Sunday 12 February 2017

क्या हम वास्तव मे ब्रह्मर्षि हैं?

क्या हम वास्तव मे ब्रह्मर्षि हैं?
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ऋषि भारतीय परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले जनों को कहा जाता है ।

ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति 'ऋष' है जिसका अर्थ 'देखना' होता है ।

ऋषि के प्रकाशित कृतियों को आर्ष कहते हैं जो इसी मूल से बना है, इसके अतिरिक्त दृष्टि (नज़र) जैसे शब्द भी इसी मूल से हैं।

ब्रह्मर्षि का अर्थ हुआ ब्रह्म को देखने वाला समझने वाला वैसा ऋषि जो ब्रहाममय हो जाए उसका आचरण ब्रह्म के सामन हो ।

किन्तु क्या हम मे से कोई ऐसा है?  ब्रह्म ऋषि तो दूर ऋषि कहलाने के भी लायक नही फिर ब्रह्मर्षि नाम का ढोल पीटने का क्या अर्थ है?

वैसे तो आज बहुत कम लोग है जो ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी है फिर भी गर जन्माधारित वर्ण व्यवस्था को ही मान कर चले तो ब्राह्मण केवल ब्राह्मण कहने मे क्या आपत्ति है?

आज न तो हम लोग इकलौते ऐसे ब्राह्मण समुदाय है जिसके अकेले के  पास जमीन है न हम राजा है न जमीन्दार फिर भूमिहार लिखने का भी औचित्य हमे समझ नही आता।

अब समय है याचक अयाचक कन्नौजिया सारस्वत गौड चितपावन भूमिहार  त्यागी आदि अलग अलग नामो को छोडकर केवल एक ध्वज ब्राह्मण ध्वज के नीचे आने की क्योकि आज कर्म और धर्म से सब लगभग एक एक जैसे है क्योकि अब सब का एक ही धर्म कर्म नजर आता है अर्थोपार्जन।

अब सोचने वाली बात ये है कि दण्डी स्वामी सहजानंद जी ने हमारे लिए ब्रह्मर्षि शब्द क्यो दिया?

तो मित्रो वो एक आदर्श शब्द से परिचित करवा कर गये है ताकि हम अपने पुरखो के पौरूष को याद रख सके और उन्हे आदर्श मान उनके जैसा बनने की चेष्टा करे एवम् उनकी मान मर्यादा को ध्यान मे रख आचरण करे।

किन्तु आज तो बात ही उलट है
ब्रह्म को जानने वाले ब्रह्मा और वो सृजन के कारक है । किन्तु मै दुःख के साथ कह रहा हू कि हमारे समाज के 99 प्रतिशत लोग विध्वंस के कार्यो मे संलग्न है।

ब्रह्म से जन्म ले ब्रह्म द्वारा पालित अंत मे ब्रह्म मे लीन हो जाते किन्तु आज भूमिहार युवा कलंक के साथ जन्म लेते (क्योकि राजनेताओ और वामपंथी लेखको के महिमा से हमे और राजपूतो को जन्मजात सामन्त सिद्ध करने का प्रयत्न निरंतर चल रहा है ) तो सामन्त का अर्थ वामियो की भाषा मे अत्याचारी है अर्थात् जन्मजात अत्याचारी का कलंक ले जन्म लेते मन मे जमीन्दार और शासक का झूठा अभिमान ले पलते और दंभ के दलदल मे फंस विनाश को प्राप्त हो जाते; इसी को उखाड फेंकने के लिए स्वामी जी ने ये शब्द दिया था ताकि तुम समझो बातो को आने वाले खतरो को और अपने पूरखो द्वारा प्रदत्त वास्तविक आचरण को आत्मसात कर कर्म से इन वामियो को गलत सिद्ध कर दो ।
समाज के लेखको को आज जय रणवीर जय रणवीर के स्थान पर दिनकर भृगु भार्गव जमदग्नि संकृति वशिष्ठ अगस्त्य आदि के गुणगान मे लिखना चाहिए।

आज जरूरत है समाज के सृजनात्मक स्वरूप से राष्ट्र  और जनसाधारण को अवगत करवाने की अन्यथा वामियो की चाल से अपनी स्थिति का अनुमाण स्वयम् लगा ले।

अरे अपनी और अपने कर्मो के जय जयकार करवाने का शौक क्षत्रियो को होता था ऋषियो को नही । ऋषि और ऋषि कुमारो का जय जयकार तो जनसामान्य से लेकर देव और दानव तक स्वयम् ऋद्धा से किया करते थे।

हमारा आचरण ऐसा हो कि आज जनता हृदय से हमे सम्मान दे और हमारी लेखनी को भी उसी दिशा मे कार्य करना चाहिए तभी हम ब्रह्मर्षि कहलाने के अधिकारी है

धन्यवाद्

।।जय जय महाकाल।।

।।बाबू अंबुज शर्मा।।
।।मगध पुत्र।।

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