डॉ. प्रदीप कुमार राव* सुबोध मिश्र** बौद्ध युग से पूर्वकाल की भारतीय इतिहास रचना एक कठिन चुनौती है। पुरातात्त्विक उत्खननों से हड़प्पा सभ्यता सहित ईसा पूर्व के लगभग तीन हजार वर्ष के इतिहास का किंचित् पक्ष उद्घाटित हुआ है। यद्यपि कि ईसा पूर्व की सहस्राब्दियों का मानव जीवन भारत के धार्मिक साहित्य में संकलित है_ वैदिक साहित्य, पुराण, उपनिषद् सहित ब्राह्मण ग्रन्थों में मानव सभ्यता का कालातीत इतिहास सुरक्षित है, किन्तु दुर्भाग्यवश इन धार्मिक साहित्यों के संकलनकर्ताओं द्वारा अनेक क्षेपक तथा घटनाओं को रोचक बनाने के प्रयास ने धार्मिक साहित्यों में ऐतिहासिक तथ्यों को कथानक रूप में परिवर्तित कर दिया_ तथापि ऐतिहासिक शोधपूर्ण दृष्टि से इन धार्मिक साहित्यों से इतिहास रचना कठिन होते हुए भी असम्भव नहीं है। मानव जाति का वर्गीकरण, वर्ग एवं वर्णों में क्रमशः विभाजन, जातीय व्यवस्था की उत्पत्ति एवं जातिगत वर्गीकरण की पृष्ठभूमि वैदिक साहित्य, पुराण एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त होती है। राज-वंशावलियाँ भी इन साहित्यिक साक्ष्यों में सुरक्षित हैं। अथर्ववेद के अन्तिम भाग, ऐतरेय, शतपथ, पंचविश आदि ब्राह्मण ग्रन्थ, वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य सहित अन्य उपनिषद्, पुराण, रामायण तथा महाभारत आदि भारतीय धार्मिक साहित्य ऐतिहासिक काल के पूर्व की राज-वंशावलियों का अनेकत्र उल्लेख करते हैं। किन्तु पौराणिक वंशावलियाँ बहुत अस्त-व्यस्त हैं। पुराणों में कोई स्थिर सम्वत् नहीं है। परन्तु प्राचीन सूर्यवंश और चन्द्रवंश का वर्णन प्रायः सभी पुराणों में है। पुराणों में पीढ़ियों की संख्या और नाम में अन्तर मिलता है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि पुराणों में राज्यों के उत्तराधिकारियों की सूची मात्र प्रस्तुत की गई है, न कि पिता के बाद पुत्रों की वंशावलियाँ। अतः सभी उपनिषदों, पुराणों और महाभारत तथा वाल्मीकि रामायण के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर ये वंशावलियाँ एक स्वरूप पाती हैं, इन समस्त साहित्यों में बिखरे इन वंशावलियों को एक साथ जोड़कर क्रमबद्ध करना, भौगोलिक राज्य सीमाओं के साथ स्थापित करना तथा इनके कालक्रम का निर्धारण निर्विवाद नहीं है। पुरातात्त्विक स्रोतों से इनकी पुष्टि अभी संभाव्य नहीं है। फिर भी उपर्युक्त साहित्यों में उल्लिखित राज-वंशावलियों का अध्ययन ऐतिहासिक वंशावलियों को समझने में सहायक होगा। पौराणिक ग्रन्थ आदि पुरुष के रूप में मनु का उल्लेख करते हैं। पुराणों में 14 मनु वर्णित हैं-स्वयंभुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षषु, वैवस्वत, सावर्णि, दक्ष सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, दैरसावर्णि और इन्द्रसावर्णि। 1 इनमें प्रथम सात मनु उत्पन्न हो चुके थे और शेष सात सावर्णि मनु भविष्यकालीन माने गये हैं। 2 स्वयंभुव मनु मनुर्भरत वंश के आदि पुरुष हैं। पुराणों के अनुसार स्वयंभुव मनु संसार के सर्वप्रथम मनु हैं_ अर्थात् मनुर्भरत वंश आदि राजवंश है। स्वयंभुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा 3 से दो पुत्र 4 और तीन पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। 5 विष्णु पुराण में केवल दो पुत्रियाँ प्रसूति और आकुति का उल्लेख हुआ है। 6 दोनों पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा तीनों पुत्रियाँ क्रमशः आकुति, देवहूति और प्रसूति नाम से विख्यात हुए। पुराण पाठों में कहीं-कहीं प्रियव्रत और उत्तानपाद को स्वयंभुव मनु का पौत्र तथा वीर का पुत्र कहा गया है। 7 किन्तु यह पाठ भ्रामक लगता है। श्रीमद्भागवत का उल्लेख 8 कि ये दोनों स्वयंभुव मनु के पुत्र थे, की पुष्टि ही अन्य साक्ष्यों से होती है। प्रियव्रत वंशावली स्वयंभुव मनु के पुत्र व प्रियव्रत अत्यन्त भगवद्भक्त थे। पिता स्वयंभुव के द्वारा राज्यशासन की आज्ञा पर प्रियव्रत ने गृहस्थ आश्रम और राज्य स्वीकार किया। 9 तदनन्तर प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री वर्हिष्मती से विवाह किया। 10 उनकी दूसरी पत्नी का भी उल्लेख मिलता है। 11 विष्णु पुराण से सूचना मिलती है कि प्रियव्रत के सम्राट और कुक्षि नामक दो कन्या तथा अग्नीघ्र, अग्निबाहु, वपुष्मान, द्युतिमान, मेघा, मेघातिथि, भव्य, सवन, पुत्र, ज्योतिष्मान नामक दस पुत्र थे। 12 श्रीमद्भागवत पुराण में प्रियव्रत की एक पुत्री उर्जस्वती का उल्लेख मिलता है, जिसका विवाह शुक्राचार्य से हुआ और इन्हीं से देवयानी का जन्म हुआ था। 13 श्रीमद्भागवत प्रियव्रत के दस पुत्रों का उल्लेख करता है किन्तु यहाँ इन दस पुत्रों के नाम आग्नीन्ध्र, इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि दिये गये हैं। 14 मन्वन्तर वर्णन के सन्दर्भ में हरिवंश पुराण में इन दस पुत्रों को स्वयंभुव मनु का पुत्र कहा गया है। 15 वस्तुतः ये मनु के पौत्र ही थे, पुत्र नहीं। 16 प्रियव्रत की (61) *प्राचार्य, महाराणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जंगल धूसड़, गोरखपुर **प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास विभाग, महाराणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जंगल धूसड़, गोरखपुर दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए जो अपने नाम वाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए। 17 प्रियव्रत और वर्हिष्मती से उत्पन्न दस पुत्रों में से तीन पुत्र कवि, महावीर और सवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए तथा सात पुत्रों को प्रियव्रत ने सात महाद्वीपों का अधिपति बनाया। 18 श्रीमद्भागवत पुराण एवं विष्णु पुराण में पुत्रनाम की वैभिन्नता के साथ द्वीपों के समान नाम का उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण के अनुसार प्रियव्रत ने आग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप, मेधातिथि को प्लक्ष द्वीप, वपुष्मान को शाल्मल द्वीप, ज्योतिष्मान को कुश द्वीप, द्युतिमान को कौच्च द्वीप, भव्य को शाक द्वीप तथा सवन को पुष्कर द्वीप का अधिपति बनाया। 19 इन सात द्वीपों की ठीक-ठाक पहचान एक कठिन समस्या है। प्रियव्रत पुत्रों में बड़े पुत्र आग्नीन्ध्र के नौ पुत्र हुए। इनके नाम-नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व, और केतुमाल है। 20 नाभि और उनकी पत्नी मरूदेवी 21 से ऋषभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जैन इसी ऋषभ को आदि तीर्थंकर मानते हैं। 22 ऋषभ के नाम पर उनके राज्य का नाम (जम्बूद्वीप) अजनाभ खण्ड पड़ा। 23 पुराणों में ऋषभ, विपुल-कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम, शूरवीरता से युक्त होने के साथ-साथ योगमाया एवं ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न माने गये हैं। 24 ऋषभ को सर्वक्षत्रों का पूर्वज और आदि देव कहा गया है।25 देवराज इन्द्र की कन्या जयन्ती से ऋषभ का विवाह हुआ। ऋषभ और उनकी पत्नी जयन्ती से सात सौ पुत्र उत्पन्न हुए। 26 श्रीमद्भागवत पुराण में ऋषभ के उन्नीस पुत्रों के नाम मिलते हैं-भरत, कुशावर्त, इलावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रपरक कीकट, कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्लायन आर्विहोत्र, द्रुमिल, चमस, करभाजन। 27 इनमें सबसे बड़े भरत थे। भरत भी योगी और अत्यन्त गुणवान हुए। इन्हें जड़ भरत भी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार इन्हीं के नाम पर अजनाभखण्ड को लोग भारतवर्ष कहने लगे। 28 भरत का पुत्र सुमति हुआ। सुमति ने ऋषभदेव के मार्ग का अनुसरण किया। जैन इन्हें द्वितीय तीर्थंकर मानते हैं। सुमति के बाद पुराणों में केवल इनकी वंशावलि मिलती है। इन बाद के शासकों के किसी घटनाक्रम का वर्णन नहीं मिलता। सुमति का पुत्र इन्द्रद्युम्न से परमेष्ठी तथा परमेष्ठी से प्रतिहार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रतिहार के प्रतिहर्ता नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रतिहर्ता का पुत्र भव, भव का पुत्र उद्गीथ और उद्गीथ का पुत्र प्रस्ताव हुआ। प्रस्ताव से पृथु, पृथु से नक्त, नक्त से गय, गय से नर, नर से विराट, विराट से महावीर्य, महावीर्य से धीमान, धीमान से महान्त, महान्त से मनस्यु, मनस्यु से त्वष्टा, त्वष्टा से विरज, विरज से रज, रज से शतजित, उत्पन्न हुए। 29 शतजित के सौ पुत्र हुए जिनमें विश्वग्योति सबसे बड़ा पुत्र था। इसके सौ पुत्रों से आगे की वंशावलि चली जिसका उल्लेख नहीं मिलता। इसी वंश ने कृतत्रेतादियुगक्रम से इकहत्तर युगपर्यन्त इस भारत भूमि पर शासन किया। 30 उत्तानपाद शाखा स्वयंभुव मनु के द्वितीय पुत्र उत्तानपाद की सुरुचि और सुनीति नामक दो पत्नियाँ थीं। 31 सुरुचि नामक पत्नी उन्हें अधिक प्रिय थी। सुरुचि ने उत्तम तथा सुनीति ने ध्रुव नामक पुत्र को जन्म दिया। 32 ध्रुव के बाद की वंशावलि विष्णु पुराण तथा हरिवंश पुराण में लगभग एक जैसी है किन्तु श्रीमद्भागवत पुराण में ध्रुव की वंशावलि भिन्न है। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण के अनुसार-ध्रुव के शिष्टि अथवा श्लिष्टि और भव्य नामक पुत्र हुए। 33 शिष्टि की पत्नी सुच्छाया ने रिपु, रिपुञ्जय, पुण्य, वृकल तथा वृकतेजा नामक पाँच पुत्रों को जन्म दिया। रिपु की पत्नी बृहती के गर्भ से चाक्षुष का जन्म हुआ। चाक्षुष के पुत्र मनु हुए। यही मनु छठवें मन्वन्तर के अधिपति हुए। 34 मनु की पत्नी नड्वला ने दस पुत्रों-कुरु 35 अथवा उरु 36 शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवान, कवि, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुद्युम्न तथा अभिमन्यु को जन्म दिया। कुरु के अङ्ग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा, तथा गय 37 अथवा शिवि 38 नामक छः पुत्र हुए। अङ्ग की पत्नी सनीथा से वेन का जन्म हुआ। पुराणों के अनुसार वेन अत्याचारी शासक हुआ तथा ऋषियों के श्राप से मृत्यु को प्राप्त हुआ। तदनन्तर राजा के अभाव को पूरा करने हेतु ऋषियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन कर पृथु को उत्पन्न किया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पृथु अन्य भाइयों की शाखा का कोई वंशज था जिसे उत्तराधिकार दे दिया गया। पृथु के अन्तर्धान और पालित 39 अथवा वादी 40 नामक दो पुत्र हुए। अन्तर्धान का पुत्र हविर्धान हुआ। हविर्धान के छः पुत्र प्राचीनबर्हि, शुल्क अथवा शुक्र 41 गय, कृष्ण, व्रज, अजिन हुए। प्राचीनबर्हि के दस पुत्र हुए जिनका प्रचेसा नाम से उल्लेख हुआ है। प्रचेसा और सोम से दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ तथा दक्ष प्रजापति की साठ कन्याओं से वंशवृक्ष का आगे प्रसार हुआ। श्रीमद्भागवत पुराण 42 में ध्रुव के वंशजों के भिन्न नाम मिलते हैं। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार ध्रुव के दो पुत्र उत्कल और वत्सर हुए। उत्कल के धार्मिक होने के कारण वत्सर शासक हुआ। वत्सर के पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, उर्ज, वसु और जय नाम के छः पुत्र हुए। पुष्पार्ण के प्रभा और दोषा नाम की दो पत्नियाँ थीं। प्रभा के प्रातः, मध्यान्दिन और सायं तथा दोषा के प्रदोष, निशीथ और व्युष्ट (62) (63) नामक तीन-तीन पुत्र हुए। चक्षु की पत्नी नड्वला से पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान, ऋतु, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्रि, प्रद्युम्न, शिवि और उल्मूक नामक बारह पुत्रों का जन्म हुआ। उल्मूक के अङ्ग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय नामक छह पुत्र हुए। 43 अङ्ग की पत्नी सुनीथा ने वेन को जन्म दिया और वेन की दाहिनी भुजा से पृथु उत्पन्न हुए। पृथु के पाँच पुत्रों विजिताश्व, हर्यक्ष, धूम्रकेश, वृक और द्रविण में विजिताश्व राजा हुए। 44 विजिताश्व को अन्तर्धान भी कहा गया है। 45 अन्तर्धान की पत्नी नभस्वती से हविर्धान का जन्म हुआ। हविर्धान के बर्हिषद्, गय, शुल्क, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नामक छः पुत्र हुए। 46 बर्हिषद् प्राचीन बर्हि नाम से भी विख्यात हुए। प्राचीन बर्हि की पत्नी शतद्रुति के गर्भ से प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए जो धर्मज्ञ एवं तपस्वी थे। वैवस्तमनु का राजवंश और वंश विस्तार विवस्वान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु सातवें मनु थे। 47 इनसे पूर्व के छः मनु स्वयंभुव वंश में थे। वैवस्त मनु से एक नया वंश चला और इनके काल से त्रेतायुग आरम्भ हुआ। विष्णु पुराण 48 के अनुसार ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति उत्पन्न हुए। दक्ष से अदिति हुई तथा अदिति से विवस्वान तथा विवस्वान से मनु पैदा हुए। जबकि श्रीमद्भागवत पुराण में 49 उल्लेख हुआ है कि महाप्रलय के समय केवल परमपुरुष बचे। परमपुरुष से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्मा से मरीचि तथा मरीचि से कश्यप का जन्म हुआ। मरीचि की पत्नी दक्षनन्दिनी अदिति से विवस्वान (सूर्य) का जन्म हुआ। विवस्वान की पत्नी संज्ञा से मनु पैदा हुए। हरिवंश पुराण में भी कश्यप की पत्नी दक्ष की पुत्री से विवस्वान का जन्म कहा गया है। 50 वस्तुतः वैवस्वत मनु भारत के प्रथम ऐतिहासिक राजा थे जो विवस्वान अर्थात् सूर्य से उत्पन्न हुए थे। कतिपय विद्वान इसका अर्थ यह लगाते हैं कि मनु जिस शाखा में उत्पन्न हुए थे, वह सूर्य उपासक थे। 51 वैवस्वत मनु प्रथम राजा, प्रथम कर ग्रहण कर्ता, प्रथम दण्ड विधान निर्माता तथा प्रथम नगर निर्माता थे। 52 वैवस्वत मनु ने ही अयोध्या नगरी की स्थापना की थी। 53 महाभारत में भीष्म कहते हैं कि हमने सुन रखा है कि पूर्व काल में राजा के न रहने पर मात्स्यन्याय 54 की स्थिति थी 55 तब सबने मिलकर नियम बनाया कि हम लोगों में जो भी निष्ठुर बोलने वाला, भयानक दण्ड देने वाला, परस्त्रीगामी तथा पराये धन का अपहरण करने वाला हो ऐसे सब लोगों को समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिए। किन्तु यह सम्भव न हो सका और तब दुःख से पीड़ित प्रजा के आग्रह पर ब्रह्माजी ने मनु को राजा बनाया। वस्तुतः यह उल्लेख इस बात का सूचक है कि प्रारम्भ में असभ्य मानव ने जब सभ्यता के जीवन में प्रवेश किया तो परिवार और अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए राज्य की उत्पत्ति की, और प्रथम राजा मनु हुए। इन्हीं वैवस्वत मनु के नौ अथवा दस पुत्र एवं एक पुत्री हुइ र्56 _ नौ पुत्रों से सूर्यवंश की नौ शाखाएँ तथा पुत्री से चन्द्रवंश की शाखा उत्पन्न हुई। पुराणों के अनुसार मनु द्वारा मित्र और वरुण की उपासना से इला नामक पुत्री उत्पन्न हुई थी तथा मित्र वरुण के वरदान से वह मनु का पुत्र सुद्युम्न बनी। 57 पुराणों में मनु पुत्रों के नाम एवं क्रम में पर्याप्त अन्तर है। हरिवंश वायु ब्रह्माण्ड मत्स्य विष्णु महाभारत भागवत 1. इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु वेन इक्ष्वाकु 2. नाभाग नभाग नृग कृशनाभ नृग धृष्णु नृग 3. धृष्णु धृष्ट धृष्ट अरिष्ट धृष्ट नारिष्यन्त शर्याति 4. शर्याति शर्याति शर्याति धृष्ट शर्याति नाभाग दिष्ट 5. नरिष्यन् नरिष्यन्त नरिष्यन्त नरिष्यन्त नरिष्यन्त इक्ष्वाकु धृष्ट 6. प्रांशु प्रांशु प्रांशु करुष प्रांशु करुष करुष 7.नाभागारिष्ट नाभागारिष्ट नाभागारिष्ट शर्याति नाभाग शर्याति नरिष्यन्त 8. करुष करुष करुष पृषध्र दिष्ट पृषध्र प्रषध्र 9. पृषध्र पृषध्र पृषध्र नाभाग करुष नाभागारिष्ट नभग 10. - - - - पृषध्र - कवि समस्त ग्रन्थों को एक साथ रखकर देखने पर ज्ञात होता है कि नाभागादिष्ट या नाभागारिष्ट का शुद्ध नाम नाभानेदिष्ट था। 58 ग्रंथों में इक्ष्वाकु मनु के ज्येष्ठ और प्रमुख पुत्र माने गये हैं। इक्ष्वाकु अयोध्या के राजा हुए। इक्ष्वाकु सूर्य वंश के प्रधान कुल पुरुष के रूप में प्रसिद्ध हुए तथा इस कुल की अनेक शाखाएँ चलीं। यद्यपि कि मनु के शेष सभी…

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