Monday 13 February 2017

SANTOSH KATHA SAGAR I संतोष कथा सागर

SANTOSH KATHA SAGAR I संतोष कथा सागर

Friday, January 16, 2015

STORIES FROM EPICS-SCRIPTURES::शास्त्र कथाएँ

STORIES FROM EPICS-SCRIPTURES::शास्त्र कथाएँ  

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM By:: Pt. Santosh  Bhardwaj  

santoshkipathshala.blogspot.com   santoshsuvichar.blogspot.com    santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com   hindutv.wordpress.com   bhagwatkathamrat.wordpress.com

MYTHOLOGICAL CHURNING OF OCEAN समुद्र मंथन :: रैवत मन्वन्तर में पाँचवें मनु थे रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। छटे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुक थे। इन्द्र थे मन्त्रद्रुम जगतपति भगवान् ने उस समय वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम के अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने ही समुद्र मन्थन करके देवताओं को अमृत पिलाया था। वे ही कच्छप रूप धारण करके मन्दराचल को मथानी बनाकर उसके आधार बने थे।

किसी समय भगवान्  शंकर के अंशभूत महर्षि दुर्वासा पृथ्वी पर विचर रहे थे। घूमते-घूमते वे एक मनोहर वन में गए। वहाँ एक विद्याधर सुंदरी हाथ में पारिजात पुष्पों की माला लिए खड़ी थी, वह माला दिव्य पुष्पों की बनी थी। उसकी दिव्य गंध से समस्त वन-प्रांत सुवासित हो रहा था। दुर्वासा ने विद्याधरी से वह मनोहर माला माँगी। विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके वह माला दे दी। माला लेकर उन्मत्त वेषधारी मुनि ने अपने मस्तक पर डाल ली और पुनः पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे।

इसी समय मुनि को देवराज इंद्र दिखाई दिए, जो मतवाले ऐरावत पर चढ़कर आ रहे थे। उनके साथ बहुत-से देवता भी थे। मुनि ने अपने मस्तक पर पड़ी माला उतार कर हाथ में ले ली। उसके ऊपर भौरे गुंजार कर रहे थे। जब देवराज समीप आए तो महर्षि दुर्वासा ने वह माला उनके ऊपर फेंक दी। देवराज ने उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने उसकी तीव्र गंध से आकर्षित हो सूँड से माला उतार ली और सूँघकर पृथ्वी पर फेंक दी। यह देख दुर्वासा क्रोध से जल उठे और देवराज इंद्र से गुस्से में आकर बोले कि हे इंद्र! ऐश्वर्य के घमंड से तुम्हारा ह्रदय दूषित हो गया है। तुम पर जड़ता छा रही है, तभी तो मेरी दी हुई माला का तुमने आदर नहीं किया है। वह माला नहीं, श्री लक्ष्मी जी का धाम थी। माला लेकर तूमने प्रणाम तक नहीं किया। इसलिए तुम्हारे अधिकार में स्थित तीनों लोकों की लक्ष्मी शीघ्र ही अदृश्य हो जाएगी।' यह शाप सुनकर देवराज इंद्र घबरा गए और तुरंत ही ऐरावत से उतर कर मुनि के चरणों में पड़ गए। उन्होंने दुर्वासा को प्रसन्न करने की लाख चेष्टाएँ कीं, किंतु महर्षि टस-से-मस न हुए। उल्टे इंद्र को फटकार कर वहाँ से चल दिए। इंद्र भी ऐरावत पर सवार हो अमरावती को लौट गए। तबसे तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो गई। इस प्रकार त्रिलोकी के श्री हीन एवं सत्वरहित हो जाने पर दानवों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी। देवताओं में अब उत्साह नहीं रह गया था। सबने हार मान ली। फिर सभी देवता ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी ने उन्हें भगवान्  विष्णु की शरण में जाने की सलाह दी तथा सबके साथ वे स्वयं भी क्षीर सागर के उत्तर तट पर गए। वहाँ पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने बड़ी भक्ति से भगवान्  विष्णु का स्तवन किया। भगवान् प्रसन्न होकर देवताओं के सम्मुख प्रकट हुए। भगवान् विष्णु ने देवताओं से कहा कि यदि कोई बड़ा काम करना हो तो शत्रुओं से भी मेल मिलाप कर लेना चाहिए। यह आवश्यक है कि काम बन जाने के बाद उनके साथ साँप और चूहे वाला बर्ताव के सकते हैं। [श्री मद्भागवत 6-8-20]

उनका अनुपम तेजस्वी मंगलमय विग्रह देखकर देवताओं ने पुनः स्तवन किया, तत्पश्चात भगवान्  ने उन्हें क्षीरसागर को मथने की सलाह दी और कहा, ''इससे अमृत प्रकट होगा। उसके पान करने से तुम सब लोग अजर-अमर हो जाओगे, किंतु यह कार्य है बहुत दुष्कर अतः तुम्हें दैत्यों को भी अपना साथी बना लेना चाहिए। मैं तो तुम्हारी सहायता करूँगा ही...।

यह बात जब देवताओं ने असुरों के राजा बलि को बताई तो वे भी समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। देवगणों ने दैत्यों से संधि करली और अमृत-प्राप्ति के लिए प्रयास करने लगे। वे भाँति-भाँति की औषधियाँ लाएँ और उन्हें क्षीरसागर में छोड़ दिया, फिर सोने के मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकि नागराज को नेती (-रस्सी) बनाकर बड़े वेग से समुद्र मंथन का कार्य आरंभ किया।देवतागण वासुकि के मुँह की ओर चले तो अहंकारी राक्षसों को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने स्वयं को नागराज वासुकि के मुँख की ओर लगाया। देवताओं  ने नागराज वासुकि की पूँछ की ओर लगना स्वीकार कर लिया।मंथन करते समय वासुकि की निःश्वासाग्नि से झुलसकर सभी दैत्य निस्तेज हो गए और उसी निःश्वास वायु से विक्षिप्त होकर बादल वासुकि की पूँछ की ओर बरसते थे, जिससे देवताओं की शक्ति बढ़ती गई। भक्त वत्सल भगवान् विष्णु स्वयं कच्छप रूप धारण कर क्षीरसागर में घूमते हुए मंदराचल के आधार बने हुए थे। वे ही एक रूप से देवताओं में और एक रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने में भी सहायता देते थे तथा एक अन्य विशाल रूप से, जो देवताओं और दैत्यों को दिखाई नहीं देता था, उन्होंने मंदराचल को ऊपर से दबा रखा था। इसके साथ ही वे नागराज वासुकि में भी बल का संचार करते थे और देवताओं की भी शक्ति बढ़ा रहे थे। समुद्र मंथन से उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, लक्ष्मी, भगवान् धन्वन्तरि सहित 14 रत्न निकले जिनमें 14 वाँ अमृत था। 
इस प्रकार मंथन करने पर क्षीरसागर से क्रमशः कामधेनु, वारुणी देवी, कल्पवृक्ष और अप्सराएँ प्रकट हुईं। इसके बाद चंद्रमा निकले, जिन्हें महादेव जी ने मस्तक पर धारण किया। फिर कालकूट विष प्रकट हुआ जिसे भगवान् शिव ने सहर्ष अपने कंठ में धारण कर लिया उअर नील कंठ कहलाये. इस दौरान कुछ बूँदैं बिखर गईं जिन्हें साँपों और बिच्छुओं ने चाट लिया।  कुछ बिखरा हुआ कालकूट जड़ी बूटियों ने ग्रहण कर लिया जिसके कारण हिमालय की ओर से आने वाली हवा विषैली हो गई।तदनंतर अमृत का कलश हाथ में लिए भगवान् धन्वंतरि का प्रादुर्भाव हुआ। इससे देवताओं और दानवों को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। भगवती माँ लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। वे खिले हुए कमल के आसन पर विराजमान थीं। उनके अंगों की दिव्य कांति सब ओर प्रकाशित हो रही थी। उनके हाथ में कमल शोभा पा रहा था। उनका दर्शन कर देवता और महर्षिगण प्रसन्न हो गए। उन्होंने वैदिक श्री सूक्त का पाठ करके लक्ष्मी देवी का स्तवन करके दिव्य वस्त्राभूषण अर्पित किए। वे उन दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित होकर सबके देखते-देखते अपने सनातन स्वामी श्री विष्णु भगवान के वक्षस्थल में चली गई। भगवान् को लक्ष्मी जी के साथ देखकर देवता प्रसन्न हो गए। दैत्यों को बड़ी निराशा हुई। उन्होंने धन्वंतरि के हाथ से अमृत का कलश छीन लिया, किंतु भगवान् ने मोहिनी स्त्री के रूप से उन्हें अपनी माया द्वारा मोहित करके सारा अमृत देवताओं को ही पिला दिया। तदनंतर इंद्र ने बड़ी विनय और भक्ति के साथ श्री लक्ष्मी जी ने देवताओं को मनोवांछित वरदान दिया।भगवान् ने मोहिनी स्त्री के रूप सेउन्हें अपनी माया द्वारा मोहित करके सारा अमृत देवताओं कोही पिला दिया। तदनंतर इंद्र ने बड़ी विनय और भक्ति के साथश्री लक्ष्मी जी ने देवताओं को मनोवांछित वरदान दिया।

भगवान परशुराम द्वारा क्षत्रियों का21 बार संहार :- Jamdagni's cow:  Sahastr Bahu (-Thousand-armed) Haehay king, Kart Veery Arjun, destroyed Jamdagni's hermitage and captured the calf of Kam Dhenu. To retrieve the calf, Jamdagni's son Bhagwan Parshu Ram slew the king, whose sons in turn killed Jamdagni. Parshu Ram then destroyed the Kshatriy (-warrior, marshal castes) race 21 times and his father was resurrected by divine grace.

भगवान् परशुराम, भगवान् विष्णु के छठे अवतार हैं। उन्होंनेतत्कालीन अत्याचारी और निरंकुश क्षत्रियों का 21 बार संहारकिया। महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज केहैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे।सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था। उन्होने दत्तत्राई कोप्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या सेप्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राईसे 10000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया।  इसके बादउसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा| इसे सहस्त्राबाहू औरराजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाताहै|

वो घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ गया|उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकीथी| वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्टकरना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजनके लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था। 

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराममाता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्तदुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथलेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुँचे। जहाँ सहस्त्रार्जुन और  भगवान् परशुराम का युद्ध हुआ।किंतु  भगवान् परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान् परशुराम ने दुष्टसहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया।

सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए  भगवान् परशुराम तीर्थ यात्रापर चले गए। तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षिजमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभीऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वरमें पुकारा| जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता केसमीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे।

यह देखकर भगवान् परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहींकर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे।पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया।

भगवान् परशुराम ने  21  बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करकेउनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर करअपने संकल्प को पूरा किया| महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकटहोकर भगवान् परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दियाथा तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात  भगवान् परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रियाकी एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया|

मत्स्यावतार :- स्वायंभुव मनु के कुल में मत्स्य पुराण में उल्ले‍ख है कि द्रविड़ देश के राजर्षि सत्यव्रत एक दिनकृतमाला नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उस समय उनकी अंजुलि में एक छोटी-सी मछली आ गई। सत्यव्रतने मछली को नदी में डाल दिया तो मछली बोल पड़ी। उसने कहा कि इस जल में बड़े जीव-जंतु मुझे खा जाएंगे।यह सुनकर राजा ने मछली को फिर जल से निकाल लिया और अपने कमंडल में रख लिया और महल ले आए।

रातभर में वह मछली बढ़ गई, तब राजा ने उसे बड़े मटके में डाल दिया। मटके में भी वह बढ़ गई तो उसे तालाबमें डाल दिया। अंत में सत्यव्रत ने जान लिया कि यह कोई मामूली मछली नहीं, जरूर इसमें कुछ बात है, तबउन्होंने उसे ले जाकर समुद्र में डाल दिया। समुद्र में डालते समय मछली ने कहा कि समुद्र में मगर रहते हैं आपवहां मत छोड़िए, लेकिन राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि आप मुझे कोई मामूली मछली नहीं जान पड़ती है,आपका आकार तो अप्रत्याशित तेजी से बढ़ रहा है बताएं कि आप कौन हैं?

तब मछली रूप में भगवान् विष्णु ने प्रकट होकर कहा किआज से 7वें दिन प्रलय (-अधिक वर्षा से) के कारण पृथ्वीसमुद्र में डूब जाएगी, तब मेरी प्रेरणा से तुम एक बहुत बड़ीनौका बनाओ और जब प्रलय शुरू हो तो तुम सप्त ऋषियोंऔर कुछ मनुष्यों सहित सभी एक जोड़े प्राणियों को लेकर उसनौका में बैठ जाना तथा सभी अनाज उसी में रख लेना। अन्यछोटे-बड़े बीज भी रख लेना। नाव पर बैठकर लहरातेमहासागर में विचरण करना।

प्रचंड आंधी के कारण नौका डगमगा जाएगी। तब मैं इसी रूपमें आ जाऊंगा, तब वासुकि नाग द्वारा उस नाव को मेरे सींग मेंबांध लेना। जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी, मैं नाव समुद्र मेंखींचता रहूंगा। उस समय जो तुम प्रश्न करोगे, मैं उत्तर दूंगा।इतना कह मछली गायब हो गई।

राजा तपस्या करने लगे। मछली का बताया हुआ समय आगया। वर्षा होने लगी। समुद्र उमड़ने लगा। तभी राजा ऋषियों, अन्न, बीजों को लेकर नौका में बैठ गए और फिर भगवानरूपीवही मछली दिखाई दी। उसके सींग में नाव बांध दी गई औरमछली से पृथ्वी और जीवों को बचाने की स्तुति करने लगे।मछलीरूपी विष्णु ने उसे आत्मतत्व का उपदेश दिया।मछलीरूपी विष्णु ने अंत में नौका को हिमालय की चोटी सेबांध दिया। उस चोटी को आज नौकाबंध कहते हैं। 6 माह तकवर्षा हुई और नाव में ही बैठे-बैठे जल प्रलय का अंत हो गया।

यही सत्यव्रत वर्तमान में महाकल्प में विवस्वान (-सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए, वही वैवस्वतमनु के नाम से भी जाने गए।

पूर्व में यह धरती जल प्रलय के कारण जल से ढंक गई थी।कैलाश, गोरी-शंकर की चोटी तक पानी चढ़ गया था।  संपूर्णधरती ही जलमग्न हो गई थी, लेकिन ओंकारेश्वर स्थितमार्कंडेय ऋषि का आश्रम जल से अछूता रहा। इसके अलावातिब्बत, मंगोलिया के कई ऊंचे पठार भी जल से अछूते रहे।

कई माह तक वैवस्वत मनु (-इन्हें श्राद्धदेव भी कहा जाता है) द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गौरी-शंकर शिखरसे होते हुए नीचे उतरी। गौरी-शंकर जिसे एवरेस्ट की चोटीकहा जाता है, दुनिया में इससे ऊंचा, बर्फ से ढंका हुआ औरठोस पहाड़ दूसरा नहीं है।

वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे :- (1). इल, (2). इक्ष्वाकु, (3). कुशनाम, (4). अरिष्ट, (5). धृष्ट, (6). नरिष्यन्त, (7). करुष, (8). महाबली, (9). शर्याति और (10). पृषध। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दू धर्म केमहान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।

स्वायम्भुव मनु ही आदि मनु और प्रजापति कहे गए हैं। उनकेदो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपाद। राजा उत्तानपाद के पुत्रपरम धर्मात्मा ध्रुव हुए, जिन्होंने भक्ति भाव से भगवान् विष्णुकी आराधना करके अविनाशी पद को प्राप्त किया।

राजर्षि प्रियव्रत के दस पुत्र हुए, जिनमें से तीन तो संन्यासग्रहण करके घर से निकल गए और परब्रह्म परमात्मा को प्राप्तहो गए। शेष सात द्वीपों में उन्होंने अपने सात पुत्रों को प्रतिष्ठितकिया। राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीघ्र जम्बू द्वीप केअधिपति हुए।

उनके नौ पुत्र जम्बू द्वीप के नौ खण्डों के स्वामी माने गए हैं, जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृतवर्ष, भद्राश्ववर्ष, केतुमालवर्ष, कुरुवर्ष, हिरण्यमयवर्ष, रम्यकवर्ष, हरीवर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को नाभिखंड (भारतवर्ष) कहते हैं।

नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गएहैं। नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से ‘भरत’ का जन्महुआ; जिनके आधार पर इस देश को भारतवर्ष भी कहते हैं।

Vashishth's cow: Vishwamitr with his army arrived at the hermitage of sage Vashishth. The sage welcomed him and offered a huge banquet to the army, that was produced by Sabla-a Kam Dhenu. Vishwamitr asked the sage to part with Sabla and instead offered thousand of ordinary cows, elephants, horses and jewels in return. However, the sage refused to part with Sabla, who was necessary for the performance of the sacred rituals and charity by the sage. Agitated, Vishwamitr seized Sabla by force, but she returned to her master, fighting the king's men. She hinted Vashishth to order her to destroy the king's army and the sage followed her wish. Intensely, she produced Pahlav warriors, who were slain by Vishwamitr's army. So, she produced warriors of Shak-Yavan lineage. From her mouth, emerged the Kambhoj, from her udder Barvaras, from her hind Yavans and Shaks, and from pores on her skin, Harits, Kirats and other foreign warriors. Together, the army of Sabla killed Vishwamitr's army and all his sons. This event led to a great rivalry between Vashishth and Vishwamitr, who renounced his kingdom and became a great sage to defeat Vashishth.

TULSI -BASIL MAA तुलसी माँ :: वृंदा का जन्म राक्षस  कुल में हुआ था। वह बचपन से ही भगवान् श्री हरी विष्णु की परम भक्त थी और बड़े ही प्रेम से भगवान्  की पूजा किया करती थी। जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया, जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था। उसे माँ लक्ष्मी का भाई माना जाता है। वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी।

एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा :- स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं आप जब तक युद्ध में रहेगें मैं पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुँगी और जब तक आप वापस नहीं आ जाते मैं अपना संकल्प नही छोडूगीं। जलंधर युद्ध के लिए चला गया और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई। उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान् विष्णु के पास गए। उन सबने भगवान्  से प्रार्थना की तो भगवान्  ने कहा कि वृंदा मेरी परम भक्त है मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता।  देवताओं ने भगवान् से अनुरोध किया कि उनके सिवाय उनका कोई आश्रय नहीं है। 
भगवान्  ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पहुंच गए जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा में से उठ गई और उनके चरण छू लिए। जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओं ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया। उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पड़ा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े हैं ये कौन है?

उन्होंने पूछा कि आप कौन हैं, जिनका स्पर्श मैंने किया है। भगवान् अपने रूप में आ गए पर वे कुछ ना बोल सके, वृंदा सारी बात समझ गई। उन्होंने भगवान्  को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, भगवान्  तुंरत पत्थर के हो गए। सभी देवता हाहाकार करने लगे। लक्ष्मी जी रोने लगीं और प्रार्थना करने लगीं तब वृंदा ने अपना शॉप वापस ले लिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गई। 

उनकी अस्थियों से एक पौधा निकला जिसका नामकरण भगवान् ने तुलसी किया और प्रसन्न होकर  उन्हें अपने धाम में स्थापित कर दिया। उन्होंने कहा किआज से इनका नाम तुलसी है और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जाएगा और मैं बिना तुलसी जी के प्रसाद स्वीकार नहीं करुँगा। तब से तुलसी जी की पूजा सभी करने लगे और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है। देवउठनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है।

Vranda was born as a Rakshs-demon girl. She was a great devotee of Bhagwan Shri Hari Vishnu from her early childhood. She always worshiped the Almighty with great love and dedication. She was married to Jalandhar, the sibling of Maa Bhagwati Laxmi. Vranda was extremely devoted to her husband and offered prayers to Bhagwan Vishnu for his longevity. This turned into a protective shield for Jalandhar, who again and again crushed the demigods. He even defeated Bhagwan Mahadev Shiv. This resulted in a delegation of demigods who met Bhagwan Vishnu for their protection. Bhagwan being the protector of the demigods agreed to save them. 

He appeared before Vranda in the disguise of Jalandhar. She could not recognize him, since the Almighty had come to grant her boons for the prayers, she had been doing all these years. She could stop from her from making love with the God in the disguise of Jalandhar resulting in breaking of her celibacy and womanhood. At this moment Jalandhar was relinquished by Bhagwan Shiv. Jalandhar got a berth in Vaikunth Lok, the abode of Bhagwan Vishnu, with the form of Bhagwan Vishnu with four hands.

Vranda too realized what had happened. She cursed his mentor to become stone. But soon, she realized her folly and withdrew her curse by asking Bhagwan Vishnu to be prayed as Shaligram along with her. She too went to Vaikunth Lok to become one of the consorts of Bhagwan Shri Hari Vishnu.

Her mortal remains took the form of a shrub named Tulsi-Basil a wonderful medicinal plant. Since that day she is worshiped along with Bhagwan Vishnu. Her leaves are offered as prasad-प्रसाद to the devotees after the prayer is over.

त्रिपुरारी:: कार्तिक मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। इसी दिन भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के त्रिपुरों का नाश किया था। त्रिपुरों का नाश करने के कारण ही भगवान शिव का एक नाम त्रिपुरारी भी है। 

दैत्य तारकासुर के तीन पुत्र थे-तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली। जब भगवान् शिव के पुत्र भगवान् कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके पुत्रों को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने देवताओं से बदला लेने के लिए घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। जब ब्रह्मा जी प्रकट हुए तो उन्होंने अमर होने का वरदान माँगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने के लिए कहा, क्योंकि समस्त बह्मांड में कोई भी अमर नहीं है। एक न एक दिन सबको जाना ही पड़ता है।

तब उन तीनों ने ब्रह्मा जी से वर माँगा कि उनके पुरों-नगरों को केवल तभी नष्ट किया जा सके जब वे एक सीध में आयें। वरदान प्राप्त करके उन्होंने मय दानव से सोने, चाँदी और लोहे के विशाल काय नगरों का निर्माण करवाया जो आकाश-अंतरिक्ष में स्वतः-स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करते थे। उनमें लाखों-करोणों राक्षसों ने स्वेच्छा से अपना निवास बना लिया। अजेय होकर उन्होंने पृथ्वी और स्वर्ग में अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। उनके अत्याचारों से दुखी होकर समस्त ऋषि और देवगण ब्रह्मा जी के पास उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी उन्हें लेकर भगवान् शिव के पास पधारे और अपने वरदान और तीनों राक्षसों के अत्याचारों के वर्णन किया। 

भगवान् शिव ने शर्त रखी कि यदि समस्त देवतागण उन्हें अपना सम्राट स्वीकार करें तो वे यह कार्य करने को तैयार हैं। भगवान् विष्णु सहित सभी देवताओं ने अपनी सहमति जताई तो विश्वकर्मा ने भगवान्  शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। चंद्रमा व सूर्य उसके पहिए बने, इंद्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपाल उस रथ के घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और भगवान् शेषनाग उसकी प्रत्यंचा। स्वयं भगवान् विष्णु बाण तथा अग्निदेव उसकी नोक बने। उस दिव्य रथ पर सवार होकर जब भगवान् शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए चले तो दैत्यों में हाहाकर मच गया।

दैत्यों व देवताओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आए, भगवान् शिव ने दिव्य बाण चलाकर उनका नाश कर दिया। त्रित्रुरों का नाश होते ही सभी देवता भगवान्  शिव की जय-जयकार करने लगे। त्रिपुरों का अंत करने के कारण ही भगवान् शिव को त्रिपुरारीकहा जाता है।

लक्ष्मण चरित्र :: भगवान् श्री राम के साथ भगवान् विष्णु की तीसरी मूर्ति लक्ष्मण जी थे। वे भगवान् शेषनाग-भगवान् अनन्त के अवतार हैं जिन्होंने पृथ्वी को पर फन पर सरसों के दाने के समान रखा हुआ है। उनकी भगवान् राम व सीता के समर्पण और भक्ति भी अद्भुत थी। लक्ष्मणजी की कथा के बिना श्री रामकथा पूर्ण नहीं है। जब अगस्त्य मुनि अयोध्या पधारे तो लंका युद्ध का प्रसंग छिड़ गया। 

भगवान् श्रीराम ने बताया कि उन्होंने कैसे रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रचंड वीरों का वध किया और लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा। 

अगस्त्य मुनि बोले कि निःसंदेह श्री राम, रावण और कुंभकर्ण प्रचंड वीर थे, लेकिन मेघनाध भी महा पराक्रमी और वीर था। उसने अंतरिक्ष में स्थित होकर देवराज इंद्र से युद्ध किया था और उन्हें बांधकर लंका ले आया था। ब्रह्मा जी ने इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा तब इंद्र मुक्त हुए थे। लक्ष्मण जी ने उसका वध किया इसलिए वे उससे भी महान योद्धा हुए। भगवान् श्री राम ने प्रत्यक्ष में आश्चर्य प्रकट किया और भाई की वीरता की प्रशंसा से वह खुश हुए।  

उन्होंने अगस्त ऋषि से विस्तार से वर्णन करने के लिए कहा तो वो बोके कि  इंद्रजीत का वध रावण से ज्यादा मुश्किल था क्योंकि इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो कि 

💥 चौदह वर्षों तक न सोया हो,

💥 जिसने चौदह साल तक किसी स्त्री का मुख न देखा हो और 

💥 चौदह साल तक भोजन न किया हो।  

लोकार्जन की दृष्टि से भगवान् श्री राम बोले : मैं बनवास काल में चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल देता रहा। मैं सीता के साथ एक कुटी में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है। अगस्त्य मुनि सारी बात समझकर मुस्कुराए भला अन्तर्यामी प्रभु से कहीं कुछ छुपा है?! सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान करते थे लेकिन प्रभु चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में हो। 

अगस्त्य मुनि ने कहा :-क्यों न लक्ष्मण जी से ही पूछा जाए ?

लक्ष्मणजी आए प्रभु ने कहा कि आपसे जो पूछा जाए उसे सच-सच कहिएगा। 

प्रभु ने पूछा :- हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ? फल दिए गए फिर भी अनाहारी कैसे रहे ? और 14 साल तक सोए नहीं ? यह कैसे हुआ ?

लक्ष्मणजी ने बताया :- भैया जब हम भाभी को तलाशते ऋष्यमूक पर्वत गए तो सुग्रीव ने हमें उनके आभूषण दिखाकर पहचानने को कहा। आपको स्मरण होगा मैं तो सिवाए उनके पैरों के नुपूर के कोई आभूषण नहीं पहचान पाया था, क्योंकि मैंने कभी भी उनके चरणों के ऊपर देखा ही नहीं था। 

चौदह वर्ष नहीं सोने के बारे में सुनिए  :- आप और माता एक कुटिया में सोते थे। मैं रातभर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए पहरेदारी में खड़ा रहता था। निद्रा ने मेरी आंखों पर कब्जा करने की कोशिश की तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था। 

निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी लेकिन जब श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा और मैं उनके पीछे सेवक की तरह छत्र लिए खड़ा रहूंगा तब वह मुझे घेरेगी। आपको याद होगा राज्याभिषेक के समय मेरे हाथ से छत्र गिर गया था। 

अब मैं 14 साल तक अनाहारी कैसे रहा! मैं जो फल-फूल लाता था आप उसके तीन भाग करते थे।  एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो। आपने कभी फल खाने को नहीं कहा। फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उन्हें कैसे खाता ?

मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया। 

सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे। प्रभु के आदेश पर लक्ष्मण जी चित्रकूट की कुटिया में से वे सारे फलों की टोकरी लेकर आए और दरबार में रख दिया। फलों की गिनती हुई, सात दिन के हिस्से के फल नहीं थे। 

प्रभु ने कहा :- इसका अर्थ है कि तुमने सात दिन तो आहार लिया था। 

लक्ष्मणजी ने सात फल कम होने के बारे बताया :- उन सात दिनों में फल आए ही नहीं। 

(1). जिस दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहे। (2). जिस दिन रावण ने माता का हरण किया, उस दिन फल लाने कौन जाता। (3). जिस दिन समुद्र की साधना कर आप उससे राह मांग रहे थे।  (4). जिस दिन आप इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिन भर अचेत रहे। (5). जिस दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता को काटा था और हम शोक में रहे। (6). जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी। (7). और जिस दिन आपने रावण-वध किया। 

इन दिनों में हमें भोजन की सुध कहां थी ? विश्वामित्र मुनि से मैंने एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था। बिना आहार किए जीने की विद्या। उसके प्रयोग से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका जिससे इंद्रजीत मारा गया।  भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मणजी की तपस्या के बारे में सुनकर उन्हें ह्रदय से लगा लिया. और उनका अभिनन्दन किया। 

पाण्डवों के दूत भगवान् श्री कृष्ण :: पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष और अज्ञातवास का एक वर्ष व्यतीत हो गया। दुर्योधन ने कहा कि मैंने पाण्डवों का अज्ञातवास भंग के दिया है, अतः उन्हें फिर से 12 वर्ष के लिए वनवास के लिए जाना होगा। भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और आचार्य कृपाचार्य ने कहा कि इस समय 4 कलैंडर प्रचिलित हैं और उन चारों के अनुसार पाण्डवों का वनवास पूरा हो गया है अतः उनका राज्य उनको वापस लौटा देना चाहिए परन्तु दुर्योधन ने उनकी एक न सुनी और बगैर युद्ध के एक इंच भूमि भी देने से इंकार कर दिया।

पुत्र मोह से ग्रसित दृष्टिविहीन धृतराष्ट्र ने संजय को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजा। संजय ने युधिष्ठर को बार-बार वैराग्य धर्म का उपदेश दिया कि तुम्हारी यदि जय भी हो जाए तो इससे क्या लाभ होगा, कुल का नाश हो जाएगा।भगवान् श्री कृष्ण ने कहा : पांडव अपना अधिकार क्यों छोड़े? यह वैराग्य धर्म का उपदेश उस समय कहाँ गया था, जब छल से शकुनि ने युधिस्टर का राज्य छिना था ?!

भगवान् श्री कृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुँचे। दुर्योधन ने वहाँ उनका शाही स्वागत करने का प्रयत्न किया। उन्हें उसने भोजन के लिए आमंत्रित किया, परन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने वह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। दुर्योधन बोला : जनार्दन, आपके लिए अन्न, फल, वस्त्र तथा शैय्या आदि जो वस्तुएँ प्राप्त की गई, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने हमारी प्रेमपूर्वक समर्पित पूजा ग्रहण क्यों नहीं की?”

भगवान् श्री कृष्ण ने उस समय जवाब दिया : भोजन खिलाने में दो भाव काम करते हैं। एक दया और दूसरी प्रीति- सम प्रीति। भोज्यानयन्नामि आपद्रभोज्यानि वा पुनः? दया दीन को दिखाई जाती है, सो हम दीन-दरिद्र नहीं हैं। जिस काम के लिए हम आए हैं, पहले वह सिद्ध हो जाए तो हम भोजन भी कर लेंगे। आप अपने ही भाइयों से द्वेश क्यों करते हैं? आप हमें क्या खिलाइएगा? उनका धार्मिक पक्ष है, आपका अधार्मिक, सो जो उनसे द्वेष करता है, वह हमसे भी द्वेष करता है। एक बात हमेशा याद रखो : जो द्वेष करता है, उसका अन्न कभी ना खाओ और द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए :द्विषन्नं नैव भौक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्।  

भगवान् श्री कृष्ण ने इसी कारण दुर्योधन का राजसी आतिथ्य भी स्वीकार नहीं किया, जबकि सरल विदुर जी का सादा रुखा-सूखा अन्न स्वीकार किया। 

दयाहीन लोगों का भोजन खाने से अच्छा है कि मनुष्य किसी निर्धन के यहाँ भोजन कर ले।

महा भारत की पृष्ठ भूमि :: खाण्डव वन (-वर्तमान नौयडा-दिल्ली-इंद्रप्रस्थ) नागों की भूमि थी। उससे भी पूर्व यह मय दानव-मन्दोदरी के पिता व् रावण के स्वसुर, के राज्य का हिस्सा था। खाण्डव वन साफ-सफाई के दौरान इसके के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभय दान दे दिया था। इससे कृतज्ञ हो कर मय दानव ने अर्जुन से कहा कि हे कुन्तीनन्दन! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है अतः आप आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?" अर्जुन ने उत्तर दिया कि मैं किसी बदले की भावना से उपकार नहीं करता, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर सेवा भावना है तो तुम भगवान् श्री कृष्ण की सेवा करो।" मयासुर के द्वारा किसी प्रकार की सेवा की आज्ञा माँगने पर भगवान् श्री कृष्ण ने उससे कहा कि हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम युधिष्ठिर की सभा हेतु ऐसे भवन का निर्माण करो जैसा कि इस पृथ्वी पर अभी तक न निर्मित हुआ हो।" मयासुर ने भगवान् श्री कृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने पाण्डवों को देवदत्त शंख, एक वज्र से भी कठोर रत्नजटित गदा तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया।

कुछ काल पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का सफलतापूर्वक आयोजन किया। यज्ञ के आयोजन के पहले भीम के द्वारा जरासंध का वध हुआ एवं यज्ञ के दौरान शिशुपाल का वध हुआ। यज्ञ के समाप्त हो जाने के बाद भी कौरव राजा दुर्योधन अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर के अतिथि बने रहे। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन के शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे जैसे कि स्थल के स्थान पर जल, जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा, यहाँ तक कि उसका उपहास करते हुये द्रौपदी ने कह दिया कि 'अन्धों के अन्धे ही होते हैं।' दुर्योधन अपने उपहास से पहले से ही जला-भुना किन्तु द्रौपदी के कहे गये वचन उसे चुभ गये।

द्यूत-क्रीड़ा :- हस्तिनापुर लौटते समय शकुनि ने दुर्योधन से कहा, "भाँजे! इन्द्रप्रस्थ के सभा भवन में तुम्हारा जो अपमान हुआ है उससे मुझे अत्यन्त दुःख हुआ है। तुम यदि अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते हो तो अपने पिता धृतराष्ट्र से अनुमति ले कर युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा (जुआ खेलने) के लिये आमन्त्रित कर लो। युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा का प्रेमी है, अतएव वह तुम्हारे निमन्त्रण पर वह अवश्य ही आयेगा और तुम तो जानते ही हो कि पासे के खेल में मुझ पर विजय पाने वाला त्रिलोक में भी कोई नहीं है। पासे के दाँव में हम पाण्डवों का सब कुछ जीत कर उन्हें पुनः दरिद्र बना देंगे।"

हस्तिनापुर पहुँच कर दुर्योधन सीधे अपने पिता धृतराष्ट्र के पास गया और उन्हें अपने अपमानों के विषय में विस्तारपूर्वक बताकर अपनी तथा मामा शकुनि की योजना के विषय में भी बताया और युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिये आमन्त्रित करने की अनुमति माँगी। थोड़ा-बहुत आनाकनी करने के पश्चात् धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को अपनी अनुमति दे दी। युधिष्ठिर को उनके भाइयों तथा द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर बुलवा लिया गया। अवसर पाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ द्यूत-क्रीड़ा का प्रस्ताव रखा जिसे युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया।

पासे का खेल आरम्भ हुआ। दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि पासे फेंकने लगे। युधिष्ठिर जो कुछ भी दाँव पर लगाते थे उसे हार जाते थे। अपना समस्त राज्य तक को हार जाने के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी दाँव पर लगा दिया और शकुनि धूर्तता करके इस दाँव को भी जीत गया। यह देख कर भीष्म, द्रोण, विदुर आदि ने इस जुए का बन्द कराने का प्रयास किया किन्तु असफल रहे। अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने आप को दाँव पर लगा दिया और शकुनि की धूर्तता से फिर हार गये।

राज-पाट तथा भाइयों सहित स्वयं को भी हार जाने पर युधिष्ठिर कान्तिहीन होकर उठने लगे तो शकुनि ने कहा, "युधिष्ठिर! अभी भी तुम अपना सब कुछ वापस जीत सकते हो। अभी द्रौपदी तुम्हारे पास दाँव में लगाने के लिये शेष है। यदि तुम द्रौपदी को दाँव में लगा कर जीत गये तो मैं तुम्हारा हारा हुआ सब कुछ तुम्हें लौटा दूँगा।" सभी तरह से निराश युधिष्ठिर ने अब द्रौपदी को भी दाँव में लगा दिया और हमेशा की तरह हार गये।

चीर हर :- अपनी इस विजय को देख कर दुर्योधन उन्मत्त हो उठा और विदुर से बोला, "द्रौपदी अब हमारी दासी है, आप उसे तत्काल यहाँ ले आइये।"

नीच दुर्योधन के वचन सुन कर विदुर तिलमिला कर बोले, "दुष्ट! धर्मराज युधिष्ठिर की पत्नी दासी बने, ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि तेरा काल निकट है इसीलिये तेरे मुख से ऐसे वचन निकल रहे हैं।" परन्तु दुष्ट दुर्योधन ने विदुर की बातों की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और द्रौपदी को सभा में लाने के लिये अपने एक सेवक को भेजा। वह सेवक द्रौपदी के महल में जाकर बोला, "महारानी! धर्मराज युधिष्ठिर कौरवों से जुआ खेलते हुये सब कुछ हार गये हैं। वे अपने भाइयों को भी आपके सहित हार चुके हैं, इस कारण दुर्योधन ने तत्काल आपको सभा भवन में बुलवाया है।" द्रौपदी ने कहा, "सेवक! तुम जाकर सभा भवन में उपस्थित गुरुजनों से पूछो कि ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये?" सेवक ने लौट कर सभा में द्रौपदी के प्रश्न को रख दिया। उस प्रश्न को सुन कर भीष्म, द्रोण आदि वृद्ध एवं गुरुजन सिर झुकाये मौन बैठे रहे।

यह देख कर दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी, "दुःशासन! तुम जाकर द्रौपदी को यहाँ ले आओ।" दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, "द्रौपदी! तुम्हें हमारे महाराज दुर्योधन ने जुए में जीत लिया है। मैं उनकी आज्ञा से तुम्हें बुलाने आया हूँ।" यह सुन कर द्रौपदी ने धीरे से कहा, "दुःशासन! मैं रजस्वला हूँ, सभा में जाने योग्य नहीं हूँ क्योंकि इस समय मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है।" दुःशासन बोला, "तुम रजस्वला हो या वस्त्रहीन, मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हें महाराज दुर्योधन की आज्ञा का पालन करना ही होगा।" उसके वचनों को सुन कर द्रौपदी स्वयं को वचाने के लिये गांधारी के महल की ओर भागने लगी, किन्तु दुःशासन ने झपट कर उसके घुँघराले केशों को पकड़ लिया और सभा भवन की ओर घसीटने लगा। सभा भवन तक पहुँचते-पहुँचते द्रौपदी के सारे केश बिखर गये और उसके आधे शरीर से वस्त्र भी हट गये। अपनी यह दुर्दशा देख कर द्रौपदी ने क्रोध में भर कर उच्च स्वरों में कहा, "रे दुष्ट! सभा में बैठे हुये इन प्रतिष्ठित गुरुजनों की लज्जा तो कर। एक अबला नारी के ऊपर यह अत्याचार करते हुये तुझे तनिक भी लज्जा नहीं आती? धिक्कार है तुझ पर और तेरे भरतवंश पर!"

यह सब सुन कर भी दुर्योधन ने द्रौपदी को दासी कह कर सम्बोधित किया। द्रौपदी पुनः बोली, "क्या वयोवृद्ध भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, विदुर इस अत्याचार को देख नहीं रहे हैं? कहाँ हैं मेरे बलवान पति? उनके समक्ष एक गीदड़ मुझे अपमानित कर रहा है।" द्रौपदी के वचनों से पाण्डवों को अत्यन्त क्लेश हुआ किन्तु वे मौन भाव से सिर नीचा किये हुये बैठे रहे। द्रौपदी फिर बोली, "सभासदों! मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि धर्मराज को मुझे दाँव पर लगाने का क्या अधिकार था?" द्रौपदी की बात सुन कर विकर्ण उठ कर कहने लगा, "देवी द्रौपदी का कथन सत्य है।" युधिष्ठिर को अपने भाई और स्वयं के हार जाने के पश्चात् द्रौपदी को दाँव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि वह पाँचों भाई की पत्नी है अकेले युधिष्ठिर की नहीं। और फिर युधिष्ठिर ने शकुनि के उकसाने पर द्रौपदी को दाँव पर लगाया था, स्वेच्छा से नहीं। अतएव कौरवों को द्रौपदी को दासी कहने का कोई अधिकार नहीं है।"

विकर्ण के नीतियुक्त वचनों को सुनकर दुर्योधन के परम मित्र कर्ण ने कहा, "विकर्ण! तुम अभी कल के बालक हो। यहाँ उपस्थित भीष्म, द्रोण, विदुर, धृतराष्ट्र जैसे गुरुजन भी कुछ नहीं कह पाये, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि द्रौपदी को हमने दाँव में जीता है। क्या तुम इन सब से भी अधिक ज्ञानी हो? स्मरण रखो कि गुरुजनों के समक्ष तुम्हें कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है।" कर्ण की बातों से उत्साहित होकर दुर्योधन ने दुःशासन से कहा, "दुःशासन! तुम द्रौपदी के वस्त्र उतार कर उसे निर्वसना करो।" इतना सुनते ही दुःशासन ने द्रौपदी की साड़ी को खींचना आरम्भ कर दिया। द्रौपदी अपनी पूरी शक्ति से अपनी साड़ी को खिंचने से बचाती हुई वहाँ पर उपस्थित जनों से विनती करने लगी, "आप लोगों के समक्ष मुझे निर्वसन किया जा रहा है किन्तु मुझे इस संकट से उबारने वाला कोई नहीं है। धिक्कार है आप लोगों के कुल और आत्मबल को। मेरे पति जो मेरी इस दुर्दशा को देख कर भी चुप हैं उन्हें भी धिक्कार है।"

द्रौपदी की दुर्दशा देख कर विदुर से रहा न गया, वे बोल उठे, "दादा भीष्म! एक निरीह अबला पर इस तरह अत्याचार हो रहा है और आप उसे देख कर भी चुप हैं। क्या हुआ आपके तपोबल को? इस समय दुरात्मा धृतराष्ट्र भी चुप है। वह जानता नहीं कि इस अबला पर होने वाला अत्याचार उसके कुल का नाश कर देगा। एक सीता के अपमान से रावण का समस्त कुल नष्ट हो गया था।"

विदुर ने जब देखा कि उनके नीतियुक्त वचनों का किसी पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो वे सबको धिक्कारते हुये वहाँ से उठ कर चले गये।

दुःशासन द्रौपदी के वस्त्र को खींचने के अपने प्रयास में लगा ही हुआ था। द्रौपदी ने जब वहाँ उपस्थित सभासदों को मौन देखा तो वह द्वारिकावासी श्री कृष्ण को टेरती हुई बोली, "हे गोविन्द! हे मुरारे! हे कृष्ण! मुझे इस संसार में अब तुम्हारे अतिरिक्त और कोई मेरी लाज बचाने वाला दृष्टिगत नहीं हो रहा है। अब तुम्हीं इस कृष्णा की लाज रखो।"

भक्तवत्सल श्री कृष्ण ने द्रौपदी की पुकार सुन ली। वे समस्त कार्य त्याग कर तत्काल अदृश्यरूप में वहाँ पधारे और आकाश में स्थिर होकर द्रौपदी की साड़ी को बढ़ाने लगे। दुःशासन द्रौपदी की साड़ी को खींचते जाता था और साड़ी थी कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती थी। साड़ी को खींचते-खीचते दुःशासन शिथिल होकर पसीने-पसीने हो गया किन्तु अपने कार्य में सफल न हो सका। अन्त में लज्जित होकर उस चुपचाप बैठ जाना पड़ा। अब साड़ी के उस पर्वत के समान ऊँचे ढेर को देख कर वहाँ बैठे समस्त सभाजन द्रौपदी के पातिव्रत की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे और दुःशासन को धिक्कारने लगे। द्रौपदी के इस अपमान को देख कर भीमसेन का सारा शरीर क्रोध से जला जा रहा था। उन्होंने घोषणा की, "जिस दुष्ट के हाथों ने द्रौपदी के केश खींचे हैं, यदि मैं उन हाथों को अपनी गदा से नष्ट न कर दूँ तो मुझे सद्गति ही न मिले। यदि मैं उसकी छाती को चीर कर उसका रक्तपान न कर सकूँ तो मैं कोटि जन्मों तक नरक की वेदना भुगतता रहूँ। मैं अपने भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर के वश में हूँ अन्यथा इस समस्त कौरवों को मच्छर की भाँति मसल कर नष्ट कर दूँ। यदि आज मै स्वामी होता तो द्रौपदी को स्पर्श करने वाले को तत्काल यमलोक पहुँचा देता।"

भीमसेन के वचनों को सुन कर भी अन्य पाण्डवों तथा सभासदों को मौन देख कर दुर्योधन और अधिक उत्साहित होकर बोला, "द्रौपदी! मैं तुम्हें अपनी महारानी बना रहा हूँ। आओ, तुम मेरी बाँयीं जंघा पर बैठ जाओ। इन पुंसत्वहीन पाण्डवों का साथ छोड़ दो।" यह सुनते ही भीम अपनी दुर्योधन के साथ युद्ध करने के लिये उठ खड़े हुये, किन्तु अर्जुन ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें रोक लिया। इस पर भीम पुनः दुर्योधन से बोले, "दुरात्मा! मैं भरी सभा में शपथ ले कर कहता हूँ कि युद्ध में तेरी जाँघ को चीर कर न रख दूँ तो मेरा नाम भीम नहीं।"

इसी समय सभा में भयंकर अपशकुन होता दिखाई पड़ा। गीदड़-कुत्तों के रुदन से पूरा वातावरण भर उठा। इस उत्पात को देखकर धृतराष्ट्र और अधिक मौन न रह सके और बोले उठे, "दुर्योधन! तू दुर्बुद्धि हो गया है। आखिर कुछ भी हो, द्रौपदी मेरी पुत्र वधू है। उसे तू भरी सभा में निर्वसना कर रहा है।" इसके पश्चात् उन्होंने द्रौपदी से कहा, "पुत्री! तुम सचमुच पतिव्रता हो। तुम इस समय मुझसे जो वर चाहो माँग सकती हो।" द्रौपदी बोलीं, "यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दें कि मेरे पति दासता से मुक्ति पा जायें।" धृतराष्ट्र ने कहा, "देवि! मैं तुम्हें यह वर दे रहा हूँ। पाण्डवगण अब दासता मुक्त हैं। पुत्री! तुम कुछ और माँगना चाहो तो वह भी माँग लो।" इस पर द्रौपदी ने कहा, "हे तात! आप मेरे पतियों के दिव्य रथ एवं शस्त्रास्त्र लौटा दें।" धृतराष्ट्र ने कहा, "तथास्तु"। पाण्डवों के दिव्य रथ तथा अस्त्र-शस्त्र लौटा दिये गये। धृतराष्ट्र ने कहा, "पुत्री! कुछ और माँगो।" इस पर द्रौपदी बोली, "बस तात्! क्षत्राणी केवल दो वर ही माँग सकती है। इससे अधिक माँगना लोभ माना जायेगा।"

शबरी कथा :: शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था । श्रमणा भील समुदाय की शबरी जाति से सम्बंधित एक कुलीन ह्रदय की प्रभु राम की एक अनन्य भक्त  थी। उसका विवाह एक दुराचारी और अत्याचारी व्यक्ति से हुआ था।प्रारम्भ में श्रमणा ने अपने पति के आचार-विचार बदलने की बहुत चेष्टा की, लेकिन उसके पति के पशु संस्कार इतने प्रबल थे कि श्रमणा को उसमें सफलता नहीं मिली। कालांतर में अपने पति के कुसंस्कारों  और अत्याचारों से तंग आकर श्रमणा ने ऋषि मातंग के आश्रम में शरण ली। आश्रम में श्रमणा श्रीराम का भजन  और ऋषियों की सेवा-सुश्रुषा करती हुई अपना समय व्यतीत करने लगी ।

श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह उसे आश्रम से उठा लाने के लिए चल पड़ा। मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया। श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी। उसने करुण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा। ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर अग्नि पैदा कर दी। जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ क़दम नहीं बढ़ाया। 

स्थूलशिरा नामक महर्षि के अभिशाप से राक्षस बने कबन्ध को भगवान् श्री राम ने उसका वध करके मुक्ति दी और उससे माता सीता की खोज में मार्ग दर्शन करने का अनुरोध किया। तब कबन्ध नेभगवान्  श्री राम को मतंग ऋषि के आश्रम का रास्ता बताया और राक्षस योनि से मुक्त होकर गन्धर्व रूप में परम धाम पधार गया।भगवान्  श्री राम माता सीता की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में पहुंचे। मतंग ऋषि ने उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। 

श्रमणा वन-फलों की अनगिनत टोकरियां भरी और औंधी की। पथ बुहारती रही। राह निहारती रही। प्रतीक्षा में शबरी स्वयं प्रतीक्षा का प्रतिमान हो जाती है। जब शबरी को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं उसके आश्रम  आए हैं तो वह एकदम भाव विभोर हो उठी और ऋषि मतंग के दिए आशीर्वाद को स्मरण करके गद्गद हो गईं। वह दौड़कर अपने प्रभु श्रीराम के चरणों से लिपट गईं। मतंग ऋषि ने कहा, हे श्रमणा! जिन भगवान् श्री राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं। मन भरकर इनकी सेवा कर लो। 

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला। स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥ 

प्रेम मगर मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा। सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥ 

कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाईयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। वह प्रेम में मग्न हो गईं। मुख से वचन तक नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्हें जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाईयों के चरण कमल धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।

कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान् के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था।उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। भगवान्  श्री राम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार, बेर कहीं खट्टे न हों, इसलिए अपने इष्ट की भक्ति की मदहोशी से ग्रसित शबरी ने बेरों को चख-चखकर भगवान्  श्री राम व लक्ष्मण को भेंट करने शुरू कर दिए। भगवान्  श्री राम शबरी की अगाध श्रद्धा व अनन्य भक्ति के वशीभूत होकर सहज भाव एवं प्रेम के साथ झूठे बेर अनवरत रूप से खाते रहे।  

भगवान्  श्री राम ने शबरी द्वारा श्रद्धा से भेंट किए गए बेरों को बड़े प्रेम से खाए और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। 

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥ 

इसके बाद  भगवान् श्री राम ने शबरी की भक्ति से खुश होकर कहा, ‘‘भद्रे!  तुमने  मेरा बड़ा सत्कार किया। अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार आनंदपूर्वक अभीष्ट लोक की यात्रा करो।’’ इस पर शबरी ने स्वयं को अग्नि के अर्पण करके दिव्य शरीर धारण किया और अपने प्रभु की आज्ञा से स्वर्गलोक पधार गईं।

लक्ष्मण जी ने झूठे बेर खाने में संकोच किया। उसने नजर बचाते हुए वे झूठे बेर एक तरफ फेंक दिए। लक्ष्मण जी द्वारा फेंके गए यही झूठे बेर, बाद में जड़ी-बूटी बनकर उग आए। समय बीतने पर यही जड़ी-बूटी लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी साबित हुई। भगवान्  श्री राम-रावण युद्ध के दौरान रावण के पुत्र इन्द्रजीत (-मेघनाथ) के ब्रह्मास्त्र  से लक्ष्मण मुर्छित हो गए और मरणासन्न हो गए। विभिषण के सुझाव पर लंका से वैद्यराज सुषेण को लाया गया। वैद्यराज सुषेण के कहने पर बजरंग बली हनुमान संजीवनी लेकर आए। भगवान्  श्री राम की अनन्य भक्त शबरी के झूठे बेर ही लक्ष्मण के लिए जीवनदायक साबित हुए।

भगवान् श्री राम अपनी इस वनयात्रा में मुनियों के आश्रम में भी गए। महर्षि भरद्वाज, ब्रह्मर्षि वाल्मीकि आदि के आश्रम में भी आदर और स्नेहपूर्वक उन्हें कंद, मूल, फल अर्पित किए गए। 

महर्षि वाल्मीकी ने शबरी को सिद्धा कहकर पुकारा, क्योंकि अटूट प्रभु भक्ति करके उसने अनूठी आध्यात्मिक उपलब्धि हासिल की थी। यदि शबरी को हमारी भक्ति परम्परा का प्राचीनतम प्रतीक कहें तो कदापि गलत नहीं होगा।

नवधा भक्ति :: शबरी को उसकी योगाग्नि से हरिपद लीन होने से पहले प्रभु राम ने शबरी को नवधाभक्ति के अनमोल वचन दिए। प्रभु  सदैव भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं ।

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं। प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। 

पहली भक्ति है संतों का सत्संग। 

दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। 

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा। 

चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें। 

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा; पंचम भजन सो बेद प्रकासा। छठ दम सील बिरति बहु करम; निरत निरंतर सज्जन धरमा॥

मेरे (-राम नाम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है।

छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (-अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (-आचरण) में लगे रहना। 

सातवँ सम मोहि मय जग देखा; मोतें संत अधिक करि लेखा। आठवँ जथालाभ संतोषा; सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥

सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (-राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। 

आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना। 

नवम सरल सब सन छलहीना; मम भरोस हियँ हरष न दीना। नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई; नारि पुरुष सचराचर कोई॥

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो। 

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें; सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें। जोगि बृंद दुरलभ गति जोई; तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥

हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है। 

बर्बरीक :: बर्बरीक की दादी ने उसे बताया था कि भगवान् श्री कृष्ण स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं और उनके हाथों मरने से सीधे मुक्ति प्राप्त होती है। उसे समस्त राक्षसी मायाओं का पूर्ण ज्ञान था। वह अतुलित बलशाली और धुरन्धर तीरन्दाज था। युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य स्थित एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा। भीम के पौत्र बर्बरीक के समक्ष जब अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण उसकी वीरता का चमत्कार देखने के लिए उपस्थित हुए तब बर्बरीक ने अपनी वीरता का छोटा-सा नमूना मात्र ही दिखाया। कृष्ण ने कहा कि यह जो वृक्ष है ‍इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊंगा। बर्बरीक ने आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया। जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा, भगवान् श्री कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया की यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया। तब बर्बरीक ने कहा प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर को छेदने की नहीं। उसके इस चमत्कार को देखकर कृष्ण चिंतित हो गए। भगवान श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि बर्बरीक प्रतिज्ञावश हारने वाले का साथ देगा। यदि कौरव हारते हुए नजर आए तो फिर पांडवों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और यदि जब पांडव बर्बरीक के सामने हारते नजर आए तो फिर वह पांडवों का साथ देगा। इस तरह वह दोनों ओर की सेना को नष्ट कर देगा। तब भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का भेष बनाकर सुबह बर्बरीक के शिविर के द्वार पर पहुंच गए और दान मांगने लगे। बर्बरीक ने कहा मांगो ब्राह्मण! क्या चाहिए? ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा कि तुम दे न सकोगे। लेकिन बर्बरीक कृष्ण के जाल में फंस गए और कृष्ण ने उससे उसका शीश मांग लिया। बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीश दान कर दिया। बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर दान के पश्चात् श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलियुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया। आज बर्बरीक को खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है।

Santosh Kumar at 7:59 AM

Share

 

No comments:

Post a Comment

Home

View web version

About Me

Santosh Kumar 

View my complete profile

Powered by Blogger.

No comments:

Post a Comment